भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साल 2019 में 25 और 26 अक्टूबर को अज़रबैजान के बाकू में आयोजित गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नॉन एलाइनमेंट मूवमेंट यानी नाम) के 19वें समिट में शामिल नहीं हुए थे। इससे पहले वह 2016 में भी वेनेज़ुएला में नाम के 18वें समिट में शामिल नहीं हुए थे। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के इन दोनों समिट में भारत की ओर से उपराष्ट्रपति गए थे।
2016 में वेनेज़ुएला समिट में भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और 2019 में बाकू समिट में तत्कालीन उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के समिट में पीएम मोदी के शरीक नहीं होने को निर्णायक क़दम के रूप में देखा गया था क्योंकि भारत नाम का संस्थापक सदस्य रहा था।
1961 में नाम समिट शुरू होने के बाद से भारत के सभी प्रधानमंत्री इसमें शरीक हुए हैं। अपवाद स्वरूप 1979 में चौधरी चरण सिंह केयरटेकर प्रधानमंत्री थे और वे इसमें शरीक नहीं हो पाए थे। लेकिन नरेंद्र मोदी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार के मुखिया हैं और उन्होंने नाम में शामिल होने की परंपरा तोड़ी थी।
नरेंद्र मोदी के नाम समिट में नहीं जाने को भारत की विदेशी नीति में नेहरू युगीन विरासत को बदलने के तौर पर भी देखा गया। लेकिन क्या ऐसा है कि नरेंद्री मोदी की विदेश नीति गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत से अलग हो चुकी है?
गुटनिरपेक्ष आंदोलन शीत युद्ध के दौरान अस्तित्व में आया था। इसका मुख्य मक़सद था, शीत युद्ध में अमेरिका और सोवियत यूनियन के नेतृत्व वाली दो ध्रुवीय दुनिया से अलग उस विचार को स्थापित करना कि बड़ी संख्या में वैसे देश भी हैं जो किसी खेमे का हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने दो महाशक्तियों के दबाव को ख़ारिज करने का साहस दिखाया था। पिछले साल 24 फ़रवरी को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के साथ जंग की शुरुआत की थी और यह अब भी जारी है। कहा जा रहा है कि शीत युद्ध ख़त्म होने के बाद एक बार फिर से महाशक्तियों के टकराव का दौर वापस आ गया है।
एक बार फिर से तीसरी दुनिया के देशों पर दबाव है कि वे रूस के साथ रहें या फिर यूक्रेन को मदद कर रहे अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी खेमे के साथ। भारत पर भी अमेरिका का दबाव था कि वह रूस का विरोध करे लेकिन रूस भारत का पारंपरिक सहयोगी रहा है।
मोदी सरकार ने ऐसी स्थिति में न तो अमेरिकी दबाव के सामने झुकते हुए रूस से दोस्ती पर आंच आने दी और न ही यूक्रेन पर हमले के मामले में रूस का समर्थन किया।
कई आलोचकों ने कहा कि एक तरफ़ मोदी गुटनिरपेक्ष आंदोलन की विरासत को किनारे करने पर तुले हुए हैं और दूसरी तरफ़ मुश्किल स्थिति में उसी नीति को अपना लेते हैं। इस बीच भारत 12 और 13 जनवरी को 'वॉइस ऑफ द ग्लोबल साउथ समिट' का आयोजन करने जा रहा है।
भारत ने इसमें 120 देशों को आमंत्रित किया है। यह समिट वर्चुअल होगा। इसमें बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना और श्रीलंका के राष्ट्रपति रनिल विक्रमसिंघे समेत दुनिया और बड़े नेता शामिल हो सकते हैं। इस समिट की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे।
ग्लोबल साउथ क्या है?
'ग्लोबल साउथ' फ्रेज व्यापक रूप से लातिन अमेरिका, एशिया, अफ़्रीका और ओसिआनिया के इलाक़ों के लिए किया जाता है। थर्ड वर्ल्ड यानी तीसरी दुनिया को भी ग्लोबल साउथ के रूप में ही देखा जाता है। दूसरे शब्दों में यूरोप और उत्तरी अमेरिका को छोड़ बाक़ी इलाक़ों को ग्लोबल साउथ में रखा जाता है।
ग्लोबल साउथ के ज़्यादातर मुल्क कम आय और राजनतिक-सांस्कृतिक रूप से हाशिए के देश हैं। यह भी कहा जाता है कि ग्लोबल साउथ फ्रेज का इस्तेमाल प्रगति या सांस्कृतिक विषमता से ध्यान हटाकर भूराजनीतिक संबंधों की ताक़त पर केंद्रित करने के लिए किया जाता है।
वैश्विक विषमता की व्याख्या के लिए समाजविज्ञान की अपनी समझ होती है। ग्लोबल साउथ का बड़ा इलाक़ा यूरोप का उपनिवेश रहा है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नॉर्थ और साउथ के बीच की खाई हमेशा से रही है।
ग्लोबल साउथ में विकासशील और अतीत में उपनिवेश रहे देश शामिल हैं और इनका टकराव औद्योगिक शक्ति वाले देशों से रहा है। चीन और जापान को ग्लोबल साउथ में नहीं गिना जाता है। ग्लोबल साउथ में वही देश शामिल हैं, जो गुटनिरपेक्ष में शामिल रहे हैं।
भारत यूक्रेन संकट के बाद ग्लोबल साउथ को लेकर उसी टोन में बात कर रहा है, जो बातें गुटनिरपेक्ष नीति में लंबे समय से कही जाती रही है।
क्या मोदी नाम बदलकर गुटनिरेपक्षता की ओर यूटर्न ले रहे हैं? जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में मध्य एशिया और रूसी अध्ययन संस्थान में असोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ। राजन कुमार कहते हैं, ''मोदी का पहला कार्यकाल देखें तो ