भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार भारत के प्रधानमंत्री रहे। 1996 में पहली बार वो मात्र 13 दिनों के लिए प्रधानमंत्री रहे। वो दूसरी बार 1998 में प्रधानमंत्री बने मगर वो सरकार भी 13 महीने चली। तीसरी बार वो 1999 से 2004 तक प्रधानमंत्री रहे। उनका जन्म 25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में हुआ था। उनका निधन 16 अगस्त 2018 को हुआ।
अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में लोग कहते हैं कि वो बहुत अच्छे आदमी थे, मगर ग़लत पार्टी में थे। पर, ऐसा नहीं है। रॉबिन जेफ़्री जैसे विद्वानों और स्वतंत्र राजनैतिक विश्लेषकों ने ही नहीं, सियासत में वाजपेयी के समकालीन भी उनके बारे में यही राय रखते हैं।
वो 1960 के दशक के वाजपेयी को याद कर के कहते हैं कि उस दौर में वाजपेयी भी तेज़-तर्रार हिंदुत्ववादी नेता हुआ करते थे। वाजपेयी उस दौर में कई बार मुसलमानों के ख़िलाफ़ तीखे बयान दिया करते थे।
अटल बिहारी वाजपेयी वो शख़्सियत थे, जिनकी तरबीयत आरएसएस की पाठशाला और उससे भी पहले आर्य समाज जैसे संगठनों मे हुई थी। उग्र राष्ट्रवाद की बेझिझक नुमाइश की अपनी आदत को वाजपेयी ने कभी नहीं छोड़ा।
हालांकि, अटल, जैसे-जैसे दिल्ली और भारतीय संसद की राजनीति में मंझते गए, वैसे-वैसे उन्होंने अपनी उग्र राष्ट्रवादी छवि को ढंकने-दबने दिया।
हमें याद रखना चाहिए कि जितना कोई सियासी शख़्सियत संसद पर असर डालती है, संसद उससे कहीं ज़्यादा असरदार रोल किसी राजनेता का किरदार गढ़ने में अदा करती है।
युवावस्था में ही दिल्ली पहुंच गए थे वाजपेयी
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पहले ग़ैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया था। आज जो 'लुटिएंस ज़ोन' वाली दिल्ली सियासी गाली बन गई है, वाजपेयी उसी की उपज थे। उन्होंने एक सांसद के तौर पर 1957 से लेकर 2004 तक लुटिएंस ज़ोन वाला सियासी जीवन ही जिया।
हां, इस दौरान वो 1962 और 1984 में दो बार चुनाव हारे भी थे। लेकिन, तब भी वाजपेयी, राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंच गए थे।
मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेहद पकी हुई उम्र यानी 63 बरस की अवस्था में दिल्ली की संसदीय राजनीति में दाख़िल हुए।
मोदी के मुक़ाबले, अटल बिहारी वाजपेयी तो उम्र के तीसरे दशक के दौरान ही राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र यानी दिल्ली पहुंच गए थे।
जहां मोदी अपने सियासी करियर के एक बड़े हिस्से में राज्य स्तरीय नेता रहे थे और उन्होंने क़रीब 13 साल राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर बिताए।
वहीं, वाजपेयी युवावस्था में ही दिल्ली की दिलकश बौद्धिक और कुलीन लोगों की मंडली का हिस्सा बन गए थे।
अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार 1953 में लोकसभा का उप-चुनाव लड़ा था। मगर, उस चुनाव में अटल हार गए थे। चार साल बाद हुए 1957 के आम चुनावों में वाजपेयी ने तीन सीटों-बलरामपुर, मथुरा और लखनऊ से क़िस्मत आज़माई थी।
बलरामपुर की जनता ने वाजपेयी को संसद में दाख़िले का टिकट दे दिया था।
मोदी और वाजपेयी- समान विचारधारा, अलग रवैया
मोदी और वाजपेयी की तुलना करें, तो, दोनों ने शुरुआती जीवन में आरएसएस की शाखाओं में उसकी विचारधारा की तालीम पायी थी।
मोदी के पिता चाय बेचते थे, तो, वाजपेयी के पिता प्राइमरी स्कूल मास्टर थे। दोनों ही नेताओं ने सियासत में अपनी जगह, शानदार भाषण कला की वजह से बनाई।
हालांकि मोदी और वाजपेयी के बोलने का अंदाज़ अलहदा है, मगर दोनों ने मुस्लिमों के ख़िलाफ़ सख़्त रवैये से अपनी सियासी ज़मीन तैयार की।
