जल, जंगल और जमीन का कवि

गुरुवार, 4 अगस्त 2011 (14:44 IST)
BBC
लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल
दांडू जाए तो कहां जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में

ये पंक्तियां आदिवासी कवि अनुज लुगुन की कविता 'अघोषित उलगुलान' से हैं। उलगुलान यानी आंदोलन। आदिवासी अंचल में उलगुलान को बिरसा मुंडा से जोड़कर देखा जाता है और अनुज ने इसी शब्द को लेकर एक पूरा ताना बाना बुना है आदिवासियों की समस्याओं का।

दांडू एक प्रतीक है जिसके जरिए जल जंगल और जमीन खोते आदिवासियों की व्यथा सामने आई है। अनुज को इसी कविता के लिए युवा कवियों को दिया जाने वाला प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल सम्मान दिया गया है।

अनुज कहते हैं, ‘विकास के नाम पर जिस तरह के विस्थापन की बात आ रही है। जल जंगल जमीन टूट रहे हैं। नई समस्याएं आ रही हैं। सब कुछ नष्ट हो रहा है। हम जीवन की तलाश में दूसरी ओर जा रहे हैं जहां अस्मित नहीं हैं।’

आदिवासी द्वंद्व : अनुज कहते हैं कि उन्होंने बस कोशिश की है कि बाज़ार और पूंजीपतियों के शोषण से जूझते लोगों की बात रखने की। वो कहते हैं कि आदिवासी द्वंद्व से गुजर रहा है कि वो जल जंगल जमीन के बगैर विकास का रास्ता ले या फिर कोई और रास्ता चुने।

अनुज बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से ‘मंदारी आदिवासी गीतों में आदिम आकांक्षाएं और जीवन राग’ विषय पर शोध कर रहे हैं और चाहते हैं कि आगे भी आदिवासियों की समस्याओं के लिए काम कर सकें।

अनुज की कविता एकलव्य से संवाद भी एक अलग कहानी कहती है जो बात करती है एक अलग तौर-तरीके की, एक वैकल्पिक जीवन की जो कहीं बेहतर है। यह पूछे जाने पर कि क्या सिर्फ आदिवासी ही आदिवासी की व्यथा बेहतर कह सकता है तो वो इसका सटीक उत्तर देते हैं।

वो कहते हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं कि जिसने भोगा है वो ही जानता है, लेकिन ऐसा नहीं है कि आदिवासियों के लिए गैर आदिवासियों ने आवाज नहीं उठाई है। महाश्वेता देवी, ब्रह्मदेव शर्मा जैसे नाम भी हैं। जिसमें मानवता होगी। जो इन समस्याओं को समझेगा वो हमारी बात कर सकता है। हां ये जरूर है कि चूंकि हम भोगते हैं तो हमारी अनुभूति उनसे अलग है।’

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