जंगे आजादी में भी थी गोरक्षपीठ की भूमिका, चौरीचौरा कांड में आया था महंत दिग्विजयनाथ का नाम

देश में पूरे धूमधाम से आजादी के अमृत महोत्सव के आयोजन चल रहे हैं। आजादी के उन दीवानों को याद किया जा रहा है जिन्होंने अपने घर-परिवार की तनिक भी चिंता किए बगैर मां भारती को गुलामी की जंजीर से मुक्त कराने के लिए खुद को समर्पित कर दिया। इनमें से कुछ आमने-सामने की लड़ाई में शहीद हुए तो कुछ ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया। कई लोगों की पूरी जवानी कालापानी या अन्य जेलों में बेहद विषम स्थितियों में गुजर गई। कुछ के अप्रतिम त्याग को सुर्खियां नहीं मिलीं, पर लोककथाओं में उनकी शौर्यगाथा जिंदा रही।
 
आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान इन सबको याद किया जा रहा है। मकसद यह है कि युवा पीढ़ी इनके बारे में जाने। इनसे प्रेरणा लेकर खुद में भी राष्ट्र के प्रति वही जोश, जज्बा एवं जुनून पैदा करें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में उत्तर प्रदेश में भी आजादी का अमृत महोत्सव पूरे जोशो-खरोश से मनाया जा रहा है। इसके पहले उनके निर्देश पर साल भर पहले आजादी की लड़ाई को निर्णायक मोड़ देने वाली 'चौरीचौरा जनक्रांति' के उपलक्ष्य में भी वर्षपर्यंत कार्यक्रम चले थे।
 
उल्लेखनीय है कि योगी आदित्यनाथ, मुख्यमंत्री होने के साथ गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर भी हैं। उत्तर भारत के प्रमुख पीठों में शुमार जहां तक इस पीठ की आजादी की लड़ाई में योगदान की बात है तो करीब 100 साल से देश की हर राजनीतिक एवं सामाजिक घटना में अपना प्रभाव छोड़ने वाली गोरखपुर की गोरक्षपीठ भी इससे अछूती नहीं रही। उस समय देश का जो माहौल था, यह होना बेहद स्वाभाविक भी था।
 
दरअसल जिस समय गांधीजी के नेतृत्व में आजादी का आंदोलन चरम पर था, उस समय पीठ में मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दादागुरु ब्रह्मलीन दिग्वजयनाथ (बचपन का नाम नान्हू) का गोरखनाथ मंदिर में आगमन हो चुका था। मूलत: वह चित्तौड़ (मेवाड़) के रहने वाले थे। वही चित्तौड़ जहां के महाराणा प्रताप आज भी देश प्रेम के जज्बे और जुनून की मिसाल हैं। जिन्होंने अपने समय के सबसे शक्तिशाली मुगल सम्राट अकबर के सामने घुटने टेकने की बजाय घास की रोटी खाना पसंद किया। 
 
हल्दीघाटी में जिस तरह उन्होंने अपने सीमित संसाधनों के साथ अकबर की फौज का मुकाबला किया वह खुद में इतिहास के स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। आज भी हर राष्ट्रप्रेमी के लिए प्रताप मिसाल हैं। चित्तौड़ की माटी की तासीर का असर दिग्विजयनाथ पर भी था। अपने विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने मंदिर प्रागंण में अपने धर्म का प्रचार कर रहे इसाई समुदाय को मय तंबू-कनात जाने को विवश कर दिया। उस समय गांधीजी की अगुवाई में पूरे देश में कांग्रेस की आंधी चल रही थी। दिग्विजयनाथ भी इससे अछूते नहीं रहे। उन्होंने जंगे आजादी के लिए जारी क्रांतिकारी आंदोलन और गांधीजी के नेतृत्व में जारी शांतिपूर्ण सत्याग्रह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
 
एक ओर जहां उन्होंने समकालीन क्रांतिकारियों को संरक्षण, आर्थिक मदद और अस्त्र-शस्त्र मुहैया कराया, वहीं गांधीजी के आह्वान वाले असहयोग आंदोलन के लिए स्कूल का परित्याग कर दिया। वह जंगे आजादी के दोनों तरीकों में शामिल रहे तो लक्ष्य स्पष्ट था कि किसी भी दशा में देश गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होना चाहिए। 
चौरीचौरा जनक्रांति (चार फरवरी 1922) के करीब साल भर पहले आठ फरवरी 1921 को जब गांधीजी का पहली बार गोरखपुर आगमन हुआ था, वह रेलवे स्टेशन पर उनके स्वागत और सभा स्थल पर व्यवस्था के लिए अपनी टोली स्वयंसेवक दल के साथ मौजूद थे। नाम तो उनका चौरीचौरा जनक्रांति में भी आया था, पर वह ससम्मान बरी हो गए। 
 
देश के अन्य नेताओं की तरह चौरीचौरा जनक्रांति के बाद गांधीजी द्वारा असयोग आंदोलन के वापस लेने के फैसले से वह भी असहमत थे। बाद के दिनों में मुस्लिम लीग को तुष्ट करने की नीति से उनका कांग्रेस और गांधीजी से मोह भंग होता गया। इसके बाद उन्होंने वीर सावरकर और भाई परमानंद के नेतृत्व में गठित अखिल भारतीय हिंदू महासभा की सदस्यता ग्रहण कर ली। जीवन पर्यंत वह इसी में रहे।
 
देश भक्ति के जज्बे का प्रतीक है महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद : ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ महाराण प्रताप से वह कितने प्रभावित थे, इसका सबूत 1932 में उनके द्वारा स्थापित महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद है। इस परिषद का नाम महाराणा प्रताप रखने के पीछे यही मकसद था कि इसमें पढ़ने वाल विद्यार्थियों में भी देश के प्रति वही जज्बा, जुनून और संस्कार पनपे जो प्रताप में था। इसमें पढ़ने वाले बच्चे प्रताप से प्रेरणा लें। उनको अपना रोल मॉडल मानें। उनके आदर्शों पर चलते हुए यह शिक्षा परिषद चार दर्जन से अधिक संस्थाओं के जरिए विद्यार्थियों के राष्ट्रीयता की अलख जगा रहा है।

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