93 साल की भरी पूरी उम्र में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पंचतत्व में मिल गए लेकिन, भारतीय राजनीति में वे हमेशा बने रहेंगे। बतौर राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी हर मुमकिन ऊंचाई तक पहुंचे, वे प्रधानमंत्री के तौर पर अपना कार्यकाल पूरा करने वाले पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री रहे।
महज दो सीटों वाली भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनाने की उपलब्धि केवल अटल बिहारी वाजपेयी की भारतीय राजनीति में सहज स्वीकार्यता के बूते की बात थी, जिसे भांपते हुए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को भी लालकृष्ण आडवाणी को पीछे रखकर वाजपेयी को आगे बढ़ाना पड़ा था। वाजपेयी तीन बार भारत के प्रधानमंत्री रहे, पहले 13 दिन तक, फिर 13 महीने तक और उसके बाद 1999 से 2004 तक का कार्यकाल उन्होंने पूरा किया। इस दौरान उन्होंने ये साबित किया कि देश में गठबंधन सरकारों को भी सफलता से चलाया जा सकता है।
ज़ाहिर है कि जब वाजपेयी स्थिर सरकार के मुखिया बने तो उन्होंने ऐसे कई बड़े फ़ैसले लिए जिसने भारत की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया, ये वाजपेयी की कुशलता ही कही जाएगी कि उन्होंने एक तरह से दक्षिणपंथ की राजनीति को भारतीय जनमानस में इस तरह रचा बसा दिया जिसके चलते एक दशक बाद भारतीय जनता पार्टी ने वो बहुमत हासिल कर दिखाया, जिसकी एक समय में कल्पना भी नहीं की जाती थी। एक नज़र बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के उन फ़ैसलों की जिसका असर लंबे समय तक भारतीय राजनीति में नज़र आता रहेगा।
1. भारत को जोड़ने की योजना
प्रधानमंत्री के तौर पर वाजपेयी के जिस काम का सबसे ज़्यादा अहम माना जा सकता है वो सड़कों के माध्यम से भारत को जोड़ने की योजना है। उन्होंने चेन्नई, कोलकाता, दिल्ली और मुंबई को जोड़ने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना लागू की, साथ ही ग्रामीण अंचलों के लिए प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना लागू की। उनके इस फ़ैसले ने देश के आर्थिक विकास को रफ़्तार दी।
हालांकि उनकी सरकार के दौरान ही भारतीय स्तर पर नदियों को जोड़ने की योजना का खाका भी बना था। उन्होंने 2003 में सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में एक टॉस्क फोर्स का गठन किया था। लेकिन जल संरक्षण के साथ-साथ पर्यावरण विरोधियों ने काफी विरोध किया था।
2. निजीकरण को बढ़ावा- विनिवेश की शुरुआत
वाजपेयी के प्रधानमंत्रीत्व काल के दौरान देश में निजीकरण को उस रफ़्तार तक बढ़ाया गया जहां से वापसी की कोई गुंजाइश नहीं बची। वाजपेयी की इस रणनीति के बीच कॉरपोरेट समूहों की बीजेपी से सांठगांठ का आरोप रहा हो उतना ही तबके उनके नज़दीकी रहे प्रमोद महाजन की सोच का असर भी रहा।
वाजपेयी ने 1999 में अपने सरकार में विनिवेश मंत्रालय के तौर पर अपनी तरह का एक अनोखे मंत्रालय का गठन किया था। इसके मंत्री अरुण शौरी बनाए गए थे। शौरी के मंत्रालय ने वाजपेयीजी के नेतृत्व में भारत एल्यूमिनियम कंपनी (बाल्को), हिंदुस्तान ज़िंक, इंडियन पेट्रोकेमिकल्स कारपोर्रेशन लिमिटेड और विदेश संचार निगम लिमिटेड जैसी सरकारी कंपनियों को बेचने की प्रक्रिया शुरू की थी।
इतना ही नहीं वाजपेयी से पहले देश में बीमा का क्षेत्र सरकारी कंपनियों के हवाले ही था, लेकिन वाजपेयी सरकार ने इसमें विदेशी निवेश के रास्ते खोले। उन्होंने बीमा कंपनियों में विदेशी निवेश की सीमा को 26 फ़ीसदी तक किया था, जिसे 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार ने बढ़ाकर 49 फ़ीसदी तक कर दिया।
