जन्मपत्री दिखाकर ही धारण करें हीरा

- पंडित बृजेश कुमार राय
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सौन्दर्य प्रसाधन की दृष्टि से तराशे गए इन रत्नों की गुणवत्ता मूल रूप में प्रायः समाप्त हो जाती है और कभी-कभी ये विपरीत प्रभाव वाले भी हो जाते हैं। इन रत्नों से बहुत सी व्याधियों, बाधाओं तथा अनिष्टों को दूर किया जा सकता है। ध्यान रहे, ये समस्त रत्न पृथ्वी से मूल रूप में पाए जाने वाले ठोस रसायन हैं जिनमें बहुत से अशुद्ध भी होते हैं और ये लाभ के बदले हानि पहुँचा देते हैं।

उदाहरण स्वरूप हीरा एक बहुत ही उग्र, विषैला, ठोस रसायन है जो उग्र रेडियोधर्मी कज्जल होता है। इसकी बेधक रश्मि रक्त के कणों को तोड़ देती है और कालान्तर में व्यक्ति श्वेत कुष्ठ तथा मस्तिष्क शून्यता का शिकार हो जाता है। रेडियो एक्टिव एलीमेन्ट होने के कारण इसमें से बहुत ही तीव्र क्षमता वाली अल्फा, बीटा तथा गामा, तीन किरणें प्रस्फुटित होती हैं। यह तभी संभव होता है जब रक्त कोशिका में रिक्तिकाओं की संख्या अनुपात से ज्यादा हो अन्यथा यह हानि नहीं पहुँचाता है।

राजवल्लभ अशुभ हीरे के धारण की भयंकरता को यूँ बताते हैं- 'धारणात्‌ तच्च पापा लक्ष्मी विनाशनम्‌।' अर्थात्‌ अशुभ हीरा के धारण से लक्ष्मी का विनाश होता है। आचार्य वराह कहते हैं- 'स्वजनविभवजीवितक्षयं जनयति वज्रमनिष्टलक्षणम्‌। अशनिविशभयारिनाशनं शुभमुपभोगकरं च भूभृताम्‌।' अर्थात्‌ अशुभ लक्षणों वाला हीरा पहनने से बान्धवों की हानि, वैभव का नाश, जीवन हानि, प्राण नाश आदि भयंकर परिणाम होते हैं। उत्तम लक्षण वाला हीरा वज्रपात, विषभय, शत्रुभय को नष्ट करके मनुष्य को मृत्यु भय से बचाता है तथा उत्तम उपभोग देता है। तात्पर्य यह कि रत्न पहनने से पाप शान्त होकर भाग्योदय होता है तथा लक्ष्मी बढ़ती है।

अतः उत्तम विचारशील दैवज्ञ से अपने जन्मपत्री की परीक्षा करवाकर अनुकूल ग्रहों का रत्न धारण करना चाहिए। अपनी मर्जी से रत्न पहन लेना स्वयं चिकित्सा करने के समान भयंकर होता है। सुश्रुत, जो प्रसिद्ध प्राचीन चिकित्सक रहे हैं, इसके रासायनिक महत्व को ध्यान में रखते हुए कहते हैं 'पवित्रा धारणायाश्च पापालक्ष्मीमलापहाः'

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इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकृति ने यदि विकार उत्पन्न किया है तो उसके निवारणार्थ अमोघ रत्नों को भी हमें वरदान स्वरूप प्रदान किया है। पहले संक्षेप में हम देखेंगे कि यह भौतिक विकार कैसे दूर करते हैं। सर्वप्रथम हम हीरा को ही लेते हैं। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है हीरा एक उच्च रेडियोधर्मी कज्जल है। इसका गुरुत्व 3.5 तथा काठिन्य 10 होता है।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है, प्लेटलेट्स या दूसरे शब्दों में रक्तरंजक कण, जो रक्त कणिकाओं को अभिरंजित कर उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं, अपनी रंगने की क्षमता कार्बन से ही प्राप्त करते हैं तथा हाइड्रोजन आक्साइड से अपेक्षित आनुपातिक संयोग करके रीबोफलेविन (हीमोग्लोबिन) का निर्माण करते हैं। यह बात सर्वविदित है कि रंग-रोगन आदि कार्बन से ही बनते हैं। ये प्लेटलेट्स कार्बन के द्वारा रीबोफलेविन का निर्माण करके एक आवश्यक मात्रा अन्य रक्त कणिकाओं को देने के बाद शेष बचे कार्बन से इलियोटायसिन फास्फाइड का निर्माण करते हैं।

आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक नपुंसकता को दूर करने के लिए इसी इलियोटायसिन का प्रयोग करते हैं। प्राचीन चिकित्सा शास्त्री इसका प्रयोग बहुत पहले से करते चले आ रहे हैं। 'रस तरंगिणी' में बताया गया है कि हीरा को 100 बार पारद (मर्करी) में बुझाकर शुद्ध किया जाए तथा इसका संयोग रस सिन्दूर से कराकर सतत्‌ नपुंसक रोगी को दिया जाए तो वह आश्चर्यजनक लाभ प्राप्त कर सकता है। यही बात 'रस रत्न समुच्चय' में भी बताई गई है।

'भाव प्रकाश' में बताया गया है कि हीरा भस्म, रस सिन्दूर, मकरध्वज तथा छोटी इलायची को कूट-पीसकर भस्म बनाकर यदि किसी भी नपुंसक रोगी को प्रयोग कराया जाए तो उसकी नपुंसकता दूर हो सकती है। यह तो रहा हीरा का भौतिक प्रभाव अब हम इसके दैविक प्रभाव पर प्रकाश डालेंगे। (क्रमश:)

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