कालजयी रचनाओं के रचनाकार हरिवंशराय बच्चन की रचनाओं में उनके व्यक्तित्व और जीवन-दर्शन की झलक तो मिलती ही है, साथ ही उनकी बेबाक आत्मकथा आज भी उनके चाहने वालों को दांतों तले उंगली दबाने के लिए विवश करती रहती है।
बच्चन ने अपनी लोकप्रिय रचना ‘मधुशाला’ में लिखा, ‘मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता, शत्रु मेरा बन गया है छल-रहित व्यवहार मेरा।’ बच्चन की काव्य रचनाओं के साथ-साथ उनकी आत्मकथा ने इस उक्ति को साकार किया है।
हिन्दी के शायद ही किसी रचनाकार की आत्मकथा में अभिव्यक्ति का ऐसा मुखर रूप दिखाई देता है। बच्चन की जयंती (26 नवंबर) बेशक चंद दिनों पहले ही गुजरी हो लेकिन उनके चाहने वालों के जेहन पर उनका व्यक्तित्व हमेशा अंकित रहता है। डॉ. धर्मवीर भारती ने उनकी आत्मकथा के बारे में लिखा था, ‘हिन्दी के इतिहास में यह पहली घटना है, जब किसी साहित्यकार ने अपने बारे में सबकुछ इतनी बेबाकी, साहस और सद्भावना के साथ लिखा हो।’
हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने बच्चन की आत्मकथा के बारे में कहा कि 'बच्चनजी की आत्मकथा में केवल व्यक्तित्व और परिवार ही नहीं, समूचा देशकाल और क्षेत्र भी गहरे रंगों में उतरा है।'
स्पष्टत: बच्चन की आत्मकथा अपने जीवन और युग के प्रति एक ईमानदार प्रयास है। उन्होंने अपनी आत्मकथा की भूमिका में लिखा कि 'अगर मुझे दुनिया से किसी पुरस्कार की चाह होती तो मैं अपने को अच्छे से सजाता-बजाता और अधिक ध्यान से रंग-चुनकर दुनिया के सामने पेश करता। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे मेरे सरल, स्वाभाविक और साधारण रूप में देख सकें। सहज और निष्प्रयास प्रस्तुति, क्योंकि मुझे अपना ही तो चित्रण करना है।'
उन्होंने लिखा कि 'जीवन की आपा-धापी के बीच युगीन परिस्थितियों का ताना-बाना उसी रूप में प्रकट करना ही किसी सच्चे रचनाकार का कर्म हो सकता है।' नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित 'हरिवंशराय बच्चन रचनावली' के संपादक एवं दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज के हिन्दी प्रोफेसर रहे अजित कुमार ने कहा, ‘बच्चनजी के साथ ‘साहित्यक त्रासदी’ हुई।
उनका लेखन न तो प्रगतिशीलों को पसंद आया और न प्रयोगवादियों कोल जबकि ‘मधुशाला’ इस शताब्दी की सबसे अधिक बिकने वाली काव्य-कृतियों में से एक है। अब तक ‘मधुशाला’ के 50 से अधिक संस्करण निकल चुके हैं और उसकी तरो-ताजगी आज भी उतनी ही है जितनी उस समय थी जबकि यह लिखी गई थी हालांकि उसे किसी भी पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया।'
उन्होंने बताया कि 20वीं सदी में ऐसी कोई कृति नहीं है, जिसके इतने संस्करण निकले हों। ‘मधुशाला’ की तुलना में प्रेमचंद की 'गोदान' के बहुत कम संस्करण छपे हैं, लेकिन वह पाठ्यक्रम में शामिल रही है। अजित कुमार ने बताया कि 'देवकीनंदन खत्री के तिलिस्मी उपन्यास ‘चन्द्रकांता संतति’ के अलावा केवल ‘मधुशाला’ की ऐसी रचना है, जिसने गैर हिन्दीभाषी लोगों के अंदर हिंदी सीखने, पढ़ने का आकर्षण पैदा किया।'
वर्ष 1949 से मृत्युपर्यन्त बच्चनजी के संपर्क में रहने वाले अजित कुमार ने बताया कि बच्चनजी हिन्दी के एकमात्र कवि हैं, जिन्होंने अपने काव्य-पाठ के जरिए हिन्दी साहित्य में स्थान बनाया। व्यक्तिवादी गीत, कविता और हालावाद के प्रमुख कवि बच्चन की ‘निशा-निमंत्रण’ भी काफी लोकप्रिय हुई।
बच्चनजी का जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद के करीब प्रतापगढ़ जिले के पट्टी में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। बचपन में इन्हें बच्चन कहकर पुकारा जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ बच्चा या संतान होता है। बाद में ये इसी नाम से मशहूर हो गए।
इन्होंने कायस्थ पाठशाला में उर्दू की शिक्षा ली, जो उस समय कानून की पढ़ाई का पहला कदम थी। इसके बाद उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध कवि डब्ल्यूबी यीट्स की कविताओं पर शोधकार्य कर पीएचडी हासिल की।
बच्चन का विवाह 1926 में श्यामा के साथ हुआ। तब वे 19 वर्ष के थे, जबकि श्यामा 14 साल की थीं। 1936 में टीबी के कारण श्यामा की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के 5 साल बाद बच्चन ने पंजाब की तेजी सूरी से विवाह किया। वे रंगमंच और गायन से जुड़ी थीं। तेजी बच्चन से दो पुत्र अमिताभ और अजिताभ पैदा हुए। अमिताभ बॉलीवुड सिनेमा के अभिनेता हैं, जिन्हें सदी के महानायक का दर्जा मिला है।
हरिवंशराय बच्चन ने प्रयाग विश्वविद्यालय के अलावा केंद्र सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ के रूप में कार्य किया। वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे।
बच्चन को उनकी कृति ‘दो चट्टानें’ के लिए वर्ष 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसी वर्ष उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो-एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउंडेशन ने उनकी आत्मकथा के लिए ‘सरस्वती सम्मान’ दिया था। केंद्र सरकार ने साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया था। (भाषा)