बिहार के प्रमुख राजनीतिक दल आरजेडी ने राज्य की औरंगाबाद लोकसभा सीट से चुनाव जीत चुके अभय कुशवाहा को पार्टी के संसदीय दल का नेता बनाया है।
हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में बिहार में कुशवाहा उम्मीदवारों को टिकट देने के अलावा अलग-अलग राजनीतिक दलों में कुशवाहा नेताओं को मिली जगह इस समुदाय के सियासी महत्व को बताती है।
बिहार में पिछले साल जारी की गई जातीय जनगणना के मुताबिक़, राज्य में कुशवाहा आबादी चार फ़ीसदी के क़रीब है। बिहार में ओबीसी समुदाय में यादव के बाद कोइरी (कुशवाहा) आबादी सबसे ज़्यादा हैं। राज्य के सभी प्रमुख सियासी दल कुशवाहा वोटरों को लुभाने की कोशिश में दिखते हैं।
लालू ने बेटी को क्यों नहीं बनाया संसदीय दल का नेता
यह फ़ैसला इसलिए भी हैरान करने वाला है क्योंकि लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती भी पाटलिपुत्र सीट से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुँची हैं।
दो बार चुनाव हारने के बाद मीसा भारती ने इस बार के लोकसभा चुनावों में बीजेपी उम्मीदवार और पूर्व केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव को पाटलिपुत्र सीट से हराया।
चुनावी समीकरणों के लिहाज से भी बात करें तो राज्य में यादव आबादी क़रीब 14 फ़ीसदी है। ऐसे में अभय कुशवाहा को संसदीय दल का नेता बनाने के पीछे लालू प्रसाद यादव का क्या मक़सद हो सकता है?
वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, “बिहार में कुशवाहा वोटरों की आबादी ओबीसी वर्ग में यादवों के बाद सबसे ज़्यादा है और वो किसी दल के प्रति समर्पित नहीं हैं। इसलिए हर पार्टी कुशवाहा वोटरों को रिझाने की कोशिश में लगी हुई है।”
नचिकेता नारायण के मुताबिक़- लोगों का यही मानना है कि आरजेडी में सर्वोच्च ताक़त लालू परिवार के पास ही होती है, ऐसे में मीसा भारती संसदीय दल की नेता रहें या न रहें, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है।
कुशवाहा नेताओं को महत्व
बिहार में कुशवाहा नेताओं को राज्य के हर प्रमुख राजनीतिक दल में ख़ास महत्व दिया गया है। राज्य के कुशवाहा नेता उपेंद्र कुशवाहा को एनडीए ने राज्यसभा उम्मीदवार बनाने का फ़ैसला किया है। बीजेपी विवेक ठाकुर की जगह उन्हें राज्यसभा भेजने की तैयारी कर रही है।
विवेक ठाकुर लोकसभा चुनावों में जीत हासिल कर चुके हैं, इससे उनकी राज्यसभा सीट खाली हो गई है।
राष्ट्रीय लोक मोर्चा के नेता उपेंद्र कुशवाहा इस बार के लोकसभा चुनाव में काराकाट सीट से चुनाव हार गए थे। उनकी हार में बीजेपी के बाग़ी नेता पवन सिंह की बड़ी भूमिका रही।
पवन सिंह भोजपुरी कलाकार हैं और काराकाट से निर्दलीय चुनाव लड़कर दूसरे नंबर पर रहे थे। इस सीट पर सीपीआई(एमएल) के राजा राम सिंह ने जीत हासिल की थी।
वहीं ख़बरों के मुताबिक़ जेडीयू ने कुशवाहा समुदाय से आने वाले भगवान सिंह कुशवाहा को बिहार विधान परिषद का उम्मीदवार बनाया है।
इससे पहले बिहार में एनडीए और इंडिया गठबंधन ने मिलाकर 16 यादवों और 11 कोइरी को टिकट दिया है जबकि दोनों समुदायों की आबादी में बड़ा अंतर है। राज्य में कुशवाहा समुदाय को मिले सियासी महत्व की कहानी यहीं समाप्त नहीं होती है।
बिहार में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चोधरी भी कुशवाहा समाज से ही ताल्लुक रखते हैं। वो राज्य में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार में उप-मुख्यमंत्री भी हैं। जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा भी इसी समाज से आते हैं।
