इस साल के विधानसभा और अगले साल ( 2024) के लोकसभा चुनावों से पहले ओबीसी वोटरों को रिझाने की कवायद तेज़ हो गई है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी महिला आरक्षण बिल में ओबीसी कोटा और जातिगत सर्वेक्षण की मांग कर ओबीसी वोटरों को गोलबंदी की कोशिश कर रहे हैं।
उन्होंने सभी राज्यों के ओबीसी प्रकोष्ठ के नेताओं को दिल्ली बुलाया है ताकि ओबीसी वोटरों का समर्थन जुटाने की रणनीति तय की जा सके।
पिछले दो लोकसभा चुनावों में ओबीसी वोटरों के बीच अपनी पैठ बना चुकी बीजेपी भी इसे लेकर आक्रामक रणनीति बनाने में लगी है। भारतीय जनता पार्टी नवंबर में प्रयाराज में ओबीसी महाकुंभ कर रही है ताकि पिछड़ी जातियों के वोटरों के साथ उसका संपर्क और मजबूत हो सके।
बिहार में आरजेडी और जनता दल (यूनाइटेड) की सरकार जाति सर्वे करा रही है और जातिगत जनगणना पर खासी आक्रामक हैं।
वहीं उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी जातिगत जनगणना को केंद्र में रख कर रैलियां, कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर और सम्मेलन कर रही है।
इन सारी कवायदों से यह ये लगभग साफ हो गया है कि इंडिया और एनडीए दोनों गठबंधन की पार्टियों के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी कार्ड बेहद अहम होगा।
ओबीसी वोटर कितने अहम?
देश की आबादी में ओबीसी जातियों के लोग 42 से 52 फीसदी हैं। इसलिए वोटरों के इस विशाल आधार वाले समुदाय का किसी भी गठबंधन की ओर झुकना उसकी जीत की गारंटी है। पिछले दो चुनावों के दौरान बीजेपी को मिली बड़ी जीत में ओबीसी वोटरों की अहम भूमिका रही है।
लोकनीति-सीएसडीएस के आंकड़े बताते हैं कि बीजेपी ओबीसी वोटरों में अपनी पैठ बनाने में कामयाब रही है। रसूख़ वाली ओबीसी जातियों की तुलना में कमजोर ओबीसी जातियों के वोट बीजेपी को ओर ज्यादा आकर्षित हुए हैं। ये जातियां अब तक अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की समर्थक रही हैं। लेकिन पिछले दो चुनावों में इनका बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ दिखा है।
लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे बताते हैं कि 1996 के लोकसभा चुनाव में रसूख वाली ओबीसी जातियों में से 22 फीसदी ने बीजेपी को वोट दिया। जबकि सामाजिक रूप से उनसे कमजोर ओबीसी जातियों में से 17 फीसदी ने बीजेपी को वोट दिया था।
लेकिन 2014 में तस्वीर बदल गई। इस चुनाव में रसूख वाली ओबीसी जातियों के 30 फीसदी वोटरों ने बीजेपी को वोट दिया था। लेकिन गैर रसूखदार ओबीसी जातियों के 43 वोटरों ने बीजेपी के पक्ष में मतदान किया था।
