नई किताब 'चमन-दर-चमन'

अजीज अंसारी

शुक्रवार, 30 मई 2008 (15:24 IST)
इन्दौर से धार ज़्यादा दूर नहीं है। आबादी और रक़बे में इन्दौर से धार बहुत छोटा है, इन्दौर एक सिनअती शहर है तो धार के लोगों की रोटी-रोज़ी का अहम ज़रीआ ज़राअत और ज़राअत से जुड़े दीगर काम हैं। लेकिन अदबी सरगरमी का ज़िक्र जब भी होता है तो इन्दौर के साथ धार का नाम भी ज़रूर लिया जाता है।

Aziz AnsariWD
जनाब निसार अहमद साहब जो पेशे से वकील हैं, धार में अदबी सरगरमी के रूहेरवाँ हैं। आपकी कोशिशों से हर साल धार में एक शानदार उर्स होता है जिसमें हिन्दुस्तान का बड़े से बड़ा क़व्वाल शरीक होकर अपने फ़न का मुज़ाहिरा करने में अपनी शान समझता है। अच्छी और सूफ़ियाना क़व्वाली के शौक़ीन दूर दूर से यहाँ आकर रात-रात भर क़व्वाली से लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं और साल भर तक यहाँ होने वाली क़व्वाली का इंतज़ार करते हैं।

इसी तरह शेर-ओ-शायरी की नशिश्तें यहाँ होती रहती हैं और साल में एक-दो बडे मुशायरे भी मुनअक़िद हो जाते हैं। ये सिलसिला गुज़िश्ता कई दहाइयोँ से जारी है। जनाब निसार अहमद के दोस्तों का हल्क़ा बड़ा वसी है, अपने इन हमनवाओं की मदद से बड़े से बड़ा काम निसार साहब बड़ी खूबी से अंजाम दे लेते हैं। खुद भी एक पुराने और अच्छे कहानीकार हैं, इसलिए फ़नकारों के जज़बात और हालात से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं। जो भी फ़नकार धार आता वो खुश होकर यहाँ से जाता है। अपनी अदबी खिदमात का दायरा आजकल आपने और वसी कर दिया है।

ये खिदमत है फ़न-कारों के फ़न को किताबी शक्ल में अवाम के सामने लाना। दरगाह और उर्स से मुताल्लिक़ एक अच्छी किताब 'यादगार-ए-कमाल' आप शाए कर चुके हैं। हाल ही में आपने धार के ग़ज़लगो शायरों और कवियों के कलाम को बड़ी मेहनत से यकजा कर, चमन-दर-चमन के नाम से शाए किया है। धार में अपनी तरह की ये पहली कोशिश है। इस किताब में नए-पुराने कुल इकतालीस फ़नकार शामिल हैं। इन में पाँच खातून फ़नकारों के नाम भी नुमायाँ हैं।

बात खातून फ़नकारों की चली है तो मोहतरमा शांति सबा का ज़िक्र भी हो जाए। उन्हें गुज़रे ज़्यादा अरसा नहीं बीता है। बीस बाईस साल पहले इस नाम ने न सिर्फ़ मध्य प्रदेश के बल्कि पूरे मुल्क में मुनअक़िद होने वाले मुशायरों में धूम मचा दी थी। अपने साथियों और छोटे-बड़े शायरों का एहतेराम करने वाली इस खातून को खुदा ने पुरकशिश शख्सियत और बहतरीन सुरीली आवाज़ से नवाज़ा था।
  बीस बाईस साल पहले इस नाम ने न सिर्फ़ मध्य प्रदेश के बल्कि पूरे मुल्क में मुनअक़िद होने वाले मुशायरों में धूम मचा दी थी। अपने साथियों और छोटे-बड़े शायरों का एहतेराम करने वाली इस खातून को खुदा ने पुरकशिश शख्सियत और बहतरीन सुरीली आवाज़ से नवाज़ा था।      

