विलक्षण व्यक्तित्व : गुरुदेव टैगोर

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गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर भारतीय साहित्य के उज्जवल नक्षत्र हैं। उनका शांत अप्रतिम व्यक्तित्व भारतवासियों के लिए सदैव ही सम्माननीय रहा है। अपनी सुयोग्य लेखन क्षमता से करोड़ों पाठकों के दिलों पर राज करने वाले गुरुदेव का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता में हुआ था। आठ वर्ष की नन्ही उम्र से उनकी लेखन यात्रा आरंभ हुई। मात्र 16 वर्ष की उम्र में उनकी पहली रचना प्रकाशित हुई।

वे न सिर्फ महानतम कवि थे बल्कि चित्रकार, दार्शनिक, संगीतकार एवं नाटककार के विलक्षण गुण भी उनमें मौजूद थे। उनकी रचनाओं से बंगाल संस्कृति पर विशेष प्रभाव पड़ा। उनकी प्रमुख रचनाएँ गीतांजलि, गोरा एवं घरे बाईरे है। उनकी काव्य रचनाओं में अनूठी ताल और लय ध्वनित होती है।

वर्ष 1877 में उनकी रचना 'भिखारिन' खासी चर्चित रही। उन्हें बंगाल का सांस्कृतिक उपदेशक भी कहा जाता है। उनके व्यक्तित्व की छाप बांग्ला लेखन पर ऐसी पड़ी कि तत्कालीन लेखन का स्वरूप ही बदल गया। 1883 में उनका विवाह मृणालिनी देवी के साथ हुआ।

सन 1901 में शांति निकेतन की स्‍थापना कर गुरु-शिष्य परंपरा को नया आयाम दिया। उन्हें साहित्य के नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था किंतु इससे पूर्व सन 1915 में अँग्रेज शासन ने उन्हें नाइटहुड की उपाधि से अलंकृत किया। रवींद्रनाथ उन दिनों जलियाँवाला बाग की दर्दनाक घटना से व्यथित थे। फलस्वरूप उपाधि उन्होंने लौटा दी।

बंगाल की आर्थिक दरिद्रता से दुखी होकर उन्होंने 100 पंक्तियों की कविता रच डाली। गुरुदेव ने 2,230 गाने लिखे थे। इनका संगीत संयोजन इतना अद्‍भुत है कि इन्हें रवींद्र संगीत के नाम से पहचाना जाता है। गुरुदेव का लिखा 'एकला चालो रे' गाना गाँधीजी के जीवन का आदर्श बन गया।

उनके लिखे 'जनगणमन' और 'आमार शोनार बांग्ला' जन-जन की धड़कन बन गए हैं। गुरुदेव का संदेश था‍ 'शिक्षा से ही देश स्वाधीन होगा संग्राम से नहीं'। कहना न होगा कि आज भी यह संदेश कितना प्रासंगिक है।

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