2019 के चुनाव में बीजेपी के पक्ष में ओबीसी जातियों का समर्थन ओर बढ़ा। इस चुनाव में रसूख वाली ओबीसी जातियों के 40 फीसदी वोटरों ने बीजेपी को वोट दिया। वहीं कमजोर ओबीसी जातियों के 48 फीसदी वोटरों ने बीजेपी के पक्ष में मतदान किया था।
इस चुनाव में कितने निर्णायक साबित होंगे ओबीसी वोटर
सीएसडीएस में प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं,'' 2014 और 2019 के चुनाव को देखें तो ओबीसी का वोट बीजेपी की ओर शिफ्ट हुआ है। लेकिन पिछले एक-डेढ़ साल से ये मांग हो रही है कि ओबीसी की गिनती होनी चाहिए। इसकी मांग विपक्षी पार्टियां कर रही हैं और अब जब महिला आरक्षण बिल आया है तो इसके अंदर भी ओबीसी महिलाओं के कोटे की मांग हो रही है।''
उन्होंने कहा,''बीजेपी अब इस मुद्दे पर डिफेंसिव हो गई है।उसे बताना पड़ रहा है कि उसके 303 सांसदों में कितने ओबीसी सांसद हैं। उसके पास कितने ओबीसी विधायक हैं। उसके कितने मंत्री ओबीसी हैं।''
वो कहते हैं,''ये इस ओर इशारा कर रहा है कि आने वाले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में ओबीसी वोटर अहम मुद्दा होंगे। जबकि विपक्षी पार्टियां इस ओर इशारा कर रही हैं कि बीजेपी ओबीसी वोटरों के हित में कदम उठाने में हिचक रही है।''
ओबीसी वोटरों के लिए होड़
ओबीसी वोट पहले कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के पास था। लेकिन 1989 में और फिर इसके बाद वीपी सिंह सरकार की ओर से मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद ये वोट जनता दल, समाजवादी पार्टी आरएलडी,जनता दल (एस) जैसी पार्टियों के पास आ गया है।
1989 से 2009 तक की राजनीति में इन दलों का खासा वर्चस्व रहा है। इन दलों की भागीदारी लगभग हर गठबंधन सरकार में रही।
1991 में जनता नाम धारी पार्टियों के पास 64 सीटें थीं। 14-15 फीसदी वोट थे। लेकिन 2014 में इनका वोट शेयर आठ फीसदी रह गया और सीटें 30-35 तक सीमित हो गईं।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी कहते हैं कि 2009 के चुनाव में बीजेपी को 22 फीसदी ओबीसी वोट मिला था। 2019 के चुनाव इसका दोगुना यानी 44 फीसदी हो गया।
उन्होंने कहा कि 44 फीसदी ओबीसी वोट और उनकी 50 फीसदी आबादी (देश की आबादी में लगभग आधी हिस्सेदारी ओबीसी जातियों की है) को कुल वोट फीसदी में तब्दील करेंगे तो ये 22 फीसदी के आसपास बैठेगा।जबकि बीजेपी का वोट ही 38 फीसदी है।
वो कहते हैं कि इसमें ओबीसी वोटरों की 22 फीसदी हिस्सेदारी का मतलब है कि बीजेपी को आधे से ज्यादा वोटर ओबीसी वोटरों से मिले हैं। यानी ओबीसी समुदाय का हर दूसरा वोटर बीजेपी का वोटर है।
बीजेपी ने ओबीसी वोटरों का फायदा कैसे लिया?