वाजपेयी ने अलग ही दौर में राजनीति की शुरुआत की थी। ये भारत के इतिहास में शानदार संसदीय परंपरा वाला दौर था। उस दौर की संसदीय राजनीति के ज़्यादातर किरदार बेहद उदारवादी थे।
देश में क़ानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था यानी संसद ने वाजपेयी को उनके सियासी करियर के शुरुआती दिनों में ही अपनी पार्टी की कमजोरियों को समझने और उनसे पार पाने का मंच मुहैया कराया था।
हक़ीक़त ये है कि वाजपेयी अपने छात्र जीवन में वामपंथ की तरफ़ भी आकर्षित हुए थे। पिछली सदी के पांचवें दशक तक तो साम्यवाद विश्व की प्रमुख सियासी विचारधाराओं मे से एक था।
1945 में हिटलर की अगुवाई वाले जर्मनी की विश्व युद्ध में हार के बाद दुनिया के बहुत से युवा साम्यवाद से बेहद प्रभावित हुए थे। यही वजह है कि वाजपेयी भी बदलाव के लिए ज़हनी तौर पर तैयार थे।
संसद के कद्दावर नेताओं के खुले मिज़ाज ने वाजपेयी पर भी गहरा असर डाला। फिर, देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की अपने कट्टर विरोधियों, जिनमें वाजपेयी भी थे, के प्रति सहिष्णु और दयालु भाव ने भी वाजपेयी पर गहरा असर डाला।
यही वजह रही कि संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले एक कट्टर युवा नेता वाजपेयी सहिष्णु राजनीति के पथ पर आगे बढ़े।
उदारवादी भी थे, तो हिंदुत्ववादी सियासत के समर्थक भी
अटल बिहारी वाजपेयी बहुत जल्द एक साथ दो नावों पर सवार होने की राजनीति करने लगे थे। एक तरफ़ तो वो नेहरू के उदारवाद के हामी थे, वहीं दूसरी तरफ़ वो आरएसएस की हिंदुत्ववादी सियासत के अलंबरदार भी थे।
अब हमें ये नहीं पता कि उन्होंने ऐसा केवल सियासी फ़ायदे के लिए किया या इसकी कोई और वजह थी। वो दौर कांग्रेस के सियासी दबदबे का था।
ऐसे में शायद वाजपेयी को यही तरीक़ा ठीक लगा, जिसके ज़रिए वो संघ की विचारधारा से इत्तेफ़ाक़ न रखने वालों को अपने पाले में ला सकें।
लेकिन, वाजपेयी की इस कोशिश का नतीजा ये हुआ कि दक्षिणपंथी राजनीति, भारतीयों के एक बड़े तबके को रास आने लगी।
वाजपेयी को इस बात का श्रेय ज़रूर दिया जाना चाहिए कि वो राजनीति में हर तरह के प्रयोग के लिए तैयार थे।
उन्होंने भारतीय राजनीति में उग्र राष्ट्रवाद की भी वक़ालत की। और बीजेपी को कांग्रेस के लोकतांत्रिक विकल्प के तौर पर भी पेश किया।
1979 में वाजपेयी ने एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने हिंदुत्व की जगह भारतीयता के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया। भारतीयता वो छतरी थी, जिसके साये तले अलग-अलग धर्मों के लोग आ सकते थे और एक नए राजनीतिक प्रयोग को समर्थन दे सकते थे।
उस वक़्त भी संघ को पता था कि वाजपेयी के चेहरे की कितनी अहमियत है। या फिर जैसा कि आरएसएस विचारक गोविंदाचार्य ने बाद के दिनों में कहा था कि वाजपेयी मुखौटा हैं।
संघ परिवार को उन जैसे मुखौटे की सख़्त तलब थी, ताकि वो एक हिंदूवादी राष्ट्रवादी पार्टी के अगुवा बनें। क्योंकि उस वक़्त बीजेपी की स्वीकार्यता, आज के मुक़ाबले बहुत कम थी।
कई बार भड़काऊ भाषण दिए
बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जो ये कहते हैं कि वाजपेयी, ता-उम्र संघ की कट्टर राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति समर्पित रहे। वो बहुत शातिराना तरीक़े से राम मंदिर के लिए हो रहे आंदोलन से ख़ुद को अलग किए रहे। बाद में, 2002 में जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब गुजरात में दंगे हुए।
कुछ इतिहासकार ये मानते हैं कि वाजपेयी कट्टर हिंदुत्व को लेकर आलोचना से इसलिए बच गए, क्योंकि तमाम सियासी दलों में उनके दोस्त थे।
