राम मंदिर आंदोलन का गोरखपुर से है गहरा रिश्ता

सर्वविदित है कि राम मंदिर आंदोलन में गोरखपुर स्थित गोरक्षपीठ करीब 100 साल से केंद्रीय भूमिका में रही। गोरखपुर और अयोध्या स्थित राम मंदिर के बीच इत्तफाकन कुछ और भी अजीब रिश्ता है। उल्लेखनीय है कि एक फरवरी 1986 को वर्षों से बंद राममंदिर का ताला खोलने का आदेश देने वाले फैजाबाद के जनपद न्यायाधीश कृष्ण मोहन पांडेय गोरखपुर के ही थे।
 
उनकी अदालत ने दो दिन की सुनवाई के दौरान ही यह फैसला दे दिया था। इसके पहले 28 जनवरी को वहां के मुंसफ मजिस्ट्रेट हरिशंकर दूबे के कोर्ट में ताला खुलने की यह अपील खारिज हो चुकी थी। केएम पांडेय के फैसले पर महज 40 मिनट के भीतर ही अमल भी हो गया।  संयोग से उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय बीर बहादुर सिंह भी गोरखपुर के ही थे।
 
हनुमान प्रसाद पोद्दार की भी अहम भूमिका : धार्मिक और सद्साहित्य के जरिए न्यूनतम दाम पर घर जरूरत के अनुसार अलग अलग साइज में रामायण की प्रतियां सुलभ करने वाले गोरखपुर स्थित गीता प्रेस के हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी) की पर्दे के पीछे से अहम भूमिका थी। 23 और 24 दिसंबर 1949 को जब वहां रामलला का प्रकटीकरण हुआ तो बाकी इंतजाम उनका ही था। वह हनुमान जी के परमभक्त थे।
 
एक ही शहर का होने के नाते उनके तबके गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत दिग्विजय ने से बहुत अच्छे संबंध थे। वह हिंदू महासभा में भी सक्रिय थे। उस समय कल्याण पत्रिका का अयोध्या और राम पर केंद्रित रामांक निकालकर उन्होंने इस आंदोलन को गति दी। उल्लेखनीय है कि प्राण प्रतिष्ठा के दिन के लिए भी गीता प्रेस कुछ खास अतिथियों के लिए रामांक का संशोधित संस्करण निकाल रहा है।
 
रही गोरखपुर स्थित गोरक्ष पीठ की बात तो उसका तो अयोध्या और रामंदिर से रिश्ता तीन पीढ़ियों (करीब 100 साल) पुराना है।  वह भी मंदिर आंदोलन की केंद्रीय भूमिका का रूप में। 
 
गोरक्षपीठ की केंद्रीय भूमिका : अयोध्या और राममंदिर से रहा है गोरक्षपीठ के तीन पीढ़ियों का नाता। यह नाता करीब 100 साल पुराना है। इस दौरान राममंदिर को लेकर होने वाले हर आंदोलन में तबके पीठाधीश्वरों की केंद्रीय भूमिका रही है। गोरखपुर स्थित इस पीठ के मौजूदा पीठाधीश्वर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं। उनके दादा गुरु ब्रह्मलीन महंत दिग्विजय नाथ और पूज्य गुरुदेव ब्रह्मलीन महंत अवैद्यनाथ ने जिस अयोध्या और वहां जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर का सपना देखा था। जिस सपने के लिए संघर्ष किया था वह 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के साथ साकार होने को है।
 
महंत दिग्विजयनाथ ने दिया मंदिर आंदोलन को संगठित रूप : यूं तो श्रीराम जन्मभूमि स्थित मंदिर पर फिर से रामलला आंदोलन विराजमान हों इस बाबत छिटपुट संघर्ष की शुरुआत इसको गिराए जाने के बाद से ही शुरू हो गया था। मुगल काल से लेकर ब्रिटिश काल के गुलामी के दौर और आजाद भारत का करीब 500 साल का कालखंड इसका प्रमाण है। इन सारे संघर्षों और इसके लिए खुद को बलिदान देने वालों के दस्तावेजी सबूत भी हैं। लेकिन आजादी के बाद इसे पहली बार रणनीति रूप से संगठित स्वरूप और एक व्यापक आधार देने का श्रेय गोरखपुर स्थित गोरक्षपीठ के वर्तमान पीठाधीश्वर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दादा गुरु ब्रह्मलीन गोरक्ष। पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ को जाता है। 
 
