घटते वनों में बढ़ते बाघ!

संदीपसिंह सिसोदिया

मंगलवार, 29 मार्च 2011 (17:35 IST)
PTI
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भारत में 2006 के बाद हुई बाघों की गणना में पहले के मुकाबले 12 प्रतिशत का इजाफा नि:संदेह एक अच्छी खबर है। पिछले चार साल में बाघों की संख्या 1411 से बढ़कर 1706 हो गई है। ताजा गणना के अनुसार, देश में अब 1571 से 1875 के बीच बाघ हैं। इसका औसत अनुमानित आंकड़ा 1706 लिया गया है।

इन आँकड़ो पर इतनी जल्दी खुश होने के बजाए इन पर थोड़ा और अध्ययन करने की जरूरत है। आँकड़ों को लेकर अब भी विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों में मतभेद है। बाघों की गणना पर बहुप्रतीक्षित आँकड़ों के बारे में भारतीय वन्यजीव संस्थान, पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश और बाघ विशेषज्ञों की अलग-अलग राय है। बाघ गणना- 2010 के आँकड़े जारी करते हुए इस बात पर जोर दिया गया कि पश्चिम बंगाल के सुंदरबन को पहली बार बाघ गणना में शामिल किया गया है। जहाँ 70 बाघों की मौजूदगी पाई गई है।

पर्यावरण मंत्री जयराम के मुताबिक वर्ष 2006 की गणना के मुताबिक बाघों की संख्या 1,411 थी। लिहाजा, अगर चार वर्ष पहले के आँकड़ों से तुलना करना है तो सुंदरबन के आँकड़ों को शामिल किए बिना होनी चाहिए। इस तरह बाघों की औसत अनुमानित संख्या 1,636 मानी जानी चाहिए। रमेश की इस बात पर कई बाघ विशेषज्ञों ने असहमति जताई और उन्होंने बाघों की गणना का औसत आंकड़ा 1,706 को ही मान लेने पर जोर दिया है।

भारतीय वन्यजीव संस्थान के वाई.वी. झाला के अनुसार नई गणना के मुताबिक बाघों की न्यूनतम संख्या 1,571 और अधिकतम संख्या 1,875 है। लिहाजा, निम्नतम और उच्चतम सीमा, दोनों पर विचार किया जाना चाहिए।

पर इस बहस में जिस बात पर सबसे ज्यादा चिंता की जानी चाहिए वह है देश में बाघ संरक्षित गलियारों व वन क्षेत्रों पर मंडराता गंभीर खतरा। बाघों की संख्या संरक्षित क्षेत्रों में कम तो हुई ही है। बाघों के पर्यावास वाले क्षेत्रफल में भी कमी देखी गई है। बाघों के आवासीय क्षेत्रों में पहले मौजूद 93600 किमी के मुकाबले अब 72800 किमी क्षेत्रफल ही बचा है जो बेहद चिंतनीय है।

इस गणना से इस तथ्य का भी पता चलता है कि कुल अनुमानित संख्या में से 30 प्रतिशत बाघ संरक्षित क्षेत्रों से बाहर रह रहे हैं। इससे साफ होता है कि बाघों की संख्या भले ही बढ़ रही हो पर उनके आवासीय क्षेत्र में आती कमी उन्हें नए आवास ढ़ूढँने पर मजबूर कर रही है। 39 संरक्षित क्षेत्र भी अब इन बढ़ते बाघों के लिए कम पड़ रहे हैं।

संरक्षित क्षेत्र से बाहर इन बाघों को लकड़ी तस्करों, शिकारियों, खनन माफिया और भू-माफिया से भारी खतरा है। कई राज्यों में चल रही कोयला खनन और सिंचाई परियोजनाएँ भी बाघों के संरक्षण के लिहाज से कतई अनूकुल नहीं हैं। यहाँ तक की केंद्रीय पर्यावरण और वनमंत्री जयराम रमेश ने भी इन समस्याओं पर गंभीर चिंता जताई है।

जहाँ भारत के तराई क्षेत्र और दक्षिण भारत में बाघों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है वहीं सबसे ज्यादा चिंता की बात है कि मध्य भारत और पूर्वोत्तर भारत के इलाकों में उपलब्ध क्षेत्र के मुकाबले वहाँ बाघों की संख्या काफी कम है।
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उत्तराखंड, महाराष्ट्र, असम, तमिलनाडु और कर्नाटक में बाघों की तादाद में इजाफा हुआ है। बिहार, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारख़ंड, राजस्थान, उडीसा, मिजोरम, उत्तर-पश्चिम बंगाल और केरल में संख्या जस की तस बनी रही पर मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में बाघों की संख्या में गिरावट दर्ज हुई है जिसका कारण शिकार और बाघ के नैसर्गिक क्षेत्र में आई कमी है। रणथंभौर, बाँधवगढ़, कॉर्बेट नेशनल पार्क, तेदोबा जैसे टाइगर रिजर्व के आस-पास बढ़ती मानव गतिविधियाँ के कारण इनसान और बाघों की मुठभेड़ के मामले भी बढ़े हैं।

मध्यप्रदेश में टाइगर स्टेट का दर्जा अब खतरे में आ गया है। पिछले सालों में म.प्र में 43 बाघों की मौत हो चुकी है। वैसे तो बाघों की तादाद घटी है पर इस बात के भी सबूत मिले है कि बाघों द्वारा नए प्राकृतिक क्षेत्रों जैसे पालपुर-कुनो और शिवपुरी में अपने आवास बनाए जा रहे हैं। यह बाघों के आवासीय क्षेत्रों में आती कमी की वजह से हुआ है। अकेले रहने के आदी बाघों को शिकार और प्रभुत्व स्थापित करने के लिए अपना क्षेत्र बनाना पड़ता है जोकि 50-100 वर्ग किमी तक हो सकता है। कम पड़ती जगह के कारण बाघों के आपसी टकराव का अंदेशा भी बराबर बना रहता है।

इस गणना में वन विभाग के अधिकारियों के अलावा दो एनजीओ सेंटर फॉर वॉइल्ड लाइफ स्टडीज और नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन भी शामिल थे। इसके लिए फील्ड सर्वे के अलावा कई आधुनिक तकनीकें जैसे बाघ संरक्षित क्षेत्रों में जलाशयों जैसे अहम स्थानों पर अत्याधुनिक कैमरे स्थापित किए गए। इसके द्वारा 38 प्रतिशत बाघों की 615 तस्वीरें ली गई। इसके अलावा पैरों के निशान, रेडियो कॉलर और उपग्रह मैपिंग प्रणाली का भी गणना में इस्तेमाल किया गया।

बाघों की बढ़ती संख्या जहाँ एक राहत की आस जगाती है वहीं इस बात का अहसास भी दिलाती है कि अब समय आ गया है कि हम इस अभियान के दूसरे चरण 'बाघों के आवास, जंगलों को बचाएँ' की शुरूआत करें। इस मुद्दे पर केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों को मिल-जुल कर कदम उठाना होगा। वोट बटोरने के लिए लोगों को पट्टे पर दिए जा रहे वन क्षेत्र जंगल का सर्वनाश ही करेंगे। जरूरत है प्राकृतिक संपदा को बचाने की, क्योंकि हमारा भविष्य इसी पर निर्भर है।

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