अधिकारों की अंधी दौड़-लिव इन रिलेशन

सुश्री शरद सिंह
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भारतीय संस्कृति में विवाह को एक संस्था एवं संस्कार का दर्जा दिया गया है। किसी भी संस्था अथवा संस्कार के अपने नियम-कायदे होते हैं। विवाह बंधन में बंधने वाले स्त्री-पुरुष से उन नियमों का निर्वाह करने की अपेक्षा रखी जाती है। अधिकांश स्त्रियाँ उन नियमों का अक्षरशः पालन भी करती हैं किंतु पुरुष उन नियमों को प्रायः अनदेखा करते चले जाते हैं। पुरुषों के विवाहेत्तर संबंधों को थोड़ी-सी हाय-तौबा के बाद भुला दिया जाता है। पत्नी से यही उम्मीद की जाती है कि वह अपने पति के विवाहेत्तर संबंध पर बवाल न मचाए और इसे पुरुषोचित अधिकार माने।

समाज यदि स्त्री से यही अपेक्षा रखना चाहता है तो फिर विवाह के दौरान वर से सात वचन रखाए ही क्यों जाते हैं? यह एक ऐसा प्रश्न है जो सदियों से स्त्रीजीवन के आकाश में कृष्णपक्ष की भांति अंधेरा बिखेरे हुए है। मेट्रो शहरों में स्त्री ने अपनी स्वतंत्रता के रास्ते ढूँढ़ने शुरू कर दिए हैं किंतु गाँव और कस्बों में अभी भी वही अंधेरा है।

पति के विवाहेत्तर संबंधों की ओर से आँख मूंद कर जीना स्त्री की विवशता है जबकि स्वयं स्त्री विवाहेत्तर संबंध नहीं बना सकती हैं यदि चोरी-छिपे बना भी लेती हैं तो वह भीतर ही भीतर अपराधबोध से घुटती रहती है। प्रेमी और पति के बीच पिसती हुई खुशी के दो पल के लिए मृगमारीचिका में भटकती रहती है।

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स्त्री के विवाहेत्तर संबंधों को आज भी समाज सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाता है। 'लिव इन रिलेशन' की धारणा भी भारतीय संस्कृति के मेल नहीं खाती है। वस्तुतः भारतीय समाज में संस्कारगत जो वातावरण है उसके कारण इन दोनों स्थितियों में घाटे में स्त्री ही रहती है। वह न खुल कर अपने विवाहेत्तर संबंधों को स्वीकार कर पाती है और न अपने वैवाहिक संबंध से मुक्त हो पाती है। दो पाटों के बीच पिसने जैसी स्थिति में यदि वह स्वयं को मुक्त अनुभव करती है तो इसे उसका भ्रम ही माना जा सकता है।

भारतीय स्त्री में, चाहे वह सुशिक्षित हो अथवा अनपढ़, अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता की बहुत कमी है। वह अपने पति से अपने पूरे अधिकार हासिल नहीं कर पाती है तो भला प्रेमी से कौन से अधिकार प्राप्त कर सकती है? प्रेमी से कभी भी छूट जाने का भय और पति के समक्ष विवाहेत्तर संबंध का कभी भी खुलासा हो जाने का डर उसे एक पल भी चैन से जीने नहीं देता है।

इसके बाद भी विवाहेत्तर संबंधों के प्रति उत्सुक होना स्त्री की वह नियति है जो उसने स्वयं अपने लिए तय की है। वह एक साथ जीवन के सारे सुख अपनी झोली में भर लेना चाहती है जो उसके लिए दुर्गम रास्ते पर चल कर हासिल करने जैसा है। यदि वह अपने वैवाहिक जीवन में अपने विवाहेत्तर संबंधों को सिर उठा कर स्वीकार करने का माद्दा नहीं रखती है तो क्या अच्छा नहीं होगा कि वह दो में से एक रास्ता चुने और उसी के प्रति प्रतिबद्ध रहे। इससे जीवन के कृष्णपक्ष का अंधेरा भयावह नहीं लगेगा।

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