भारतीय जनता पार्टी ने अपने वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी की चुनावी राजनीति से विदाई के साथ ही अमित शाह के आगमन की घोषणा कर दी है। आडवाणी की विदाई तो तय मानी जा रही थी। बस उसकी औपचारिक घोषणा का इंतज़ार था। पर अमित शाह का चुनावी अखाड़े में उतरना भाजपा की भविष्य की राजनीति के संकेत देता है।
अमित शाह की गुजरात के गांधीनगर सीट से उम्मीदवारी की घोषणा के ज़रिए पार्टी ने एक साथ कई संदेश दिए हैं। पहला संदेश इस घोषणा के रूप में आया है कि लालकृष्ण आडवाणी अब सक्रिय राजनीति से रिटायर कर दिए गए हैं। यह पुरानी पीढ़ी की विदाई का संदेश है।
पहली सूची में नाम न आने का मतलब है कि डॉ. मुरली मनोहर जोशी का भी टिकट कट चुका है। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी और कलराज मिश्र ने आने वाले समय का संकेत समझ लिया था और पहले ही चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी थी।
पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी को रक्षा मंत्रालय की स्थायी समिति के अध्यक्ष पद से हटाकर पहले ही पार्टी आलाकमान ने संदेश दे दिया था। उन्हें अपने बेटे का भी भविष्य पार्टी में सुरक्षित नहीं लगा। इसलिए वो कांग्रेस में चले गए। हालांकि, उनकी बेटी अभी भाजपा की विधायक हैं। हिमाचल में शांता कुमार भी अब आराम करेंगे यह मान लेना चाहिए।
कैसे बदले हालात
दरअसल, आडवाणी अपनी आज की दशा के लिए ख़ुद ही ज़िम्मेदार हैं। साल 2004 में वाजपेयी सरकार की हार के बाद उनके सामने अवसर था कि वे अगली पीढ़ी के लिए जगह छोड़ दें। फिर 2005 में पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना की मजार पर उनके बयान के बाद पार्टी और संघ परिवार उन्हें पार्टी से ही निकालना चाहता था। जिस पार्टी के वे अध्यक्ष थे उसी के संसदीय बोर्ड ने उनके ख़िलाफ़ आलोचनात्मक प्रस्ताव पास किया।
संघ से उनका कार्यकारी नाता उसके बाद टूट गया। पर दिल्ली में बैठे भाजपा नेताओं के आपसी झगड़े के कारण 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्हें पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया। पार्टी की सीटें पहले से भी कम हो गईं।
चुनाव के बाद उन्होंने घोषणा की कि वे चुनावी राजनीति से रिटायर हो रहे हैं। पर कुछ ही दिन में पलट गए और नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़ने को तैयार नहीं हुए। संघ ने दख़ल दिया और उन्हें हटाकर लोकसभा में सुषमा स्वराज और जसवंत सिंह को हटाकर राज्यसभा में अरुण जेटली को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया।
साल 2013 में आडवाणी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से रोकने के लिए सारी ताक़त लगा दी। पर हार गए। पार्टी और संघ परिवार मोदी के साथ खड़ा था। तो आडवाणी ने पांच मौक़ों 2004, 2005, 2009, 2013 और 2014 में सम्मानपूर्वक रिटायर होने का अवसर गंवा दिया।
अमित शाह के बहाने भविष्य के संकेत
पर आडवाणी प्रकरण से अलग अमित शाह का लोकसभा चुनाव लड़ना कुछ तात्कालिक और कुछ दीर्घकालिक लक्ष्य साधता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात छोड़कर उत्तर प्रदेश चले गए हैं। पिछली बार वो वड़ोदरा से भी चुनाव लड़े थे। इस बार नहीं लड़ेंगे यह तय था। आडवाणी को टिकट न मिलना भी तय था।
