बीते कुछ सालों में हुए विधानसभा चुनावों पर नज़र डालेंगे तो बीजेपी का एक पैटर्न नज़र आएगा। विधानसभा चुनावों से पहले बीजेपी अपना मुख्यमंत्री बदल देती है या विपक्षी दलों के नामी नेताओं को पार्टी से जोड़ लेती है।
हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर की जगह नायब सिंह सैनी, गुजरात में विजय रूपाणी की जगह भूपेंद्र पटेल, कर्नाटक में येदियुरप्पा की जगह बासवराज बोम्मई, उत्तराखंड में तीरथ सिंह रावत की जगह पुष्कर सिंह धामी, त्रिपुरा में विप्लब कुमार देव की जगह माणिक साहा को सीएम बनाया गया।
ठीक इसी तरह बंगाल में शुभेंदु अधिकारी, महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण, पंजाब में सुनील जाखड़ और कैप्टन अमरिंदर सिंह, मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया, असम में हिमंत बिस्वा सरमा... ऐसे कई नाम हैं जो बीजेपी में तब शामिल किए गए जब चुनावी मौसम था।
कहा जाता है कि बीजेपी ऐसा करके सत्ता विरोधी लहर से बचने की कोशिश करती है और नए नेतृत्व की संभावनाओं की चर्चाओं को विस्तार दे देती है।
इसी लिस्ट में नया नाम झारखंड के पूर्व सीएम और जेएमएम नेता चंपई सोरेन का है। सोरेन 30 अगस्त को बीजेपी में शामिल हो गए। पर सवाल ये है कि चंपई सोरेन की सियासी ज़मीन कितनी मज़बूत है और बीजेपी के सोरेन को पार्टी में शामिल करने की वजह क्या है?
झारखंड में बीजेपी की मुश्किल
26 अगस्त को हिमंत बिस्वा सरमा के सोशल मीडिया पर एक तस्वीर शेयर की गई। इस तस्वीर में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, सरमा के अलावा चंपई सोरेन भी दिख रहे थे।
सरमा झारखंड में बीजेपी के चुनाव प्रभारी भी हैं। सरमा ख़ुद भी 2015 में असम चुनाव से पहले कांग्रेस से बीजेपी में आए थे। अब सरमा ही झारखंड चुनाव से पहले चंपई सोरेन को बीजेपी से जोड़ने में अहम भूमिका निभाते दिख रहे हैं।
झारंखड बीजेपी में फ़िलहाल कोई वैसा नेता नहीं है, जिसकी अपील हर तबके में हो। दिसंबर 2014 में झारखंड में जब बीजेपी जीती तो रघुबर दास के रूप में पहली बार राज्य को ग़ैर-आदिवासी सीएम मिला। रघुबर दास को मुख्यमंत्री बनाने को बीजेपी के राजनीतिक प्रयोग के रूप में देखा गया। झारखंड बनने के बाद से ग़ैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने का जोखिम किसी पार्टी ने नहीं उठाया था।
यह कुछ ऐसा ही था जैसे बीजेपी हरियाणा में ग़ैर जाट, महाराष्ट्र में ग़ैर मराठा और गुजरात में ग़ैर-पटेल पर दाँव लगा चुकी थी। हरियाणा में बीजेपी का यह प्रयोग सफल भी रहा लेकिन महाराष्ट्र और झारखंड में ऐसा नहीं हुआ।
2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव में बीजेपी हार गई। यहाँ तक कि रघुबर दास अपनी सीट भी नहीं बचा पाए और उन्हें हराया बीजेपी के ही बाग़ी सरयू राय ने। इस हार के बाद रघुबर दास झारखंड बीजेपी में हाशिए पर आते गए और अंततः वह ओडिशा के राज्यपाल बना दिए गए।
झारखंड बीजेपी में अर्जुन मुंडा भी बड़े नेता रहे हैं। वह प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में कैबिनेट मंत्री भी रहे लेकिन इस बार वह लोकसभा चुनाव हार गए। अर्जुन मुंडा भी झारखंड मुक्ति मोर्चा से ही बीजेपी में आए थे।
रघुबर दास, अर्जुन मुंडा की कैबिनेट में वित्त मंत्री और उपमुख्यमंत्री भी रहे। 2014 में भी बीजेपी अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ रही थी लेकिन अर्जुन मुंडा खरसांवा से ख़ुद ही चुनाव हार गए। इसके बाद मुख्यमंत्री का उनका दावा कमज़ोर पड़ा और रघुबर दास को मौक़ा मिल गया। लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव में रघुबर दास भी अपनी सीट हार गए।
नेतृत्व का संकट
2019 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनावों में अनुसूचित जनजाति के लिए रिज़र्व सीटों पर हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी जेएमएम को फ़ायदा हुआ।
बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बने थे। वह प्रदेश में बीजेपी के अहम चेहरे थे लेकिन पार्टी में और ज़मीन पर उनकी पकड़ भी ढीली पड़ती गई। मरांडी ने बीजेपी छोड़कर झारखंड विकास मोर्चा नाम से नई पार्टी बनाई थी। मगर 2019 के झारखंड चुनाव के बाद बीजेपी ने मरांडी की वापसी कराई।
अब मरांडी झारखंड में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष हैं। बीजेपी कमज़ोर पड़ी तो मरांडी के पास गई लेकिन मरांडी को झारखंड की जनता आजमा चुकी है। रघुबर दास राज्यपाल बना दिए गए, अर्जुन मुंडा चुनाव हार गए और मरांडी की वापसी से बीजेपी बहुत आश्वस्त नहीं लग रही है। ऐसे में चंपई सोरेन को बीजेपी में शामिल किया जा रहा है।
अब सवाल उठता है कि क्या चंपई सोरेन बीजेपी को झारखंड में फिर से सत्ता दिलवा सकते हैं? बीजेपी में मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा? क्या बीजेपी इस बार भी ग़ैर-आदिवासी पर दांव लगाएगी? शायद अभी इन तीनों सवालों का जवाब बीजेपी के पास भी नहीं होगा।
बीजेपी ने पिछले एक दशक में राज्यों में विधानसभा चुनाव लड़ने की रणनीति बदली है। कई बार होता है कि जिसके नेतृत्व में बीजेपी चुनाव लड़ती है, उसे पार्टी मुख्यमंत्री नहीं बनाती है और जो लोकप्रिय चेहरा नहीं होता है, उसे मुख्यमंत्री बना देती है।
मिसाल के तौर पर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में जिन चेहरों को सीएम बनाया गया, उनके नाम की चर्चा कहीं नहीं थी। अब सवाल ये है कि चंपई सोरेन की सियासी ज़मीन क्या वाक़ई इतनी मज़बूत है कि बीजेपी अतीत में हुए नुक़सान की भरपाई कर पाएगी?