ओबीसी वोटर बंटा हुआ है। खुद प्रधानमंत्री ओबीसी हैं। बीजेपी ने पिछले दो चुनावों से ओबीसी वोटरों के एक बड़े हिस्से को अपने पाले में लेने के लिए गैर रसूखदार ओबीसी जातियों को लुभाना शुरू किया।
यूपी चुनावों में बीजेपी इस रणनीति का लाभ ले चुकी है।अब तो रोहिणी कमीशन बना कर उसे संवैधानिक दर्जा भी दे दिया गया है।
विश्लेषकों के मुताबिक़ ये कमीशन गैर रसूखदार और अति पिछड़ी जातियों को लाभ दिलाने के लिए बनाया गया है।
अमिताभ तिवारी कहते हैं,बीजेपी ने हर राज्य में रसूख वाली ओबीसी जातियों के खिलाफ राजनीतिक गोलबंदी को बढ़ावा दिया।महाराष्ट्र में मराठों, हरियाणा में जाटों और यूपी में यादव के बरअक्स तुलनात्मक तौर पर सामाजिक रूप से कमजोर ओबीसी जातियों को बढ़ावा दिया गया।''
वो कहते हैं,''बीजेपी ने इस नैरेटिव को आगे बढ़ाया कि ओबीसी आरक्षण और दूसरी सुविधाओं का फायदा तो जाट,यादव या वोक्कालिगा लोग ले रहे हैं। गैर रसूखदार और अति पिछड़ी जातियों को इसका फायदा नहीं मिल रहा है। इस तरह बीजेपी ने पिछड़ी जातियों में एक विभाजन पैदा किया। पिछड़ों में गैर रसूखदार और अति पिछड़ी ओबीसी जातियों की संख्या ज्यादा है। लिहाजा बीजेपी के पाले में ज्यादा ओबीसी वोटर दिखे।''
विपक्ष की जोर-आजमाइश कितनी सफल होगी
ओबीसी वोटर 1989 से ही कांग्रेस से अलग हो गए थे।अब कांग्रेस को समझ में आ गया है कि ये ओबीसी वोटर ही हैं,जिन्हें उसे वापस लेना है।
लिहाजा कांग्रेस जातिगत जनगणना का समर्थन रही है। महिला आरक्षण बिल में ओबीसी कोटे की मांग कर रही है। और ओबीसी आरक्षण को 50 फीसदी तक बढ़ाने की दलील दे रही है।
अमिताभ तिवारी कहते हैं,''कांग्रेस और विपक्ष को लगता है कि बीजेपी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर वोटरों को इकट्ठा करती है। इसलिए इसके ख़िलाफ़ जाति की राजनीति करें तो ये इसकी काट बन जाएगी। वोटर उसके पास वापस आ जाएंगे लेकिन अब कास्ट पर क्लास हावी हो गई है। एक्सिस-माई इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक़ यूपी में सिर्फ चार फीसदी लोगों ने जाति के नाम पर वोट दिया था। इसलिए कांग्रेस की जाति की राजनीति के सफल होने की संभावना कम है।''
हालांकि संजय कुमार का कहना है कि जातिगत आरक्षण, महिला आरक्षण बिल में ओबीसी कोटा और पिछड़ी जातियों के लिए 50 फीसदी आरक्षण की मांग से कांग्रेस कुछ हद तक कांग्रेस को पिछड़ी जातियों का वोट दिलाएगी।
इससे ओबीसी आधार वाली राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय लोकदल और जनता दल (सेक्यूलर) जैसी पार्टियों को भी फायदा हो सकता है।
ओबीसी के मुद्दों पर कांग्रेस का मुखर होना उसे कुछ फायदा हो सकता है। लेकिन इससे ओबीसी वोटरों का एक बड़ा हिस्सा उसके पास आ जाएगा ऐसी संभावना नहीं दिखती।
विपक्षी दल कहां चूक रहे हैं
समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस जैसी पार्टियां ओबीसी को प्रतिनिधित्व देने की बात करती हैं।
खुद को सामाजिक न्याय की पार्टी बताने वाले समाजवादी पार्टी, आरजेडी और जेड़ी यू तो दावा करती हैं कि वो ओबीसी आधार वाली राजनीतिक पार्टियां हैं और पिछ़ड़ी जातियों को तवज्जो देती हैं। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उनकी रणनीति में चूक है।
अमिताभ तिवारी कहते हैं,'' इन दलों ने भले ही पिछड़ों को ज्यादा तवज्जो दी होगी। लेकिन ये पार्टियां इसका प्रचार करने में नाकाम रही हैं। आज कांग्रेस के तीन मुख्यमंत्री पिछड़ी जातियों के हैं और बीजेपी के सिर्फ एक- शिवराज सिंह चौहान। लेकिन कांग्रेस कभी बात वोटरों के सामने ठीक तरह से रख नहीं पाई है। राजनीति कम्यूनिकेशन और नैरेटिव के खेल है। कांग्रेस और बीजेपी इस खेल में नाकाम रही हैं।''