ज्योतिष की नजर में दशहरा

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त्वां नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्या।
तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धं लोककष्टकम् ।
अवध्यं देवर्तेविष्णो समरे जहि रावणम्।।

अर्थात - राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ के समय देवतागण यज्ञ में भाग लेने के लिए उपस्थित होते हैं और वे भगवान विष्णु से लोककल्याण हेतु रावण-वध के लिए प्रार्थना करते हैं कि, हे प्रभु विष्‍णु! लोकहित की कामना से हम आपको इस काम में लगाना चाहते हैं। आप मनुष्‍य रूप में अवतार लेकर बढ़े हुए लोककंटक रूप और देवताओं से न मारे जा सकने वाले रावण का
युद्ध में संहार कीजिए।

तब भगवान विष्णु ने देवताओं की प्रार्थना को सुनकर लोककल्याण के लिए, असत्य पर सत्य की विजय के लिए विप्र, धेनु, संत, पृथ्वी पर होने वाले अत्याचार को खत्म करने के लिए एवं रावण द्वारा जो भय उत्पन्न हो गया था, उसको मिटाने के लिए भगवान श्रीराम के रूप में जन्म लिया।

मैं भगवान श्रीराम को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने देवताओं की प्रार्थना सुनकर रावण का युद्ध में संहार किया। जिस दिन रावण मारा गया उस दिन अश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि थी। वही दिन विजय दशहरे के रूप में मनाया जाता है। भगवान श्रीराम ने ये संदेश दिया कि शत्रु की बुराई को खत्म करो, परंतु उसके परिवार के प्रति श्रद्धा एवं दया का भाव रखना चाहिए।

स्वयं श्रीराम ने रावण के मारे जाने के बाद विभीषण के प्रति अपनी सहज नम्रता ही दिखलाई। रावण की मृत्यु पर घर की सभी स्त्रियों को रोते देखकर विभीषण को दु:ख हो‍ता है। इस पर श्रीराम लक्ष्मण को आदेश देते हैं कि विभीषण को धैर्य बँधाओ और सांत्वना दो। तब लक्ष्मण द्वारा अपने शत्रु की मृत्यु पर भी शोक और संवेदना प्रकट करने पर विभीषण का मन कुछ हल्का होता है और वह श्रीरामजी के पास आता है।

कृपा दृष्टि प्रभु ताहि विलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका।।
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। विधिवत देस काल जियँ जानी ।।

श्रीरामजी ‍‍विभीषण पर कृपादृष्टि डालकर कहत‍े हैं कि सब शोक त्याग कर अपने भाई रावण की अंतिम क्रिया विधिपूर्वक अपने देश के रीति-रिवाज के अनुसार करो। स्पष्ट है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने रावण के प्रति शत्रुता का त्याग कर अपनी नम्रता, प्रेम और उदारता का ही उदाहरण प्रस्तुत किया। यही दशहरे का उद्देश्य है। दुश्मन की बुराई पर विजय प्राप्त करो, उसका संहार मत करो, उसकी बुराई का संहार करो। तुलसीदासजी कहते हैं-

पर हित सरिस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।
निर्नय सकल पुरान वेद कर। कहेऊँ तात जानहि कोबिद नर।।
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहि ते सहहिं महा भव धीरा।
करहि मोह बस नर अध नाना। स्वारथरत परलोक नसाना।।

अर्थात् दूसरों पर दया कर उनकी भलाई करने के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों की हिंसा करने या उन्हें पीड़ा पहुँचाने के समान कोई पाप नहीं है। गुरु अर्जुन देव कहते हैं-

भई परापति मानुख देहु‍‍रिआ।। गोविंद मिलन की इह तेरी बरीआ।
अबरि काज तेरे कितै न काम।। मिलु साधसंगति भजु केवल नामा।।
सरंजामि लागु भवजल तरन कै। जनमु व्रिधा जात रंगि माइआ कै।।

अर्थात् मनुष्‍य-जन्म का दुर्लभ अवसर भवसागर को पार करने और गोविंद से मिलाप प्राप्त करने के लिए मिलता है। माया के झूठे धंधों के लिए नहीं।

मनुष्य ने दशहरे के दिन माया के झूठे अन्याय हिंसा रूपी रावण को जलाकर प्रभु श्रीरामजी से जीवन में मंगल की प्रार्थना करनी चाहिए एवं आज प्रभु से अपने अंदर के रावण को मारकर राम से प्रार्थना कर ये माँगना चाहिए।

करउ सो मम उर धाम।
अर्थात् प्रभु मेरे हृदय में निवास करें।

करउ सो राम हृदय मम अयना।
हे राम। मेरे हृदय में अपना घर कर लो।

मम हिय गगन इंदु इव वसहु सदा निहकाम।
अर्थात् आप स्थिर होकर मेरे हृदय रूपी आकाश में चंद्रमा के समान हमेशा निवास करें।

मम हृदय करहु निकेत।
अर्थात् मेरे हृदय को अपना घर बना लें।

हृदि बसि राम काम मद गंजय।
अर्थात् - हे प्रभु राम! हमारे हृदय में बस कर काम, क्रोध और अहंकार को नष्‍ट कर दें।

प्रभु श्रीराम की इस प्रकार प्रार्थना करें। वे दया के सागर हैं। श्रीराम प्रभु की प्रार्थना, सेवा, भजन कर सभी दोषों और विकारों को दूर कर मन को निर्मल बनाया जा सकता है। क्योंकि प्रभु श्री राम स्वयं कहते हैं कि

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।

जिस सेवक का मन निर्मल होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल छिद्र नहीं सुहाते। अत: प्रभु स्मरण कर जीवन सुधार लें क्योंकि
का वरषा सब कृषी सुखानें। समय चुके पुनि का पछतावें।।

खेती सुख जाने पर वर्षा का कोई लाभ नहीं होता। उसी प्रकार समय हाथ से निकल जाने पर पश्चाताप करने का कोई लाभ नहीं होता।

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