झारखंड का सियासी गणित और चंपई सोरेन
झारखंड में विधानसभा की 81 और लोकसभा की 14 सीटें हैं। 2019 के विधानसभा चुनावों में जेएमएम गठबंधन 47 सीटें जीतने में सफल रहा था। बीजेपी को चुनाव में महज़ 25 सीटें मिली थीं।
झारखंड में आदिवासी आबादी क़रीब 26 फ़ीसदी है। 2024 लोकसभा चुनाव में बीजेपी आदिवासियों के लिए आरक्षित पाँचों सीटों पर हार गई थी।
चंपई सोरेन झारखंड में राजनीतिक रूप से असरदार संथाल जनजाति के बड़े नेता हैं। हेमंत सोरेन भी इसी जनजाति से हैं। ऐसे में चंपई सोरेन जो कभी ख़ुद हेमंत सोरेन और शिबू सोरेन के भरोसेमंद रहे थे, वो बीजेपी के लिए अहम हो गए हैं।
चंपई सोरेन कोल्हान क्षेत्र से आते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक़, कोल्हान से आदिवासी आबादी सबसे ज़्यादा यानी क़रीब 42 फ़ीसदी है। 2019 विधानसभा चुनाव में जेएमएम गठबंधन ने इस क्षेत्र की 14 विधानसभा सीटों में से 13 जीती थीं।
2014 के विधानसभा चुनाव में कोल्हान प्रमंडल में रघुवर दास इकलौते प्रत्याशी थे जो 70 हज़ार वोट से जीते थे। इस प्रमंडल में झारखंड की 14 सीटें हैं और इनमें रघुवर दास ही एकमात्र उम्मीदवार थे, जिन्हें एक लाख से ज़्यादा वोट मिले थे।
चंपई सोरेन का सियासी सफर
चंपई सोरेन साल 1991 में सरायकेला सीट पर हुए उपचुनाव में पहली बार जीते। चंपई सोरेन तत्कालीन बिहार विधानसभा के सदस्य बने क्योंकि तब झारखंड बिहार से अलग नहीं हुआ था। 1995 में चंपई इस सीट से फिर जीते। मगर साल 2000 में हार गए।
इस हार के बाद चंपई सोरेन विधानसभा चुनाव हारे नहीं हैं। 2005, 2009, 2014 और 2019 चुनाव में चंपई इसी सीट से विधायक चुने गए।
किसान के बेटे चंपई ने पढ़ाई 10वीं तक की है, मगर झारखंड की राजनीति में वो किसी से पीछे नहीं हैं। चंपई को कोल्हान का टाइगर भी कहा जाता है।
झारखंड बीजेपी अध्यक्ष बाबू लाल मरांडी ने हाल ही में इकोनॉमिक टाइम्स को दिए इंटरव्यू में कहा, ''झारखंड आंदोलन से चंपई सोरेन मज़बूत नेता रहे हैं। अगर वो बीजेपी में शामिल होते हैं तो पार्टी मज़बूत होगी। चंपई का कुछ सीटों पर प्रभाव है। कोल्हान में बीजेपी भी मज़बूत है।''
आदिवासी मुद्दा और सहानुभूति
हेमंत सोरेन को इस साल जेल जाना पड़ा था और इसी दौरान चंपई सोरेन सीएम बने थे। अब हेमंत सोरेन बाहर हैं और फिर से सीएम बन गए हैं। विरोधी दल हेमंत सोरेन को जेल भेजे जाने को आदिवासी अस्मिता से जोड़कर मुद्दा बना रहे हैं। जनता के बीच ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है कि हेमंत सोरेन आदिवासी थे, इस कारण बीजेपी ने जेल भेज दिया।
बाबूलाल मरांडी का कहना है- हेमंत सोरेन बतौर स्वतंत्रता सेनानी जेल नहीं गए थे, वो भ्रष्टाचार के मामले में जेल गए थे। मगर जानकारों का कहना है कि हेमंत सोरेन के मामले में जनता की सहानुभूति जेएमएम के साथ हो सकती है। हालांकि लोकसभा चुनाव के नतीजे कुछ और गवाही देते हैं।
झारखंड में बीजेपी आठ सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी है। जेएमएम 3, कांग्रेस दो और एजेएसयूपी एक सीट जीत सकी थी। बीजेपी का वोट फ़ीसद भी क़रीब 44 फ़ीसदी रहा। वहीं कांग्रेस का वोट फ़ीसद 19 और जेएमएम का 14 फ़ीसद रहा था।
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित