जिन्हें कामकाजी औरतों के रूप में गिना नहीं जाता है उनमें भी अनेक औरतें कामकाजी हैं जो परिवार की आय बढ़ाती हैं लेकिन उन्हें अपने परिवार की संपत्ति पर अधिकार नहीं मिलता। एक आकलन के अनुसार, कार्यसहभागिता और आर्थिक योगदान की दृष्टि से विश्व में लगभग सोलह खरब (ट्रिलियन) डॉलर की अर्थव्यवस्था में स्त्रियां लगभग ग्यारह खरब डॉलर का योगदान करती हैं जबकि वे विश्व की 10 प्रतिशत आय और एक प्रतिशत संपत्ति की ही स्वामिनी हैं। भारत में साक्षरता की कमी के कारण स्त्रियों की प्रत्यक्ष कार्यसहभागिता पुरुषों की अपेक्षा कम है।
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ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक स्त्रियां ऐसे काम कर के अपने परिवार के अर्थोपार्जन में सहभागी बनती हैं जिन्हें न तो व्यवसाय में गिना जाता है और न नौकरी में। वे वनों से जलाऊ लकड़ियां काटती तथा बीनती हैं और उन्हें ले जा कर निकटतम गांव, कस्बे अथवा शहर में बेचती हैं, वे अन्य प्रकार के वनोपज जैसे चिरौंजी, तेंदू, कत्था, तेंदूपत्ता, गोंद, महुआ आदि एकत्र करती हैं जिनके बदले उन्हें पैसा मिलता है। वनों के निकट बसे हुए गांवों में रहने वाली स्त्रियों के धनोपार्जन का सबसे बड़ा स्रोत वन परिक्षेत्र होता है।
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यद्यपि वनपरिक्षेत्र में वनोपज एकत्र करना अत्यंत जोखिम भरा काम होता है। एक ओर वन विभाग से विधिवत अनुमति प्राप्त होनी चाहिए, जिसके बारे में अधिकांश स्त्रियों को उस समय तक कम ही पता होता है जब तक वे "वनोपज चुराने" के मामले में पकड़ी नहीं जाती हैं अथवा यदि वे किसी ठेकेदार के लिए वनोपज एकत्र करने का कार्य करती हैं तो वह ठेकेदार उनके लिए वन विभाग से अनुमति की व्यवस्था करता है। फिर भी इन स्त्रियों को यदाकदा अज्ञानतावश वन विभाग के कोप का भाजन बनते रहना पड़ता है। दूसरा और इससे भी बड़ा जोखिम उन स्त्रियों के लिए रहता है जो अभ्यारण्य के निकट गांवों में रहती हैं तथा अभयारण्यों में प्रवेश करके चारा, तेंदूपत्ता आदि वैध या अवैध तरीके से एकत्र करती हैं। इन्हें कानून के अतिरिक्त हिंसक वन्य पशुओं का सामना करना पड़ता है।
इस संबंध में न तो इनका कोई जीवन-बीमा रहता है और न इसके सुरक्षा का कोई उपाय। इसके परिवार के पुरुष इन्हें इस प्रकार के जोखिम भरे काम करने की अनुमति तो देते हैं किंतु इनकी रक्षा करने के बारे में विशेष चिंतित नहीं रहते हैं। वस्तुतः परिस्थितियों की दृष्टि से स्त्रियों का यह तबका देश की समस्त स्त्रियों में सबसे अनदेखा रह जाता है। घरेलू ग्रामीण स्त्री के रूप में इनकी परंपरागत छवि ने इन्हें कामकाजी होने पर भी कामकाजी स्त्रियों की परिधि से बाहर रखा है। यद्यपि कुछ कार्यक्षेत्रों में राज्य सरकारों द्वारा श्रमिक अधिकार पत्र प्रदान किए जाने के कारण उन कार्यक्षेत्रों में कार्यरत स्त्रियों की गणना कामकाजी के रूप में होने लगी है। फिर भी देश की स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों के सशक्तीकरण में जो तीव्रता आनी चाहिए थी, वह नहीं आई।
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महिलाओं की निरक्षरता का लाभ उठाते हुए उनके नियोक्ता उनसे भरपूर छल करते हैं। यदि स्त्री को प्रसूति का व्यय एवं सवैतनिक सुविधाएं देने का प्रावधान होता है तो उस स्थिति में नियोक्ता अपने रजिस्टर में उनका नाम लिखने के बदले उनके पति, बच्चों अथवा उनके परिवार की उस आयु की महिला का नाम लिखना अधिक पसंद करते हैं जिसकी आयु बच्चा जनने के योग्य ही न रह गई हो। इससे वे प्रसूति से जुड़ी कोई भी सुविधा देने से बच जाते हैं।
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इसका एक सबसे बड़ा कारण यह है कि एक स्त्री की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्री के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्री की अपेक्षा आज भी अधिक है। जब तक यह असमानता रहेगी तब तक कामकाजी स्त्रियों का एक बड़ा प्रतिशत शोषण के अंधेरे में खोया रहेगा।