वो समाज के ऊपरी तबके से आते थे। ऊंची जाति का होना वाजपेयी के लिए निंदा से बचाने वाला कवच बन गया।
ये हक़ीक़त है कि वाजपेयी ने कट्टर हिंदुत्व के सियासी मैदान में भी सैर की। पर, पहले जनसंघ और बाद में बीजेपी में वाजपेयी, हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन के उदारवादी चेहरे भी बने रहे।
ये कहा जाता है कि वाजपेयी ने 1983 में असम के नेल्ली में दंगों से ठीक पहले 'बाहरी' लोगों के बारे में बेहद भड़काऊ भाषण दिया था।
इसके लिए अटल को 1990 के दशक में भी लोकसभा में सियासी हमले झेलने पड़े थे। इससे बहुत पहले 14 मई 1970 को वाजपेयी को लोकसभा में उस वक़्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ तीखे बयानों को लेकर, चुनौती दी थी।
उस साल भिवंडी में दंगों के बाद वाजपेयी ने संसद में कहा था कि मुसलमान दिनों-दिन सांप्रदायिक होते जा रहे हैं। इसका नतीजा ये हो रहा है कि हिंदू भी मुसलमानों के आक्रामक रवैये का जवाब उग्र तरीक़े से दे रहे हैं।
इंदिरा गांधी ने ये कह कर वाजपेयी का विरोध किया था कि दंगों के पीछे जनसंघ और आरएसएस का हाथ है, जिनकी वजह से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है।
इंदिरा गांधी ने पीठासीन अधिकारी से ये भी अपील की थी कि वाजपेयी के संसद में दिए गए बयान को सदन की कार्यवाही से न निकाल जाए, क्योंकि उनके बयान से 'उग्र फ़ासीवादी सोच' उजागर हुई है।
इंदिरा गांधी ने ये भी कहा था कि उन्हें इस बात की ख़ुशी है कि वाजपेयी की सियासी हक़ीक़त उजागर हो गई है।
जब कहा 'ज़मीन को समतल किया जाना ज़रूरी है'
इसके बाद 5 दिसंबर 1992 को वाजपेयी लखनऊ के अमीनाबाद में आरएसएस के कारसेवकों मिले थे।
उन्होंने कारसेवकों की उत्साही भीड़ को संबोधित करते हुए चुटीले अंदाज़ में कहा था कि अयोध्या में पूजा-पाठ के लिए 'ज़मीन को समतल किया जाना ज़रूरी है।'
इससे साफ़ है कि वो अलग-अलग तबके के लोगों से अलग-अलग तरह से बातें करते थे। इससे उनकी शातिराना सियासत भी उजागर होती है और किसी से टकराव न चाहने की आदत का भी पता चलता है।
उस दिन भाषण देने के बाद वो लखनऊ से रवाना हो गए थे और अयोध्या नहीं गए थे। बाद में यानी 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचा ढहा दिया गया था।
उनके लखनऊ से लौट आने को सियासी विरोधी एक शातिर चाल मानते हैं, ताकि उनकी मध्यमार्गी छवि बनी रहे।
वाजपेयी की नरमपंथी छवि संघ के बहुत काम आई। विवादित ढांचा ढहाने के बाद जब बीजेपी के सभी बड़े नेता गिरफ़्तार हो गए थे और कई राज्यों में पार्टी की सरकारें बर्ख़ास्त कर दी गई थीं, तब वाजपेयी ने पार्टी के लिए मसीहा का रोल निभाया था।
अटल की अगुवाई में पार्टी ने बाद के दिनों में 'लोकतंत्र की हत्या' के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी।
हालांकि अपने करियर के आख़िरी दिनों में वाजपेयी को अपनी पार्टी के भीतर से ही चुनौतियां मिलने लगी थी। पार्टी के युवा नेता, वाजपेयी के आदर्श रहे नेहरू को हौव्वा बताने लगे थे।
बना लिया था मोदी को हटाने का मन
2002 में गुजरात में मुस्लिम विरोधी दंगों के बाद, वाजपेयी ने अप्रैल 2002 में गोवा में पार्टी की बैठक में ख़्वाहिश जताई थी कि मोदी मुख्यमंत्री का पद छोड़ दें। लेकिन, आडवाणी, मोदी और दूसरे नेताओ ने वाजपेयी की कोशिशों को नाकाम कर दिया था।
बीजेपी की बैठक की शुरुआत होते ही मोदी ने बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में इस्तीफ़ा देने का इरादा ज़ाहिर किया। लेकिन, बैठक के प्रतिभागियों ने मोदी के इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया।