शांति सबा (मरहूम)
* आपका ज़िक्र हो रहा है कहीं
वक़्त ठहरा हुआ सा लगता है

* बना लिए हैं ज़माने ने कितने अफ़साने
बस एक बार तेरी रेहगुज़र से गुज़रे हैं

* ये आरज़ू थी हमें ज़िन्दगी में प्यार मिले
क़दम क़दम पे हमें ग़म ही बार-बार मिले

* कर्बला की हमें तारीख बताती है यही
खुद ही मिट जाएगा इक रोज़ मिटाने वाला

मुमताज़ हुसैन मुमताज़ (मरहूम)
* आप आए तो हयात आई, क़ज़ा लौट गई
और क्या इस के सिवा आके मसीहा करते

* लब पर हयात बख्श तबस्सुम है आपके
आँखों में बिजलियाँ हैं क़ज़ा की छुपी हुई

हयात हाशमी (मरहूम)
*आबगीनों की तरह दिल हैं ग़रीबों के 'हयात'
टूट जाते हैं कभी तोड़ दिए जाते हैं ------------(ये ग़ज़ल न जान ए कैसे शमीम जयपुरी के नाम से मंसूब हो गई है।)

* दावत-ए-ग़म क़ुबूल की हमने
फिर भी एहसान-ए-दोस्ताँ ही रहा

नाज़ शादानी (मरहूम)
* नाज़ अफ़साना-ए-ग़म सुनाऊँ मैं क्या, मेरी हर सांस ग़म का इक अफ़साना है
हादिसों से मेरी ज़िन्दगी का कोई एक लम्हा भी खाली गुज़रता नहीं

* ये तो तुम्हारे हुस्न की सब हैं करिश्मा साज़ियाँ
अक्स भी तुम, वजूद तुम, शक्ल भी, आईना भी तुम

मंज़ूर सरदारपुरी (मरहूम)
* उन्हें मुँह फेर के जाते हुए मंज़ूर देखा है
फिर इसके बाद हमने सूरत-ए-आलम नहीं देखी

अज़हर उज्जैनी (मरहूम)
* काश मिल जाए मेले में 'अज़हर' कोई
भीड़ में फ़िक्र से आदमी ढूँढना

* नाम ज़िन्दा हैं उन्हीं लोगों के 'अज़हर' अब तक
मुस्कुराकर जो रहे, खौफ़-ओ-खतर से गुज़रे

निसार मोहम्मद
* है मौज साकित, खमोश दरिया, हवा में खुशबू बसी हुई है
ज़रा बताओ, ऎ नाखुदा जी, यहीं पे कश्ती डुबोओगे ना

* वफ़ा के पैकर, जफ़ा के ख़ूगर, हम आ गए हैं दरून-ए-मक़तल
बताओ साथी, बताओ रहबर, हमीं को सूली चढ़ाओगे ना

डॉ. अज़ीज़ इन्दौरी
* मैंने अपने लिए जो रक्खे थे
ले उड़ा अब्र सब मेरे आँसू

* मैं अपने ज़र्फ़ की तलवार तुझको देता हूँ
तू अपने जब्र-ए-मुसलसल की ढाल दे मुझको

इज़हार शादान
* जहाँ में कोई बड़ा काम मुझसे से लेना है
मैं जब भी डूबना चाहूँ तो वो बचा ले मुझे

* मेरे क़ातिल ने मेरे कत्ल के बाद
एसे देखा कि कुछ हुआ ही नहीं

इनके अलावा खलील नाज़ी धारवी (मरहूम), सलीम मंडलेश्वरी, मुस्तक़ीम बेशक धारवी, हातिम अली केसुरी तरन्नुम, मोईन जाफ़री, रशीद शेख, अकरम धारवी, असरारुल हक़ क़ादरी असरार, युसुफ़ नज़र, क़मर साक़ी, शब्बीर शादाब, अब्दुल रऊफ़ शेख, अमीनुद्दीन अमीन नाज़ी, अबदुस्सलाम साबरी शाहिद और रिज़वान क़ुरैशी का कलाम भी किताब में शामिल है। इस ताह इस किताब में माज़ी और हाल दोंनों ज़मानों के शोअरा शरीक किए गए हैं।
  ये तो हुआ तस्वीर का एक पहलू, दूसरे पहलू में हिन्दी के ऐसे कवियों को शरीक किया गया है जिन्हें हिन्दी के साथ उर्दू में भी दिलच्स्पी है। इनमें कुछ ग़ज़ल को समझ चुके हैं और कुछ समझने की कोशिश कर रहे हैं।      

