क्या अमेरिका धोखे में जी रहा है?

मंगलवार, 28 जून 2011 (15:24 IST)
BBC
ये कहानी है कर्ज, भ्रांति और एक संभावित विनाश की। अमेरिका 14 खरब डॉलर के ऋण में डूबा हुआ है, लेकिन उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता उसे नज़र नहीं आ रहा है। ये आंकड़ा मेरी समझ से परे है और अविश्वसनीय भी, क्योंकि अमेरिका पर कर्ज 40,000 डॉलर प्रति सेकेंड की औसत से बढ़ रहा है।

अफगानिस्तान से अपनी सेना को बाहर निकालने से थोड़ी मदद तो मिलेगी, लेकिन कुछ खास नहीं। अमेरिका के लिए ऋण की ये समस्या सिर्फ खर्च से ही संबंधित नहीं है, बल्कि इसके कई पहलू हैं।

अर्थशास्त्री और कोलंबिया यूनिवर्सिटी अर्थ इंस्टिट्यूट के निदेशक जैफरी सैश ऋण के मुद्दे पर कड़ा रुख अपनाते हुए कहते हैं, 'इस आंकड़े को देख कर मैं काफी चिंतित हूं। इसे नियंत्रण में लाना बेहद जरूरी है। हम जितना इंतजार करेंगे, उतना ही हम कमजोर होते चले जाएंगें।'

काउंसिल ऑफ फॉरेन रिलेशन के रिचर्ड हास भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं और कहते हैं कि सभी विकसित लोकतांत्रिक देशों में ये समस्या आम हो गई है, लेकिन अमेरिका के मामले में स्थिति को बेहद चिंताजनक कहा जा सकता है।

भविष्य में अगर चीन अपने पंख फड़फड़ाता है तो चीनी सेना नहीं, बल्कि चीनी बैंक ही अमेरिका के लिए खतरा पैदा करने में खासे सक्षम रहेंगे।

अगर चीन के बैंकरों ने अमेरिका को वित्तीय मदद देने से इनकार कर दिया तो अमेरिकी लोगों की जिंदगी रातों-रात बदल सकती है और विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का बंटा धार हो सकता है।

लेकिन इस दृष्टिकोण से हर कोई सहमत नहीं है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के भाषण लेखक रह चुके डेविड फ्रम का कहना है कि असल में इस समस्या से निपटने का एक आसान रास्ता है।

उनका कहना है, 'अमेरिका को अपना वित्तीय भार संभालने के लिए जो कुछ करना है वो उतना मुश्किल नहीं है जितना कि यूरोप के लिए वो मुश्किल होगा। असल में ये एक वित्तीय समस्या न हो कर एक राजनीतिक समस्या है।'

डेविड फ्रम का मानना है कि भविष्य में खर्च कम करने से और टैक्स इकट्ठा करने से इस समस्या से निपटा जा सकता है। उनका कहना है कि अमेरिका अपनी जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थय क्षेत्र पर खर्च करता है, जिसे कम किया जा सकता है।

समस्या की जड़ : मैं निसंदेह रूप से ये तो नहीं कह सकता कि अमेरिका के ऋण समस्या से न जूझ पाने के पीछे क्या कारण है। ये कहा जा सकता है कि ये समस्या पूर्ण रूप से आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक है। सांस्कृतिक रूप से भी अमेरिकी लोगों में मुश्किल फैसले लेने की क्षमता नहीं है।

अमेरिका में एक बीबीसी संवादादाता होने के नाते मैंने देखा है कि अमेरिका में बाहरी मीडिया की कवरेज काफी नकारात्मक है। अमेरिका बेहद सक्षम और सफल देश है, लेकिन ये भी सच है कि कुछ मामलों में बेहद निहत्था है।

टी पार्टी मूवमेंट सरकारी खर्च में कटौती की बात करती है, लेकिन उसे लागू करने की जब बात आती है, तो अमेरिकियों को लगता है कि कटौती का असर उन पर नहीं होना चाहिए।

सब चाहते हैं कि सरकारी खर्च कम हो, लेकिन साथ ही कोई भी ये नहीं कहता कि टैक्स बढ़ाया जाए। जैफरी सैश कहते हैं कि इसके पीछे भी एक वजह है। अमेरिका की दो मुख्य राजनीतिक पार्टियां चुनाव के समय बहुत सा पैसा इकट्ठा करती है और ऐसा करने के लिए वे अमीर लोगों को बड़ी कंपनियों को खुश रखने की कोशिश करते हैं।

यही कारण है कि वो टैक्स के मुद्दे को छूना भी नहीं चाहते। सच कहूं तो मैं इस लेख का कोई निष्कर्ष नहीं जुटा पा रहा है। मुझे यकीन नहीं होता कि जो देश ऐतिहासिक तौर पर इतना शातिर रहा हो, वो विनाश के आगे इतनी आसानी से घुटने टेक रहा है।

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