1935 में गोरक्ष पीठाधीश्वर बनने के बाद से ही उन्होंने इस बाबत प्रयास शुरू कर दिया था। इस क्रम में उन्होंने अयोध्या के अलग अलग मठों के साधु संतों को एकजुट करने के साथ ही जातीय विभेद से परे हिंदुओ को समान भाव व सम्मान के साथ जोड़ा। 22/23 दिसंबर 1949 को प्रभु श्रीरामलला के विग्रह के प्रकटीकरण के नौ दिन पूर्व ही महंत दिग्विजयनाथ के नेतृत्व में अखंड रामायण के पाठ का आयोजन शुरू हो चुका था। श्रीरामलला के प्राकट्य पर महंत जी खुद वहां मौजूद थे। प्रभु श्रीराम के विग्रह के प्रकटीकरण के बाद मामला अदालत पहुंचा। इसके चलते विवादित स्थल पर ताला भले जड़ दिया गया पर पहली बार वहां पुजारियों को दैनिक पूजा की अनुमति भी मिल गई।
 
श्रीरामलला के प्रकटीकरण के बाद मंदिर आंदोलन को एक नई दिशा देने वाले महंत दिग्विजयनाथ 1969 में महासमाधि लेने तक श्रीराम जन्मभूमि के उद्धार के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। 
 
ये आजादी के बाद के दिन थे। कांग्रेस की आंधी चल रही थी। खुद को धर्म निरपेक्ष घोषित करने की होड़ मची थी। तब हिंदू और हिंदुत्व की बात करने का मतलब अराराष्ट्रीय होना था।इस होड़ में कई लोग तो करोड़ों के आराध्य प्रभु श्रीराम के वजूद को ही नकार रहे थे। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी पूरी निर्भीकता से दिग्विजय नाथ सदन से लेकर संसद और सड़क तक हिंदू, हिंदुत्व और राम मंदिर की मुखर आवाज बन गए।
 
राममंदिर आंदोलन के सर्व स्वीकार्य अगुआ : जिस मंदिर आंदोलन को महंत दिग्विजयनाथ ने एक ठोस बुनियाद और व्यापक आधार दिया उसे उनके ब्रह्मलीन होने के बाद उनके शिष्य एवं उत्तराधिकारी महंत अवैद्यनाथ की अगुआई में नई ऊंचाई मिली। अस्सी के दशक के शुरुआत के साथ श्रीराम जन्मभूमि को लेकर ब्रह्मलीन महंत दिग्विजय नाथ ने जो बीज बोया था वह अंकुरित हो चुका था। इसे बढ़ाने में सबसे बड़ी बाधा अलग अलग पंथ और संप्रदाय के संत समाज की मत भिन्नता थी।
 
इन सबको संत समाज का वही एक कर सकता था जो सबको स्वीकार्य हो। यह सर्व स्वीकार्यता बनी तबके गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ के पक्ष में। इसी सर्वसम्मति का परिणाम था कि 21 जुलाई 1984 को अयोध्या के वाल्मीकि भवन में जब श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ तो महंत अवैद्यनाथ समवेत स्वर से इसके अध्यक्ष चुने गए और उनके नेतृत्व में देश में ऐसे जनांदोलन का उदय हुआ, जिसने देश का सामाजिक-राजनीतिक समीकरण बदल दिया। उनकी अगुआई में शुरू श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन आजादी के बाद का सबसे बड़ा और प्रभावी आंदोलन था। 
 
शांतिपूर्ण समाधान के लिए हर सरकार को दिया मौका : 1984 में श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के गठन के बाद से आंदोलन के निर्णायक होने तक महंत अवैद्यनाथ ने हर सरकार को शांतिपूर्ण समाधान का मौका दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्रियों राजीव गांधी, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिम्हा राव से समय-समय पर उनकी वार्ता भी हुई। सरकारें कोरे आश्वासन से आगे नहीं बढ़ती थीं और महंतजी जन्मभूमि को मुक्त कराने के संकल्प पर अडिग रहे। 
 