ये तो हुआ तस्वीर का एक पहलू, दूसरे पहलू में हिन्दी के ऐसे कवियों को शरीक किया गया है जिन्हें हिन्दी के साथ उर्दू में भी दिलच्स्पी है। इनमें कुछ ग़ज़ल को समझ चुके हैं और कुछ समझने की कोशिश कर रहे हैं। इनकी ग़ज़लों से उर्दू वालों को भी इनकी सोच और फ़िक्र को समझने का मौक़ा मिलेगा। इन नामों में भी कुछ नाम बहुत मशहूर हैं। इनमें से चन्द मुनतख़िब फ़नकारों का कलाम हम यहाँ पेश कर रहे हैं।

स्व.महेश राज
* कई कारणों से मनन कर रहा हूँ
स्वयं आज अपना हनन कर रहा हूँ

* कफ़न ओढ़ कर ज़िन्दगी सो गई
क्या करें हम जो राजा बहारें भी हैं

बालकृष्ण शर्मा धार -------(किताब में शर्मा जी (कवि जी) की तस्वीर दी गई है, मगर उनका कलाम तलाश करने पर भी नहीं मिला।)

डॉ.राघवेन्द्र तिवारी
* इंसान ने भगवान को, मन्दिर को तराशा
क्यों ईंट पत्थरों के इर्द-गिर्द तमाशा

* कब से मेरी निगाह उन बिजलियों पे है
जिनकी निगाह मेरी हसीं बस्तियों पे है

गोविन्द सेन
* कहने को ही खास रहे
पशुओं की हम घास रहे

* फूलों का ही क़त्ल हुआ
शूल सदा बिन्दास रहे

* हम तो रहे अनाड़ी बाबा
बिन पहिये की गाड़ी बाबा

* अपना काम नहीं बन पाया
आगे रहे जुगाड़ी बाबा

श्रीमती अनिता मुकात
* बारिशें जब हुईं तन हुआ तरबतर
दिल तो जलता रहा था मगर रातभर

* जाने वालों की जब याद आई तो फिर
अपना दामन भी अश्कों से तर हो गया

इनके अलावा किताब में श्रीवल्लभ विजयवर्गीय, शरद जोशी 'सलभ', ईश्वर दुबे 'नकोई', सीमा मिश्र 'असीम', श्रीमती सरोज जोशी 'शमा', श्रीमती आभा हर्ष 'बेचैन', श्रवण कुमार 'ताज', अशोक तिवारी, प्रवीण शर्मा, दीपेन्द्र शर्मा और सुशील पारे की कविताएँ/गज़लें शामिल हैं।

इनमें कहीं-कहीं बहुत अच्छी बात बहुत अच्छे ढंग से कही गई है। उर्दू शायरों को इन्हें ज़रूर पढ़ना और समझना चाहिए। ज़्यादातर शायरों ने क़ाफ़िया बन्दी को ही शायरी समझ रखा है, शे'र में कही गई बात चाहे पचासों बार दोहराई जा चुकी हो। उनके उस्ताद भी सिर्फ़ रदीफ़-क़ाफ़ियों पर ही ध्यान देते हैं। नए अन्दाज़ और नए ख्याल पर मेहनत नहीं की जाती है।

चमन-दर-चमन एक कामयाब कोशिश है, इसकी सराहना की जाना चाहिए। हिन्दी-उर्दू को क़रीब भी लाती है और एक दूसरे की तहज़ीब को समझने का मौक़ा भी फ़राहम करती है। निसार साहब से उम्मीद की जा सकती है कि मुस्तक़्बिल क़रीब में वो कुछ धार ज़िले के मोतबर शायरों के कलाम को उनके अपने मजमूए की शक्ल में भी शाए फ़रमाएँगे।

किताब़ का नाम ---- 'चमन-दर-चमन'
मुदीर -----------निसार अहमद
नाशिर --------अदबी संगम धार
क़ीमत ------रु. 100/-सिर्फ़