वाजपेयी ने दिल्ली से गोवा जाते हुए विमान में ही मोदी को हटाने का मन बना लिया था, ताकि गठबंधन के अपने सहयोगियों की नाराज़गी दूर कर सकें और अपनी उदारवादी छवि को भी बचा लें।
लेकिन, पार्टी की बैठक में मोदी के समर्थन का माहौल देखकर उन्होंने अपने इरादे को दफ़्न कर दिया।
यहां तक कि आक्रामक पार्टी सहयोगियों को ख़ुश करने के लिए वाजपेयी ने उस बैठक के आख़िरी दिन मुसलमानों को काफ़ी बुरा-भला कहा और आरोप लगाया कि मुसलमान दूसरे समुदाय के लोगों के साथ नहीं रह सकते।
इसके बावजूद लोगों के बीच कवि हृदय वाजपेयी कि छवि वैसी ही बनी रही। पूर्व और मौजूदा कट्टर हिंदूवादी नेताओ के उलट, वाजपेयी ऐसे प्रधानमंत्री बन गए, जिन्हें जनता के एक बड़े तबके का प्यार और सम्मान मिला।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वाजपेयी राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी थे। उनहोंने राजनीति में मोहब्बत और जज़्बातों की अहमियत का अंदाज़ा था और वो वक़्त पड़ने पर इनका बख़ूबी मुजाहिरा भी करते थे।
भाषण कला के कारण मिला प्यार
वाजपेयी की भाषण कला की वजह से ही कश्मीर में बहुत से लोग उन्हें सूफ़ी संत कहते थे। उन्होंने जनता से एक राब्ता क़ायम कर लिया था।
इसकी बड़ी वजह ये थी कि उन्होंने उस आंदोलन की स्वीकार्यता बढ़ाई, जिस विचारधारा में वो ख़ुद पले-बढ़े थे। लेकिन अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए वाजपेयी ने अपने सियासी विरोधियों के नुस्खों पर अमल किया।
इसमें अचरज नहीं होना चाहिए कि वाजपेयी को उन के कट्टर वैचारिक विरोधियों से भी तारीफ़ मिली। वाजपेयी के मुरीदों में कम्युनिस्ट भी शामिल थे और सीएन अन्नादुरै जैसे कद्दावर तमिल नेता भी।
1965 में जब भाषा के सवाल पर संसद में बहस चल रही थी, तो अन्ना ने कहा था कि, "हिंदी को लेकर हमारा विरोध क्यों है? मैं इसे साफ़ शब्दों में बयां करना चाहता हूं। हम किसी भी भाषा के ख़िलाफ़ नहीं हैं। ख़ास तौर से जब मैं अपने दोस्त श्रीमान वाजपेयी को बोलते हुए सुनता हूं तो मुझे लगता है कि हिंदी तो बहुत मीठी ज़बान है।"
लेकिन, अब जबकि लोकसभा में अपने बहुमत की वजह से बीजेपी बहुत आक्रामक हो उठी है और नए-नए इलाक़ों में विस्तार कर रही है, तो वाजपेयी एक राष्ट्रीय प्रतीक बन गए हैं। जबकि वाजपेयी ब्रांड राजनीति को उनकी पार्टी की नई पीढ़ी ने तिलांजलि दे दी है।
एक और मोर्चे ऐसा है जिसमें वाजपेयी की उपलब्धियों का कोई मुक़ाबला नहीं। प्रधानमंत्री मोदी अक्सर कहते रहते हैं कि पुराने दौर में पश्चिमी देश भारत से संबंध को लेकर हिचकिचाहट रखते थे, जो अब बीते दौर की बात हो चुकी है।
हक़ीक़त ये है कि, पश्चिमी देशों की ये हिचकिचाहट उस वक़्त दूर होनी शुरू हुई थी, जब वाजपेयी सत्ता में थे।
उन्होंने आर्थिक उदारीकरण को दोबारा रफ़्तार दी थी। वाजपेयी देश में मोबाइल क्रांति के जन्मदाता थे। उन्होंने पाकिस्तान और दूसरे देशों से संबंध बेहतर करने के लिए लगातार कोशिशें कीं।
लेकिन, पीएम के तौर पर उनकी सब से बड़ी उपलब्धि रही, देश में बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे के विकास से राष्ट्र का पुनर्निर्माण।
शायद ये वाजपेयी की अच्छी क़िस्मत ही थी कि वो सही वक़्त पर सही जगह पर थे। वो ख़ुशक़िस्मत थे क्योंकि उन्होंने पूर्णायु पायी।
देश की जनता का एक बड़ा तबका वाजपेयी के आख़िरी दिनों तक उनका मुरीद रहा। आज जबकि वाजपेयी के सियासी वारिसों की कथनी और करनी उनसे बिल्कुल अलग दिखती है, तो वाजपेयी का आभामंडल और भी बढ़ गया है।
(एनपी उल्लेख, 'द अनटोल्ड वाजपेयी: पॉलिटिशियन एंड पाराडॉक्स' के लेखक हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं।)