वाजपेयी जी के इस क़दम की आज भी ख़ूब आलोचना होती है। आलोचना करने वालों के मुताबिक निजीकरण से कंपनियों ने मुनाफ़े को ही अपना उद्देश्य बना लिया हालांकि बाज़ार के दख़ल के हरकारे लगाने वालों के लिए इससे लोगों को बेहतर सुविधाएं मिलनी शुरू हुईं लेकिन, इन सेक्टर में काम करने वालों के लिए ये बदलाव मुफीद नहीं रहा। ध्यान रहे सरकारी कर्मचारियों के लिए पेंशन की स्कीम को वाजपेयी सरकार ने ही ख़त्म किया था। लेकिन उन्होंने जनप्रतिनिधियों को मिलने वाले पेंशन की सुविधा को नहीं बदला था।
3. संचार क्रांति का दूसरा चरण
भारत में संचार क्रांति का जनक भले राजीव गांधी और उनके नियुक्त किए गए सैम पित्रोदा को माना जाता हो लेकिन उसे आम लोगों तक पहुंचाने का काम वाजपेयी सरकार ने ही किया था। 1999 में वाजपेयी ने भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) के एकाधिकार को ख़त्म करते हुए नई टेलीकॉम नीति लागू की।
इसके पीछे भी प्रमोद महाजन का दिमाग़ बताया गया। रेवेन्यू शेयरिंग मॉडल के ज़रिए लोगों को सस्ती दरों पर फ़ोन कॉल्स करने का फ़ायदा मिला और बाद में सस्ती मोबाइल फ़ोन का दौर शुरू हुआ। हालांकि नई टेलीकॉम नीति के तहत वो दुनिया खुली थी जिसका एक रूप 2जी घोटाले के रूप में यूपीए कार्यकाल में सामने आया था।
4. सर्व शिक्षा अभियान
छह से 14 साल के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देने का अभियान वाजपेयी के कार्यकाल में ही शुरू किया गया था। 2000-01 में उन्होंने ये स्कीम लागू की। जिसके चलते बीच में पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या में कमी दर्ज की गई।
2000 में जहां 40 फ़ीसदी बच्चे ड्रॉप आउट्स होते थे, उनकी संख्या 2005 आते आते 10 फ़ीसदी के आसपास आ गई थी। इस मिशन से वाजपेयी के लगाव का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने स्कीम को प्रमोट करने वाले गाने 'स्कूल चले हम' ख़ुद से लिखा था।
5. पोखरण का परीक्षण
मई 1998 में भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था। ये 1974 के बाद भारत का पहला परमाणु परीक्षण था। वाजपेयी ने ये परीक्षण दिखाने के लिए किय़ा था कि भारत परमाणु संपन्न देश है। हालांकि उनके आलोचक इस परीक्षण की ज़रूरत पर सवाल उठाते रहे हैं, क्योंकि जवाब के तौर पर पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण किया था। लेकिन इससे परमाणु उर्जा और तकनीक के क्षेत्र में तेजी से कार्य शुरू हुआ।
ख्यात लेखिका अरूंधति राय ने आउटलुक के 5 अगस्त, 1998 के अंक में परमाणु परीक्षण की आलोचना करते हुए द इंड ऑफ़ इमेजिनेशन नाम से एक लंबा आर्टिकल लिखा था। इसमें अरूंधित राय ने लिखा था,- अगर परमाणु युद्ध होता है तो यह एक देश का दूसरे देश के खिलाफ युद्ध नहीं होगा, हमारा दुश्मन ना तो चीन होगा ना ही अमेरिका। हमारी दुश्मन पृथ्वी होगी। उसके तत्व- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, ये सब हमारे खिलाफ़ हो जाएंगे। उनका आक्रोष हमारे लिए बेहद ख़तरनाक होगा।
वैसे ये वो दौर था जब विश्व हिंदू परिषद के लोगों ने ये मांग की थी कि पोखरण की रेत को पूरे भारत में प्रसाद के तौर पर बांटा जाए। इसका जिक्र करते हुए अरुंधति राय ने लिखा था ये लोग देशभर में कैंसर की यात्रा चाहते हैं क्या? इस परीक्षण के बाद अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और कई पश्चिमी देशों ने आर्थिक पांबदी लगा दी थी लेकिन वाजपेयी की कूटनीति कौशल का कमाल था कि 2001 के आते-आते ज़्यादातर देशों ने सारी पाबंदियां हटा ली थीं।
6. लाहौर-आगरा समिट और करगिल-कंधार की नाकामी
प्रधानमंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों को सुधारने की कवायद को तेज़ किया था। उन्होंने फरवरी, 1999 में दिल्ली-लाहौर बस सेवा शुरू की थी। ये क़दम उन्होंने प्रधानमंत्री के तौर पर अपने दूसरे कार्यकाल में किया था। उन्होंने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के साथ मिलकर लाहौर दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए।