कुशवाहा वोटर और बिहार का चुनावी गणित
बिहार में कुशवाहा समुदाय को मिल रहे ख़ास महत्व को राज्य में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से भी जोड़कर देखा जाता है।
माना जाता है कि बिहार में एनडीए और इंडिया दोनों ही गठबंधनों के बीच अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में बहुत ही क़रीबी मुक़ाबला हो सकता है।
राज्य में साल 2020 के विधानसभा चुनावों में भी काफ़ी कड़ा मुक़ाबला हुआ था और उसमें आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी।
नचिकेता नारायण के मुताबिक़, “चुनावों में वोटों का एक छोटा अंतर भी जीत और हार का फ़ैसला कर सकता है, इसलिए हर पार्टी कुशवाहा वोटरों को अपनी तरफ खींचने में लगी है। इसका एक और कारण यह भी है कि बाक़ी समुदाय के वोटर किसी न किसी पार्टी को लेकर समर्पित हैं।”
नचिकेता नारायण मानते हैं कि बीजेपी को लगता है कि भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ उनके अपने वोटर हैं, इसलिए लोकसभा चुनावों में भी इस वर्ग को बीजेपी ने बहुत महत्व नहीं दिया। जबकि जेडीयू कुर्मी वोटरों को अपना मानती है और आरजेडी यादव वोटरों को अपना मानती है।
इस मामले में बिहार में मुसलमानों की राजनीतिक दशा पर नज़र डालें तो माना जाता है कि वो इंडिया गठबंधन के वोटर हैं। इसके बाद भी बिहार की 40 लोकसभा सीटों में महज़ 4 सीट पर मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारा गया था।
जबकि राज्य में मुसलमानों की आबादी क़रीब 18 फ़ीसदी है।
सियासी ताक़त वापस हासिल करने की कोशिश
बिहार में बाबू जगदेव प्रसाद को कोइरी समुदाय का सबसे बड़ा नेता माना जाता था। उन्हें बिहार का लेनिन भी कहा जाता था। वो पिछड़ी आबादी को आगे ले जाने के लिए बिहार में बनाए गए 'त्रिवेणी संघ' से भी जुड़े हुए थे।
माना जाता है कि साल 1974 में जगदेव प्रसाद के निधन के बाद कोइरी (कुशवाहा) समुदाय की राजनीतिक ताक़त को बड़ा झटका लगा और उसके बाद से ही यह आबादी अपनी राजनीतिक ताक़त को वापस पाने की कोशिश में दिखती है।
वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, “बिहार में कुशवाहा वोटर भले ही क़रीब 4।2% हैं, लेकिन यह संगठित वोट बैंक है और राजनीतिक रूप से सजग और महत्वाकांक्षी भी है। हाल के चुनाव में कोइरी समुदाय ने आरजेडी के भी अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट दिया था।”
सुरूर अहमद बताते हैं कि कुर्मी की आबादी नालंदा, भागलपुर और पटना में है, लेकिन कोइरी (कुशवाहा) वोटर राज्य में बड़े इलाक़े में फैले हुए हैं, ये वोटर राज्य की कई सीटों पर हार जीत का फ़ैसला कर सकते हैं।
सुरूर अहमद भी इस बात से सहमत दिखते हैं कि कुशवाहा वोटरों ने हर पार्टी में अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट दिया है। यानी वो किसी पार्टी से बंधे हुए नहीं, बल्कि अपनी जाति को राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने की कोशिश में दिखते हैं।
बिहार के सियासी दल फिलहाल कोइरी समुदाय की इसी ताक़त अपने पक्ष में लाने की कोशिश में दिखते हैं। राज्य में अगर विधानसभा चुनाव तय समय पर होता है तो यह साल 2025 में अक्टूबर महीने में हो सकता है।
ज़ाहिर है इन चुनावों में अभी लंबा वक़्त बचा हुआ है और इस बीच केंद्र से लेकर राज्य तक में सियासत में कई बदलाव हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में बदले राजनीतिक समीकरण में हर दल अपने वोटों के समीकरण को देखकर अपनी रणनीति बदल भी सकता है।