धर्म व ईश्वर के प्रति हो समर्पण

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जीवन में धर्म व ईश्वर के प्रति समर्पण भाव होना अति आवश्यक है। धर्म व ईश्वर से जुड़े रहकर ही मानव उन्नति की ओर अग्रसर हो सकता है। मानव जीवन में जो व्यक्ति धर्म व ईश्वर के प्रति समर्पण रखता है, उसका धर्म व ईश्वर भी ख्याल रखता है। - आचार्य शांतिसागर महाराज।

मुनिश्री ने कहा कि संतों की वाणी चोट करती है, लेकिन इससे जीवन की खोट निकाली जा सकती है। संत जो भी कहेगा, वह मानव कल्याण के लिए कहेगा। सत्संग कभी समाप्त नहीं होता है। संत धरती पर सबसे बड़ा शिल्पी है।

आचार्यश्री ने कहा कि तू और तुम शब्द में प्रेम है, वहीं आप शब्द में परायापन झलकता है। जितने लोग समंदर, नदी, तालाब में डूबकर नहीं मरे होंगे, उतने शराब में डूबकर मर गए। शराब जैसी बुराई से तौबा करिए। जीवन सुखमय बनेगा। जाम की बजाय जाजम पर बैठकर सत्संग करना ज्यादा हितकर होगा।

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प्यासा कुएँ के पास आ जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। सुदामा कृष्ण के पास, भक्त भगवान के पास आ जाए तो बड़ी बात नहीं, लेकिन यदि मानव की भक्ति भावना प्रबल हो तो कृष्ण स्वंय सुदामा के पास आ सकते है। मीरा की भक्ति ईश्वर के प्रति इतनी थी कि स्वयं कृष्ण को मीरा को दर्शन देने के लिए आना पड़ा।

मानव को चाहिए कि वह अपने जीवन में इतना समर्पण पैदा करे कि स्वयं भगवान को सुदामा की भांति तुम्हारे उद्घार के लिए आना पड़े। - प्रमुखसागरजी।

मुनिश्री ने कहा कि युवा पीढ़ी में प्रेम विवाह के किस्से आजकल आम हो चुके हैं। प्रेम विवाह की बढ़ती प्रवृत्ति का मुख्य कारण युवा पीढ़ी का अपने तन व मन पर नियंत्रण नहीं होना है। बेटियों को भगवान आदिनाथ की बेटियों से प्रेरणा लेना चाहिए, जिन्होंने पिता के सम्मान की खातिर दीक्षा ले ली लेकिन अपने पिता का सिर झुकने नहीं दिया।

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