इतना ही नहीं, वाजपेयी अपनी इस लाहौर यात्रा के दौरान मीनार-ए-पाकिस्तान भी गए। दरअसल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से पाकिस्तान के अस्तित्व को नकारता रहा था और अखंड भारत की बात करता रहा था। वाजपेयी का मीनार-ए-पाकिस्तान जाना एक तरह से पाकिस्तान की संप्रभुता को संघ के स्वीकार किए जाने का संकेत था। ये बात दीगर है कि तब तक कोई कांग्रेसी प्रधानमंत्री भी मीनार-ए-पाकिस्तान जाने का साहस नहीं जुटा पाए थे। मीनार-ए-पाकिस्तान वो जगह है जहां पाकिस्तान को बनाने का प्रस्ताव 23 मार्च, 1940 को पास किया गया था।
मीनार-ए-पाकिस्तान जाकर वाजपेयी ने कहा था कि मुझे काफी कुछ कहा गया है लेकिन मुझे उसमें कोई लॉजिक नजर नहीं आता। इसलिए मैं यहां आना चाहता था। मैं कहना चाहता हूं कि पाकिस्तान के अस्तित्व को मेरे स्टांप की ज़रूरत नहीं है, मुझसे अगर भारत में सवाल पूछे गए तो मैं वहां भी जवाब दूंगा।
वरिष्ठ पत्रकार किंग्शुक नाग ने वाजपेयी पर लिखी पुस्तक आल सीज़ंड मैन में लिखा है कि उनसे तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने कहा था कि अब तो वाजपेयीजी पाकिस्तान में भी चुनाव लड़े तो जीत जाएंगे। हालांकि इसके तुरंत बाद पाकिस्तानी सैनिकों ने करगिल में भारतीय सीमा में घुसपैठ कर ली। इसके बाद पाकिस्तानी सैनिकों को उनकी जगह वापस पहुंचाने के लिए दो महीने तक संघर्ष चला। इस संघर्ष में आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक भारत की तरफ़ से 500 से ज़्यादा लोग मारे गए।
ये पहला मौका था जब पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सीमा के अंदर आकर आक्रमण किया था, इसको लेकर वाजपेयी की आलोचना होती रही। इसके बाद एक बड़ी नाकामी वाजपेयी को कंधार हाइजैक मसले पर भी मिली। 24 दिसंबर को पाकिस्तान स्थित चरमपंथी संगठन हरकत-उल-मुजाहिदीन के लोगों ने आईसी-814 विमान का अपहरण कर लिया था। काठमांडू से दिल्ली आ रहे इस विमान में 176 यात्री और चालक दल के 15 लोग सवार थे।
भारतीय सीमा में इस विमान का अपहरण कर लिया गया और अपहरणकर्ता इस विमान को अफ़ग़ानिस्तान के कंधार ले गए। इन लोगों ने भारत सरकार से तीन चरमपंथी मुश्ताक अहमद जरगर, अहमद ओमार सईद शेख और मौलाना मसूद अजहर को रिहा करने की मांग की।
तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह इन चरमपंथियों को लेकर कंधार गए और यात्रियों को रिहा कराया। ये कहा जाता रहा है कि वाजपेयी सरकार ने आम लोगों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी लेकिन कंधार संकट को नज़दीक से देखने वाले और भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के पूर््व प्रमुख ने कई बार इस बात को दोहराया है कि तब दिल्ली में सरकार के स्तर पर इस मामले को ठीक ढंग से हैंडल नहीं किया गया।
इसके बाद पाकिस्तान की कमान परवेज़ मुशर्रफ़ के हाथों में आ गई, वाजपेयी ने तब भी रिश्ते को सुधारने के लिए बातचीत को तरजीह दी, आगरा में दोनों नेताओं ने मुलाकात भी की हालांकि ये बातचीत नाकाम हो गई थी।
7. पोटा क़ानून
प्रधानमंत्री के तौर पर ये वाजपेयी के पूर्ण कार्यकाल का दौर था जब 13 दिसंबर, 2001 को पांच चरमपंथियों ने भारतीय संसद पर हमला कर दिया। ये भारतीय संसदीय इतिहास का सबसे काला दिन माना जाता है। इस हमले में भारत के किसी नेता को कोई नुकसान नहीं पहुंचा था लेकिन पांचों चरमपंथी और कई सुरक्षाकर्मी मारे गए थे। इससे पहले नौ सितंबर को अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड टॉवर सबसे भयावह आतंकी हमला हो चुका था।
इन सबको देखते हुए आतंरिक सुरक्षा के लिए सख़्त क़ानून बनाने की मांग ज़ोर पकड़ने लगी थी और वाजपेयी सरकार ने पोटा क़ानून बनाया, ये बेहद सख्त आतंकवाद निरोधी क़ानून था, जिसे 1995 के टाडा क़ानून के मुक़ाबले बेहद कड़ा माना गया था।