राजनीति में दोबारा प्रवेश : तत्कालीन मानीराम विधानसभा क्षेत्र से लगातार 5 बार, 1962 से लेकर 1977 तक के चुनाव में विधायक चुने गए महंत अवैद्यनाथ 1969 में अपने गुरु महंत दिग्विजयनाथ के ब्रह्मलीन होने के बाद रिक्त हुए गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव में सांसद चुने गए। 1980 में मीनाक्षीपुरम में धर्मांतरण की घटना के बाद उन्होंने राजनीति की बजाय खुद को सामाजिक समरसता के अभियान में समर्पित कर दिया।
 
सितंबर 1989 में महंत अवैद्यनाथ के नेतृत्व में दिल्ली में हुए विराट हिंदू सम्मेलन के दौरान जब मंदिर शिलान्यास की तारीख घोषित कर दी गई तो तत्कालीन गृहमंत्री बूटा सिंह ने उन्हें यह कहकर चुनौती दे दी कि अपनी बात रखनी है तो संसद में आइए। इस चुनौती को को स्वीकार कर महंत अवेद्यनाथ ने दोबारा राजनीति में प्रवेश करने का निर्णय लिया। फिर तो वह ताउम्र सड़क से लेकर संसद तक अयोध्या में दिव्य और भव्य मंदिर की आवाज बने रहे। उनका एकमात्र सपना भी यही था, उनके जीते जी ऐसा हो। आज वह भले ब्रह्मलीन हो चुके हैं, पर अपने सुयोग्य शिष्य की देख रेख में 22 जनवरी को होने वाले प्राण प्रतिष्ठा समारोह को देख उनकी आत्मा जरूर खुश हो रही होगी।
 
सपनों मूर्त कर रहे योगी आदित्यनाथ : बतौर उत्तराधिकारी महंत अवैद्यनाथ के साथ दो दशक से लंबा समय गुजारने वाले उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भी इस पूरे परिवेश की छाप पड़ी। बतौर सांसद उन्होंने अपने गुरु के सपने को स्वर्णिम आभा दी। मुख्यमंत्री होने के बावजूद अपनी पद की गरिमा का पूरा खयाल रखते हुए कभी राम और रामनगरी से दूरी नहीं बनाई।
मुख्‍यमंत्री के रूप में 63 बार अयोध्या दौरा : बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ 2017 के बाद से 63 बार से अधिक अयोध्या गए। गोरक्षपीठ के उत्तराधिकारी और पीठ के पीठाधीश्वर रहने के दौरान की उनकी अयोध्या की यात्रा को जोड़ दें तो यह संख्या 100 या उससे अधिक ही होगी। अयोध्या से पीठ का यह रिश्ता दो तरफा है। राम मंदिर आंदोलन जब चरम पर था, तो अयोध्या के बाद गोरखपुर की गोरक्षपीठ इसके दूसरे केंद्र जैसा था। मंदिर आंदोलन से जुड़े हर अहम किरदार का यहां आना जाना था। अमूमन रात्रि विश्राम करते थे। और योगी जी के गुरु ब्रह्मलीन महंत अवैद्यनाथ से आंदोलन की रणनीति पर चर्चा भी।
 
उनके ब्रह्मलीन होने के बाद योगी ने गुरु के सपनों को अपना बना लिया। नतीजा सबके सामने है। उनके मुख्यमंत्री रहते हुए ही राम मंदिर के पक्ष में देश की शीर्ष अदालत का फैसला आया। देश और दुनिया के करोड़ों रामभक्तों, संतों, धर्माचार्यों की मंशा के अनुसार योगी की मौजूदगी में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जन्मभूमि पर भव्य एवं दिव्य राम मंदिर की नींव रखी। युद्ध स्तर इसका जारी निर्माण अब पूर्णता की ओर है। 
 
त्रेतायुगीन वैभव से सराबोर की जा रही अयोध्या : बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जितनी बार गए, अयोध्या को कुछ न कुछ सौगात देकर आए। उनकी मंशा अयोध्या को दुनिया का सबसे खूबसूरत पर्यटन स्थल बनाने की है। इसके अनुरूप ही अयोध्या के कायाकल्प का काम जारी है। योगी सरकार की मंशा है कि अयोध्या उतनी ही भव्य दिखे जितनी त्रेता युग में थी। 
Edited by: Vrijendra Singh Jhala
 
 

वेबदुनिया पर पढ़ें

सम्बंधित जानकारी