ऐसे में गुजरात के लोगों को संदेश जा सकता था कि भाजपा और मोदी के लिए गुजरात का महत्व कम हो गया है। पिछले चुनाव में भाजपा गुजरात की सारी 26 सीटों पर विजयी हुई थी। अमित शाह का गांधीनगर से चुनाव लड़ना गुजरात के लोगों को आश्वस्त करेगा कि पार्टी का मुखिया गुजरात का संसद में प्रतिनिधित्व करेगा।
विपक्ष को जवाब
गांधीनगर सीट से भाजपा ने दूसरा संदेश विपक्ष के उन नेताओं को दिया है जो कह रहे हैं कि उन्हें पूरी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करना है इसलिए ख़ुद चुनाव नहीं लड़ रहे। ख़ासतौर से बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती को। अमित शाह की उम्मीदवारी के बाद मायावती का यह तर्क खोखला नज़र आएगा।
उत्तर प्रदेश में गठबंधन के दूसरे दल समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव पर दबाव बढ़ जाएगा। उन्होंने पहले घोषणा की थी कि उनकी पत्नी डिंपल यादव कन्नौज से चुनाव नहीं लड़ेंगी। इस सीट से अखिलेश खुद चुनाव लड़ेंगे पर अब डिंपल की उम्मीदवारी की घोषणा हो गई है।
अखिलेश यादव ने 2009 के बाद से कोई चुनाव नहीं लड़ा है। इसी तरह मायावती ने 2002 के बाद से कोई चुनाव नहीं लड़ा है। अखिलेश यादव के पास तो राज्यसभा में जाने का विकल्प है लेकिन मायावती के पास तो वह भी नहीं है। अमित शाह के चुनाव मैदान में उतरने के बाद मायावती और अखिलेश यादव के लिए इस मुद्दे पर जवाब देना कठिन हो जाएगा।
अमित शाह का चुनाव लड़ना भाजपा के एक वरिष्ठ नेता का चुनाव मैदान में उतरना भर नहीं है। इस चुनाव से भाजपा में पदानुक्रम तय हो रहा है। मोदी के साथ के जो नेता साठ पार वाले हैं उनके लिए संदेश है कि पदानुक्रम में अब अमित शाह औपचारिक रूप से नंबर दो हो सकते हैं।
अमित शाह लोकसभा में एक साधारण सदस्य की तरह नहीं रहने वाले हैं। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा की सरकार फिर बनी तो इस बात की प्रबल संभावना है कि अमित शाह देश के गृह मंत्री और कैबिनेट में नंबर दो होंगे।
वर्तमान गृह मंत्री राजनाथ सिंह के लिए यह बड़ा झटका होगा। इत्तेफाक की बात है कि पार्टी अध्यक्ष पद भी अमित शाह को राजनाथ सिंह को हटाकर ही मिला था। पिछले पांच साल के राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर डालें तो मोदी-शाह की जोड़ी ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, त्रिपुरा, असम, हिमाचल, अरुणाचल प्रदेश और अब गोवा में पचास साल या उससे कम के नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने संघ सहकार्यवाहक रहते हुए संघ में पीढ़ी परिवर्तन का काम किया था और उसी समय भाजपा नेताओं को भी ऐसा करने की सलाह दी थी।
भाजपा के उम्मीदवारों की पहली सूची में एक और नाम न होना चौंकाता है। वह हैं असम के मंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा का। कहा जा रहा था कि पार्टी ने उन्हें छूट दी है कि देश की जिस सीट से चाहें चुनाव लड़ें। पिछले पांच साल में पूर्वोत्तर में भाजपा के विस्तार में उनकी सबसे अहम भूमिका रही है। वे अमित शाह और प्रधानमंत्री के प्रिय पात्र हैं।
सूची आने के बाद अमित शाह ने ट्वीट किया कि पार्टी ने अनुरोध किया है कि वे चुनाव लड़ने की बजाय पूर्वोत्तर में जिस काम में लगे हैं उसे कुछ और समय दें। कुल मिलाकर लोकसभा उम्मीदवारों की पहली सूची पर मोदी-शाह की छाप के साथ ही एक बात साफ नज़र आती है कि सबसे ज़्यादा ज़ोर इस बात पर है कि उम्मीदवार जिताऊ हो।
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य और विचार बीबीसी के नहीं हैं और बीबीसी इसकी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं लेती है)