हालांकि इस क़ानून के बनने के बाद ही इसको लेकर आलोचनाओं का दौर शुरू हो गया कि इसके ज़रिए सरकार विरोधियों को निशाना बना रही है। महज दो साल के अंदर इस क़ानून के तहत 800 लोगों को गिरफ़्तार किया गया और क़रीब 4000 लोगों पर मुक़दमा दर्ज किए गए। तमिलनाडु में एमडीएमके नेता वाइको को भी पोटा क़ानून के तहत गिरफ़्तार किया गया था। महज दो साल के दौरान वाजपेयी सरकार 32 संगठनों पर पोटा के तहत पाबंदी लगाई। 2004 में जब यूपीए सरकार सत्ता में आई तो उसने ये क़ानून निरस्त कर दिया।
8. संविधान समीक्षा आयोग का गठन
वाजपेयी सरकार ने संविधान में संशोधन की ज़रूरत पर विचार करने के लिए एक फरवरी, 2000 को संविधान समीक्षा के राष्ट्रीय आयोग का गठन किया था। हालांकि ऐसे आयोग के गठन का विरोध तत्कालीन राष्ट्रपति आरके नारायणन ने भी किया था और विपक्षी दलों ने भी इसे मुद्दा बनाया था। 26 जनवरी, 2005 को 50वें गणतंत्र दिवस के मौके पर अपने संबोधन में आरके नारायणन ने संविधान समीक्षा की ज़रूरत पर सवाल उठाते हुए कहा था कि जब संशोधन की व्यवस्था है ही तो भी फिर समीक्षा क्यों होनी चाहिए?
लेकिन वाजपेयी सरकार ने आयोग का गठन किया और उसे छह महीने का वक्त दिया गया। उस वक्त इस बात पर अंदेशा जताया गया था कि जिस संविधान को तैयार करने में तीन साल के करीब वक्त लगा उसकी समीक्षा महज छह महीने में कैसे हो पाएगी। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश एम एन वेंकटचलाइया के अगुवाई वाले आयोग ने 249 सिफारिशें की थीं, लेकिन इस आयोग और उनकी सिफारिशों का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ था, जिसके बाद वाजपेयी सरकार संविधान को संशोधित करने के काम को आगे नहीं बढ़ा पाई।
9. जातिवार जनगणना पर रोक
1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के बनने से पहले एचडी देवगौड़ा सरकार ने जातिवार जनगणना कराने को मंजूरी दे दी थी जिसके चलते 2001 में जातिगत जनगणना होनी थी। मंडल कमीशन के प्रावधानों को लागू करने के बाद देश में पहली बार जनगणना 2001 में होनी थी, ऐसे मंडल कमीशन के प्रावधानों को ठीक ढंग से लागू किया जा रहा है या नहीं इसे देखने के लिए जातिगत जनगणना कराए जाने की मांग ज़ोर पकड़ रही थी।
न्यायिक प्रणाली की ओर से बार बार तथ्यात्मक आंकड़ों को जुटाने की बात कही जा रही थी ताकि कोई ठोस कार्य प्रणाली बनाई जा सके। तत्कालीन रजिस्टार जनरल ने भी जातिगत जनगणना की मंजूरी दे दी थी। लेकिन वाजपेयी सरकार ने इस फ़ैसले को पलट दिया। जिसके चलते जातिवार जनगणना नहीं हो पाई। इसको लेकर समाज का बहुजन तबका और उसके नेता वाजपेयी की आलोचना करते रहे हैं, उनके मुताबिक वाजपेयी के फ़ैसले से आबादी के हिसाब से हक की मुहिम को धक्का पहुंचा।
10. राजधर्म का पालन
हर प्रधानमंत्री की तरह वाजपेयी के फ़ैसलों को अच्छे और ख़राब की कसौटी पर कसा जाता रहा है। लेकिन गुजरात में 2002 में हुए दंगे के दौरान दो सप्ताह तक उनकी चुप्पी को लेकर वाजपेयी की सबसे ज़्यादा आलोचना होती है। दो सप्ताह बाद प्रधानमंत्री के तौर पर वाजपेयी बोले भी तो केवल इतना ही कहा कि मोदी को राजधर्म का पालन करना चाहिए।
लेकिन वे खुद राजधर्म का पालन क्यों नहीं कर पाए, ये बात वाजपेयी के अपने अंतर्मन को भी कचोटती रही। उन्होंने बाद में कई मौकों पर ये ज़ाहिर किया कि वे चाहते थे मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर इस्तीफ़ा दे दें। लेकिन ना तो तब नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के पद से अपना इस्तीफ़ा दिया और ना ही वाजपेयी राजधर्म का पालन करते हुए उन्हें हटा ही पाए। इतिहास वाजपेयी की तमाम ख़ासियतों के साथ इस 'राजनीतिक चूक' के लिए भी उन्हें हमेशा याद रखेगा।