कृषि के अनुसंधान प्रक्षेत्रों और कृषकों के खेतों पर मिलने वाली किसी भी फसल की प्रति इकाई उपज में भारी अंतर पाया जाता है। उदाहरण के लिए सोयाबीन की प्रति हैक्टेयर उपज अनुसंधान प्रक्षेत्रों पर 25-30 क्विंटल के बीच होती है, जबकि किसानों के खेतों पर प्रति हैक्टेयर 12-16 क्विंटल सोयाबीन ही मिल पाती है। इस समस्या के लिए अनेक सर्वेक्षण किए गए, जिनमें इस भारी अंतर का यह कारण बताया गया कि किसान फसल उत्पादन की उन्नत तकनीकों के पैकेज के सभी घटकों को नहीं अपनाते हैं।
प्रति इकाई समय और प्रति इकाई क्षेत्र से अधिक उत्पादन प्राप्त करने की तकनीक
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के मुख्य घटक हैं- मौसम व मिट्टी के अनुकूल फसलों का चयन, फसल विशेष की उन्नत किस्मों के बीजों का उपयोग, बीज के बोने का सही समय व सही विधि, प्रति इकाई क्षेत्र में पर्याप्त पौध संख्या, उर्वरकों का सही मात्रा में, सही विधि से, सही समय पर उपयोग, फसलों की अंतरवर्तीय पद्धति का अपनाया जाना, पौध संरक्षण (कीड़ों, रोगों व खरपतवारों से बचाव), सही समय पर कटाई। ये तकनीक क्यों नहीं अपनाई जा रही हैं, यह जानने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के अनेक किसानों से बातचीत की गई। इससे उभरकर आए मुद्दे इस प्रकार हैं :
* मौसम मिट्टी के अनुकूल फसल- पिछले कुछ वर्षों से प्रदेश के अधिकांश किसानों द्वारा लगातार सभी क्षेत्रों में सोयाबीन को प्रचारित, प्रसारित व प्रोत्साहित किए जाने के कारण अन्य फसलों की तरफ किसान का ध्यान ही नहीं जाता और न ही शासन या विश्वविद्यालयों द्वारा सोयाबीन के अतिरिक्त और किसी भी फसल की तरफ विशेष ध्यान दिया जा रहा है। न ही कोई वैकल्पिक फसल (सोयाबीन के बदले में) सुझाई जा रही है।
* उन्नत किस्मों का उपयोग- किसी भी फसल की नई उन्नत किस्म को तैयार करने में ब्रीडर (पौध प्रजनक) को कम से कम सात से ग्यारह वर्ष लगते हैं। शुरुआत में इनका बीज बहुत कम मात्रा में मिल पाता है। प्रायः इनकी जानकारी दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले या शहर के आसपास के छोटे कृषकों को नहीं रहती है। प्रारंभिक दौर में इन बीजों का प्रगुणन संपन्न किसान करते हैं।
वे इसे महँगे भाव पर बेचते हैं या बीज उत्पादक कंपनियाँ भी इन्हें अत्यंत महँगे भाव पर बेचती हैं। एक सामान्य किसान तक इन्हें पहुँचने में तीन से पाँच साल तक लग जाते हैं। प्रकृति के भी अपने कुछ नियम हैं। कोई भी नई किस्म अपने जीवनकाल के आठ से ग्यारह साल में अपघटित होकर उसके गुणों का ह्रास होने लगता है। उन पर रोग और कीड़ों के आक्रमण की आशंका बढ़ने के साथ ही उत्पादन में भी कमी आने लगती है। इस प्रकार छोटे और सीमांत कृषक इनका पूरा लाभ नहीं उठा पाते हैं।
* मजबूरी खाद व बीज मिलाकर बोने की- उन्नत उत्पादन तकनीक अनुसार बीज और खाद की बोवनी अलग-अलग गहराई पर (नीचे खाद और ऊपर बीज) की गई है। परंतु वर्तमान में अधिकतर सीड ड्रिल (बीज बुवाई यंत्रों) में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। इसलिए किसान बीज के साथ ही खाद को मिलाकर बो देते हैं। जमीन में पर्याप्त नमी न होने की स्थिति में या बोवनी के बाद तेज धूप पड़ने पर इससे अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़कर प्रति इकाई पौध संख्या कम हो जाती है।
* अंतरवर्तीय फसल बोने के यंत्र- अंतरवर्तीय फसल पद्धति से किसी भी एक अकेली फसल की अपेक्षा अधिक उपज निश्चित रूप से मिलती है। मौसम, कीड़े, रोग, बाजार भाव की जोखिम कम होती है। वर्तमान में ऐसे बुवाई यंत्र उपलब्ध नहीं हैं, जिससे दो फसलों को अलग-अलग कतारों में बोया जा सके।
* बीज उपचार का असर- दलहन फसलों में राइजोबियम कल्चर अन्य फसलों में एजेटोबेक्टर व सभी फसलों में स्फुर घोलक शाकाणुओं का उपचार किए जाने की सिफारिश है। इनमें ये कल्चर कितने कारगर हैं, इन्हें किन स्थितियों में रखा गया है, इस पर कोई नियंत्रण नहीं है। दूसरे जमीन में इनके प्रभाव के लिए आर्गेनिक कार्बन कितनी मात्रा में है? ये सभी प्रश्न अनुत्तरित हैं।
* कृषि आदानों में अपमिश्रण- कृषि में उपयोग में लाए जा रहे बीज, उर्वरक, कीटनाशक, रोगनाशक व खरपतवार नाशकों के अमानक स्तर व अपमिश्रण के लिए उपलब्ध नियम व दंड इतने लचर हैं कि उनका कोई डर ही नहीं है।
फसलों की सामयिक बोवनी- पिछले कुछ सालों में ट्रैक्टरों की संख्या में वृद्धि हुई है। इसके साथ ही बैलों की संख्या में काफी कमी आई है। खरीफ की बोवनी के समय बड़े कृषक ट्रैक्टर से सबसे पहले अपने खेत बोते हैं, उसके अन्य बड़े ग्राहक (किसानों) के खेतों की और सबसे आखिर में छोटे किसानों के खेतों की फसलों की बोवनी के लिए ट्रैक्टर उपलब्ध कराते हैं, जिससे छोटे किसानों की बोवनी पिछड़ जाती है। यह खरीफ फसल की कम उपज का एक मुख्य कारण है।