मदमाते मौसम में 'भगोरिया'

-मनो
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फागुन की मदमाती बयारों और बसंत के साथ मध्यप्रदेश के बस्तर और आस-पास के इलाकों में 'भगोरिया पर्व' का शुभारंभ हो जाता है। यह एक उत्सव है जो होलिकोत्सव तक चलता है। रंग-रंगीले, मस्ती भरे, परंपरागत लोक-संस्कृति के प्रतीक भगोरिया पर्व में ढोल-मांदल की थाप, बाँसुरी की मधुर धुन और थाली की झंकार के साथ युवाओं की उमंग का आलम देखने को मिलता है।

नव पल्लवित वृक्षों के समान ही नए-नए आवरणों में सजे युवक और युवतियाँ जब इस उत्सव को मनाने टोलियों में आते हैं तो उनके मन की उमंग देखते ही बनती है। युवतियों का श्रृंगार तो दर्शनीय होता ही है, युवक भी उनसे पीछे नहीं रहते। आदिवासियों को मुख्य धारा से पिछड़ा मानने वाले हम यदि इनकी परंपराओं पर बारीकी से नजर डालें तो पाएँगे कि जिन परंपराओं के अभाव में हमारा समाज तनावग्रस्त है वही परंपराएँ इन वनवासियों ने बखूबी से विकसित की हैं।

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हमारे सभ्य समाज में मनपसंद जीवनसाथी की तलाश करने में स्वेदकण बहाने वालों को अपने गरेबान में झाँककर देखना चाहिए कि हमारे पास अपनी युवा पीढ़ी को देने के लिए क्या है? क्या हमारे पास हैं ऐसे कुछ उत्सव जो सिर्फ और सिर्फ प्रणय-परिणय से संबंधित हों? लेकिन आदिवासियों के पास हैं इस मामले में वे हमसे अधिक समृद्ध हैं।

झाबुआ जिले में प्रमुखतया भील आदिवासी ही हैं। झाबुआ जिले में भगोरिया हाट बड़े जोर-शोर से मनाए जाते हैं। मूल आदिवासी समाजों जैसे भील की एक अनोखी और विशिष्ट संस्कृति आज भी मानचित्र पर अपनी छवि बनाए हुए है, जिसका ज्वलंत उदाहरण है प्रेम पर्व भगोरिया। इस पर्व में भील संस्कृति के कुछ प्रमुख तत्व स्पष्ट रूप से उभरकर अभिव्यक्त होते हैं, जैसे लोक जीवन, लोक गीत, लोक नृत्य, भील व्यंग्य, शारीरिक अलंकरण, सौंदर्य, कलात्मकता आदि।

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भगोरिया हाट के दिन सभी गाँवों, फलियों और घरों में एक विशेष उत्साह, उन्माद व सरगर्मी नजर आती है। गाँवों में ढोलों के स्वर दूर-दूर तक प्रतिध्वनित होते हैं। कहीं घुँघरुओं की छम-छम तो कहीं थाली की झंकार, कहीं कुंडी या फिर शहनाई का तीव्र नाद, कहीं मांदल की थाप से उपजे संगीत के मधुर स्वर, बड़ी दूर-दूर तक वन प्रांतों, पहाड़ों की घाटियों, नदियों व जलाशयों की तरंगों, खेतों व खलिहानों में अविरल और सहज प्रतिध्वनित हो उठते हैं।

बाजारों की सरहदों पर ढोल-मांदलों आदि के संगीत पर नृत्य करती टोलियों की बड़ी संख्या से धूम बढ़ जाती है। भगोरिया हाट में दूर-दूर से कई किस्म की दुकानें नए-पुराने व्यापारी लाते व लगाते हैं। इनमें झूले, मिठाइयाँ, वस्त्र, सोने-चाँदी आदि धातुओं व प्लास्टिक के आभूषण, श्रृंगार के प्रसाधन, खिलौने, भोजन सामग्री आदि प्रमुख रहते हैं।

भील युवा तरह-तरह की समस्याओं से घिरे रहने के बावजूद सदा खिले ही रहते हैं। यह अनूठा प्रेम है, जो इस समाज के लिए परमात्मा का वरदान है। भगोरिया शब्द की व्युत्पत्ति भगोर क्षेत्र से तथा उसके आसपास होने वाले होलिका दहन के पूर्व के अंतिम हाट से हुई है। वैसे इसका असली नाम गलालिया हाट यानी गुलाल फेंकने वालों का हाट भी कहा गया है।

पूरे वर्ष हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले आदिवासी युवक-युवती इंतजार करते हैं इस उत्सव का जब वे झूमेंगे नाचेंगे गाएँगे, मौसम की मदमाती ताल पर बौरा जाएँगे। फिर उनके पास 'भगौरिया' भी तो है अपनी पसंद को निःसंकोच अपने प्रिय के समक्ष जाहिर कर सकने का पर्व। इस अवसर को उन्होंने मदमाते मौसम में ही मनाना तय किया जो अपने आपमें उत्सव की प्रासंगिकता को और भी बढ़ा देता है। होली के पूर्व हठवारे में झाबुआ में लगने वाले अंतिम हाटों को, जो रबी की फसल के तुरंत बाद लगते हैं और यहाँ के भील जिसमें सर्वाधिक क्रय-विक्रय करते हैं, उस हाट को भगोरिया हाट या फिर गलालिया हाट कहते हैं। इसमें युवक-युवतियाँ तथा बुजुर्ग अपने अपने गाँवों से चल पड़ते हैं वहाँ जहाँ यह प्रणय उत्सव मनाया जा रहा होता है यानि भगोरिया हाट में।

  भील युवा तरह-तरह की समस्याओं से घिरे रहने के बावजूद सदा खिले ही रहते हैं। यह अनूठा प्रेम है, जो इस समाज के लिए परमात्मा का वरदान है। भगोरिया शब्द की व्युत्पत्ति भगोर क्षेत्र से तथा उसके आसपास होने वाले होलिका दहन के पूर्व के अंतिम हाट से हुई है।      
यहाँ पर भंगार देव की पूजा-अर्चना के साथ शुरू होता है उत्सव। पूजा के बाद बुजुर्ग पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करते हैं तथा युवाओं की टोली अपने मनपसंद जीवनसाथी को तलाशती घूमती है। फिर होता है प्रेम के इजहार का सिलसिला। युवक मनपसंद युवती को गुलाल लगाता है यदि युवती उसे नहीं पोंछती तो इसका अर्थ होता है कि उसकी सहमति है। फिर दोनों जंगल में भाग जाते हैं, लौटकर गाँव आने पर उनका विवाह कर दिया जाता है।

भगोरिया के आदर्शों, गरिमाओं एवं भव्यता के आगे योरप व अमेरिका के प्रेम पर्वों की संस्कृतियाँ भी फीकी पड़ जाती हैं, क्योंकि भगोरिया अपनी पवित्रता, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर से ओत-प्रोत है। इसलिए यह सारे विश्व में अनूठा और पवित्र पर्व है।