शिव हैं योग का प्रारम्भ

ओम नम: शिवाय।- 'ओम' प्रथम नाम परमात्मा का फिर 'नमन' शिव को करते हैं।
 
'सत्यम, शिवम और सुंदरम' - जो सत्य है वह ब्रह्म है- ब्रह्म अर्थात परमात्मा। जो शिव है वह परम शुभ और पवित्र है और जो सुंदरम है वही प्रकृति है। अर्थात परमात्मा, शिव और पार्वती के अलावा कुछ भी जानने योग्य नहीं है। इन्हें जानना और इन्हीं में लीन हो जाने का मार्ग है- योग।
 
शिव कहते हैं 'मनुष्य पशु है'- इस पशुता को समझना ही योग और तंत्र का प्रारम्भ है। योग में मोक्ष या परमात्मा प्राप्ति के तीन मार्ग हैं- जागरण, अभ्यास और समर्पण। तंत्रयोग है समर्पण का मार्ग। जब शिव ने जाना क‍ि उस परम तत्व या सत्य को जानने का मार्ग है, तो उन्होंने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु वह मार्ग बताया।
 
अमरनाथ के अमृत वचन : शिव द्वारा माँ पार्वती को जो ज्ञान दिया गया वह बहुत ही गूढ़-गंभीर तथा रहस्य से भरा ज्ञान था। उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएँ हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। 'विज्ञान भैरव तंत्र' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।
 
योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव के '‍विज्ञान भैरव तंत्र' और 'शिव संहिता' में उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं। इसी की एक शाखा हठयोग की है। भगवान शिव कहते हैं- 'वामो मार्ग: परमगहनो योगितामप्यगम्य:' अर्थात वाम मार्ग अत्यन्त गहन है और योगियों के लिए भी अगम्य है।-मेरुतंत्र
 
आदि पुरुष : आदि का अर्थ प्रारम्भ। शिव को आदिदेव या आदिनाथ कहा जाता है। नाथ और शैव सम्प्रदाय के आदिदेव। शिव से ही योग का जन्म माना गया है। वैदिककाल के रुद्र का स्वरूप और जीवन दर्शन पौराणिक काल आते-आते पूरी तरह से बदल गया। वेद जिन्हें रुद्र कहते है, पुराण उन्हें शंकर और महेश कहते हैं। शिव का न प्रारंभ है और न अंत।
 
शिव को स्वयंभू इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वे आदिदेव हैं, जबकि धरती पर कुछ भी नहीं था सिर्फ वही थे, उन्हीं से धरती पर सब कुछ हो गया। ति‍ब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर प्रारम्भ में उनका निवास रहा। वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। फिर जब समुद्र हटा तो अन्य धरती का प्रकटन हुआ।
 
ज्योतिषियों और पुराणिकों की धारणा से सर्वथा भिन्न है भगवान शंकर का दर्शन और जीवन। उनके इस दर्शन और ‍‍जीवन को जो समझता है वही महायोगी के मर्म, कर्म और मार्ग को भी समझता है।
 
शैव परम्परा : ऋग्वेद में वृषभदेव का वर्णन मिलता है, जो जैनियों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ हैं, उन्हें ही वातरशना मुनि‍‍‍ कहा गया है। वे उनका जीवन अवधूत जैसा ब‍िताते थे। योगयुक्त व्यक्ति ही अवधूत हो सकता है। माना जाता है कि शिव के बाद मूलत: उन्हीं से एक ऐसी परम्परा की शुरुआत हुई जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगम्बर और सूफी सम्प्रदाय में वि‍भक्त हो गई।
 
इस्लाम के प्रभाव में आकर सूफियों से कमंडल और धूना छूट गया, लेकिन चिमटा और खप्पर आज भी नहीं छूटा। जो माला रुद्राक्ष की होती थी, वह अब हरे, पीले, सफेद, मोतियों की होती है। जो कुछ है सब उस योगीश्वर शिव के प्रति ही है। उनके निराकार स्वरूप को शिव और साकार स्वरूप को शंकर कहते हैं।
 
शैव और नाथ सम्प्रदाय की बहुत प्राचीन परम्परा रही है। जैन और नाथ सम्प्रदाय में जिन नौ नाथ की चर्चा की गई है वह सभी योगी ही थे और शिव के प्रति ही थे।
 
शिव का दर्शन : शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वह सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में ज‍ीयो, वर्तमान में जीयो अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
 
शिव का शिवयोग : इसे तंत्र या वामयोग भी कहते हैं। शिवयोग में धारणा, ध्यान और समाधि अर्थात योग के अंतिम तीन अंग का ही प्रचलन अधिक रहा है।
 
अंतत : शिव के दर्शन और जीवन की कहानी दुनिया के हर धर्म और उनके ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में विद्यमान है और इस भिन्नता का कारण है परम्परा और भाषा का बदलते रहना, पुराणिकों द्वारा उनकी मनमानी व्याख्या करते रहना।
 
-shatayu
 

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