आओ, अपनी राहों के गड्ढे भरें

वैसे तो इस बार भी गाँधी जयंती पर वही-वही हुआ, जो अक्सर हुआ करता है। लेकिन इस बार संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा गाँधी जयंती को अहिंसा दिवस के रूप में मनाना निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण बात है और भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र संघ के इस विशेष आयोजन में भाग लेने वाली यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने यह कहकर कि 'सवाल गाँधी की प्रासंगिकता का नहीं है, बल्कि इस बात का है कि हम में गाँधी के बताए रास्ते पर चलने का साहस और क्षमता है या नहीं', एक तरह से आने वाले कल की दुनिया के लिए भारत का एजेंडा ही प्रस्तुत किया है।

वर्तमान विश्व की समस्याओं के संदर्भ में 'गाँधीगिरी' का यह उद्घोष निर्विवाद रूप से एक विश्वव्यापी चिंता को उजागर करता है और साथ ही गाँधी मार्ग की आवश्यकता तथा महत्ता को भी।

यूएनओ की इस चिंता वाली खबर के साथ-साथ अखबार में एक और खबर छपी थी। भीतर के किसी पन्नो पर थी यह खबर। राजकोट के एक कस्बे धोराजी की इस खबर में एक माँ-बेटी के 'करतब' का विवरण है। बारिश के कारण कस्बे की एक मुख्य सड़क का हाल बुरा हो गया था। गड्ढों के मारे वाहनों और पदयात्रियों दोनों का चलना दूभर था। सब इस स्थिति को भुगत रहे थे और व्यवस्था को कोसते रहते थे। पर व्यवस्था को कोसने से तो गड्ढे ठीक होते नहीं, लेकिन एक महिला इला भट्ट और उसकी बेटी पायल ने कोसने से आगे जाने की सोची।

उन्होंने न तो नेताओं-अधिकारियों से गुहार की, न जानकारी के अधिकार का सहारा लिया। वे दोनों स्वयं गड्ढों को भरने में जुट गईं। इसके लिए आठ ट्रैक्टर पथरी की आवश्यकता थी अर्थात बत्तीस सौ रुपए। माँ-बेटी ने राहगीरों से एक-एक रुपया माँगकर आनन-फानन में 1265 रुपए एकत्र कर लिए। शेष राशि इला भट्ट के पति ने, जो एक बैंक में कार्य करते हैं, दे दी।

बजरी आ गई और माँ-बेटी ने मिलकर शाम तक सड़क के सारे गड्ढे पाट दिए। उन्हें काम करता देख कुछ और युवाओं को भी जोश आ गया था, इसलिए उनका काम आसान हो गया। हालाँकि संबंधित अफसरों का सिर्फ यही कहना है कि उन्होंने सुना है, 'सड़क की मरम्मत का कुछ काम हुआ है,' लेकिन हकीकत यह है कि यह 'कुछ काम' व्यवस्था और नागरिकों के रिश्तों की एक आदर्श परिभाषा बन गया है। जागरूक नागरिक के दायित्व का एक उदाहरण भी।

यूएनओ वाली खबर के साथ इस खबर को पढ़ने के बाद अनायास एक सवाल-सा उठा था मेरे मन में बापू यदि आज होते तो इन दोनों में से किस खबर को अधिक महत्व देते। देखा जाए तो दोनों खबरों में तुलना जैसी कोई बात है भी नहीं। कहाँ तो दुनिया के अस्तित्व पर आए संकट से जु़ड़ी यूएनओ की चिंता और कहाँ एक छोटे-से कस्बे की एक सड़क की बदहाली।

लेकिन पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है बापू होते तो यूएनओ की ओर देखने से पहले इला और पायल की पीठ थपथपाते। इसलिए नहीं कि उन्होंने अपने शहर की एक सड़क की मरम्मत कर दी, बल्कि इसलिए कि उन्होंने जागरूक नागरिक की एक पहचान स्थापित की है। सड़क की यह मरम्मत वस्तुतः एक प्रतीक है उस 'लड़ाई' का जो व्यक्ति को अपने लिए लड़नी होती है- अच्छी सड़क मेरा अधिकार है, मैं इसे पाकर रहूँगा, लेकिन यह कतई जरूरी नहीं कि मैं इसके लिए सरकार या व्यवस्था का मुँह देखता रहूँ। यह गाँधीगिरी है।

यह भले ही बेतुकी-सी लगे, लेकिन मुझे लगता है, इस सड़क वाली घटना में गाँधी की वह पवित्र जिद झलक रही है जिसकी गाँधी को महात्मा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका थी। नोआखली में जब साम्प्रदायिक दंगे हुए तो गाँधी अकेले निकल पड़े थे दंगों की आग बुझाने के लिए। तब लॉर्ड माउंटबेटन ने कहा था, 'पंजाब में हमारे पचास हजार सैनिक जिस काम में लगे हुए हैं, नोआखली में गाँधी अकेला उस काम को कर रहा है। गाँधीजी हमारी एक व्यक्ति वाली पूरी सेना हैं।'

गाँधी ने न जाने कितनी बार, कितने तरीकों से यह प्रमाणित किया कि सही नीयत और दृ़ढ़ संकल्पों वाला व्यक्ति कभी अकेला नहीं होता। राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी ने जब यह कहा, 'चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर' तो वे लोगों को साथ लेने की गाँधी की क्षमता का ही वर्णन नहीं कर रहे थे, वे उस गाँधीवाद को भी परिभाषित कर रहे थे जिसे महात्मा गाँधी ने हमेशा अपने कृत्यों से आकार दिया।

धोराजी कस्बे की माँ-बेटी ने मिलकर एक ऐसे ही आकार को सिरजा है। यह अपने ढंग का अकेला या पहला काम नहीं है। न जाने कितने लोग, कहाँ-कहाँ अकेले इस तरह दीपक जलाने में लगे हैं। ज्यादा अरसा नहीं हुआ, जब हमने उस बच्ची की कथा पढ़ी थी जिसे पानी के लिए माँ को मीलों दूर जाने की पीड़ा गवारा नहीं हुई थी और उसने अकेले अपनी ताकत पर घर के पिछवाड़े एक कुआँ खोदा था।

हाल ही में एक और खबर छपी थी उस आदमी की जिसने पूरे गाँव के लिए अपने खेत में अकेले एक तालाब बना दिया। एक और खबर छपी थी महाराष्ट्र के एक दुकानदार की, जिससे किसानों की व्यथा देखी नहीं गई और उसने अपनी बचत से एक ट्रैक्टर खरीदकर किसानों की समस्या का एक समाधान खोजा था...। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। कमी है तो ऐसे उदाहरणों से कुछ सीखने की भावना की। गाँधी आज होते तो हमारे भीतर इस भावना को जगाते। इसीलिए मुझे लगता है यूएनओ की पहल की प्रशंसा करने से पहले गाँधी इला और पायल की पीठ थपथपाते।

किसी एक अकेले का निर्माण का संकल्प ही आगे चलकर समूह की आकांक्षा का स्वरूप ले सकता है। भले ही यह बात बहुत आदर्शवादी लगती हो, लेकिन सच यही है कि समाज को सुधारने के लिए पहले व्यक्ति को स्वयं को सुधारना होगा और फिर बिना यह सोचे कि 'लोग क्या कहेंगे', अपने संकल्प को साकार करने के लिए जुट जाना होगा अकेले। यही गाँधी ने कहा था, और करके भी दिखाया था।

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