सिनेमा की ताकत का एहसास कराने की क्षमता रचनात्मक और ठोस इरादे वाले निर्माता निर्देशकों में ही होती है। ख्वाजा अहमद अब्बास के लिए सिनेमा समाज के प्रति एक कटिबद्धता थी। अब्बास ने इस प्रतिबद्धता को पूरा किया। वे सिनेमा को बहुविधा कला मानते थे जो मनोवैज्ञानिक और सामाजिक वास्तविकता के सहारे लोगों में वास्तविक बदलाव की आकांक्षा को जन्म दे सकती है।
सात जून 1914 को हरियाणा के पानीपत में जन्मे ख्वाजा अहमद अब्बास पर अपने पिता की अपेक्षा माता का अधिक प्रभाव पड़ा जिन्होंने उनके भीतर साहित्यिक रुचि को बढ़ाया। उनकी शुरुआती पढ़ाई एक मुस्लिम हाईस्कूल में हुई और उन्होंने 1933 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए किया।
वे उन कुछ गिनेचुने लेखकों में से एक हैं जिन्होंने मोहब्बत, शांति और मानवता का पैगाम दिया। पत्रकार के रूप में उन्होंने अलीगढ़ ओपीनियन शुरू किया। बाम्बे क्रानिकल में वे लंबे समय तक बतौर संवाददाता और फिल्म समीक्षक रहे। उनका स्तंभ 'द लास्ट पेज' सबसे लंबा चलने वाले स्तंभों में गिना जाता है। यह 1941 से 1986 तक चला। अब्बास इप्टा के संस्थापक सदस्य थे।
राजकपूर के फिल्मी करियर में अब्बास का प्रमुख योगदान है। अब्बास ने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थितियों के संबंध में अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए लोकप्रिय माध्यम सिनेमा का बखूबी उपयोग किया।
अब्बास सिनेमा को एक उद्देश्यपरक माध्यम मानते थे। समकालीन समस्याओं जैसे गरीबी, अकाल, अस्पृश्यता, सांप्रदायिक विभाजन पर उन्होंने करारा प्रहार किया।
'शहर और सपना' (1963) फुटपाथ पर जीवन गुजारने वाले लोगों की समस्याओं का वर्णन है और 'दो बूँद पानी' (1971) राजस्थान के मरुस्थल में पानी की विकराल समस्या और उसके मूल्य का वर्णन करता है। 'सात हिंदुस्तानी' में सांप्रदायिकता और विभाजन के दंश को व्यक्त किया गया है। गौरतलब है कि सात हिंदुस्तानी सिने स्टार अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म थी। 'द नक्सलाइट' नक्सल समस्या को उकेरती है।
पैंतीस वर्षों के फिल्मी करियर में उन्होंने 13 फिल्मों का निर्माण किया। उन्होंने लगभग चालीस फिल्मों की कहानी और पटकथाएँ लिखीं जिनमें अधिकतर राजकपूर के लिए हैं।
वे सिनेमा को मनोवैज्ञानिक और सामाजिक वास्तविकता का वर्णन करते हुए लोगों में वास्तविक स्थिति को बदलने के लिए आकांक्षा उत्पन्न करने का बड़ा साधन मानते थे।
अब्बास कई मायनों में अद्वितीय थे। 'शहर और सपना', 'सात हिंदुस्तानी', 'जागते रहो' या 'आवारा' उनकी प्रतिबद्धता के अनुपम उदाहरण थे।
एक बार अब्बास ने कहा भी था कि उन्होंने सिनेमा के साथ हर रूप में प्रयोग किया। अब्बास ने मल्टीस्टार, रंगीन, गीतयुक्त, वाइड स्क्रीन फिल्म, बिना गीत की फिल्म और सह निर्माता के रूप में एक विदेशी फिल्म का निर्माण किया।
जब कभी उन्हें अवसर मिलता वे नियो रिएलिज्म (नव यथार्थवाद) को मजबूत करने से चूकते नहीं थे। वे लोगों में आकांक्षा उत्पन्न करने का फार्मूला जानते थे। उनके बिना फिल्मों में नेहरू युग और रूसी लाल टोपी की कल्पना नहीं की जा सकती।
पत्रकारिता में भी उनका करियर 25 वर्षों से अधिक का रहा। उनके लेखों का संकलन दो किताबों 'आई राइट एस आई फील' और 'बेड ब्यूटी एंड रिवोल्यूशन' के रूप में किया गया है। 'परदेसी' रूस के सहयोग से बनी फिल्म थी।