नई दिल्ली। उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच बढ़ती खींचतान और कॉलेजियम की कार्यशैली 2016 के दौरान उच्चतम न्यायालय में छाई रही, जहां अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के मामले में मोदी सरकार को जबर्दस्त शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा।
देश में 500 और 1,000 रुपए के नोटों को अमान्य घोषित करने की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की घोषणा के बाद यह मुद्दा लगातार शीर्ष अदालत पहुंचता रहा जिसकी वजह से सरकार की सांसें अटकी रहीं। न्यायालय ने इस मामले की लगभग हर सुनवाई पर इस निर्णय से जनता को हो रही परेशानियों के लिए सरकार को आड़े हाथ लिया और उससे कुछ असहज करने वाले सवाल भी पूछे।
न्यायालय ने हालांकि विमुद्रीकरण के फैसले में किसी प्रकार की छेड़छाड़ से इंकार कर दिया लेकिन इसे लेकर दायर कई याचिकाओं को बाद में उसने सारे मामले को सुविचारित निर्णय के लिए संविधान पीठ को सौंप दिया।
सरकार को विमुद्रीकरण के मामले में ही न्यायालय की फटकार नहीं सुननी पड़ी बल्कि अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने के मामले में भी शर्मसार होना पड़ा। हालांकि इस दौरान उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच वाकयुद्ध चलता रहा और दोनों ही एक-दूसरे पर 'लक्ष्मण रेखा' लांघने का आरोप लगाते रहे।
न्यायपालिका और भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार के बीच तलवारें तो पिछले साल ही उस समय खिंच गई थीं, जब संविधान पीठ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून निरस्त कर दिया था। यह खींचतन इस साल उस समय और बढ़ गई जब शीर्ष अदालत ने न्यायाधीशों की नियुक्ति का मामला न्यायिक पक्ष की ओर से उठाने की धमकी दी, परंतु बाद में उसने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायपालिका का काम ठप करने के लिए केंद्र को जिम्मेदार ठहराया।
न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में सरकार के रवैए के प्रति अपना आक्रोश जाहिर करते हुए प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर, जो 3 जनवरी को सेवानिवृत्त हो रहे हैं, के अत्यधिक भावुक होने और इसे लेकर व्यक्त किए गए जज्बात भी पूरे साल छाए रहे। न्यायपालिका में बड़ी संख्या में रिक्तियों के मामले की चर्चा करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति में आयोजित एक समारोह में अपनी व्यथा जाहिर की थी।
न्यायाधीशों के चयन से संबंधित प्रक्रिया ज्ञापन को कॉलेजियम द्वारा अंतिम रूप नहीं दिए जाने की केंद्र सरकार की निरंतर दी जा रही दलील पर प्रधान न्यायाधीश ने टिप्पणी भी की कि इसे अंतिम रूप नहीं दिया जाना न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं करने का कोई आधार नहीं है।
कॉलेजियम जिस समय अपनी कार्यशैली को लेकर चौतरफा आलोचनाओं का शिकार हो रही था, उसी दौरान इसके सदस्य न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर ने प्रधान न्यायाधीश को एक पत्र लिखकर कॉलेजियम की बैठकों से हटने की जानकारी दी और उन्होंने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए नामों के बारे में चर्चा की लिखित जानकारी चाही।
इस तरह की गतिविधियों के बीच ही न्यायालय के फैसलों पर उसके ही पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू ने सवाल उठाया और वे अपने ब्लॉग के माध्यम से न्यायपालिका के बारे में कथित रूप से असंयमित भाषा और उसे बदनाम करने के आरोप में न्यायालय की अवमानना की नोटिस प्राप्त करने वाले शीर्ष अदालत के पहले न्यायाधीश बन गए। इससे पहले न्यायमूर्ति काटजू न्यायालय में पेश हुए थे और उनकी न्यायाधीशों के साथ तकरार हुई थी।
यही नहीं, इस साल धनाढ्य बीसीसीआई को पूर्व न्यायाधीश आरएस लोढ़ा की अध्यक्षता वाली समिति की बोर्ड की कार्यशैली में सुधार की सिफारिशों को अपनाने का उल्लंघन करने के कारण शीर्ष अदालत में मुंह की खानी पड़ी। बीसीसीआई को साल का अंत होते-होते उस समय बडा झटका लगा, जब उसके अध्यक्ष अनुराग ठाकुर ही शीर्ष अदालत की फटकार के दायरे में आ गए। न्यायालय ने उन पर गलत हलफिया बयान देने के आरोप में अवमानना की कार्यवाही करने की चेतावनी देते हुए आगाह किया कि न्यायिक प्रशासन में दखल देने के कारण उन्हें जेल भी हो सकती है।
जनहित याचिकाओं पर विचार करना न्यायालय के लिए पूरे साल एक चुनौती रही और यह उस समय अधिक गंभीर हो गई, जब गैरसरकारी संगठन 'कॉमन कॉज' के वकील प्रशांत भूषण ने दो व्यावसायिक घरानों से रिश्वत लेने के आरोप में प्रधानमंत्री का नाम घसीटने का प्रयास किया। इन घरानों पर आयकर विभाग ने 2012-13 में छापे मारे थे। इस मामले में कोई राहत नहीं मिलते देख अंतत: भूषण ने मनोनीत प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर को इस याचिका की सुनवाई से अलग होने का अनुरोध किया। न्यायमूर्ति खेहर ने ‘बगैर किसी ठोस सामग्री’ के याचिका दायर करने पर उनसे सवाल किए थे।
मोदी सरकार को लोकपाल की नियुक्ति में विलंब और केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक की नियुक्ति जैसे मामलों में भी न्यायालय में असहज परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। यही नहीं, सरकार ने भारत के सांविधानिक इतिहास में पहली बार मुस्लिम समाज में 3 तलाक देने, निकाह हलाला और बहुपत्नी प्रथा का विरोध किया और इन मुद्दों पर शीर्ष अदालत में लिंग समानता तथा पंथनिरपेक्षता के आधार पर गौर करने की हिमायत की, हालांकि मुस्लिम संगठनों ने इसका विरोध किया।
इस साल के दौरान न्यायालय में स्व. जे. जयललिता, कांग्रेस नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी, पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जैसी राजनीतिक हस्तियों के मामले भी चर्चा में रहे। अमित शाह उन लोगों में शामिल थे जिन्हें शीर्ष अदालत से उस समय राहत मिली, जब न्यायालय ने सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड मामले में उन्हें पाकसाफ करार देने का बंबई उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। न्यायालय ने इस मामले में पहले अपील और फिर पुनर्विचार याचिका तथा सुधारात्मक याचिका भी खारिज कर दी। (भाषा)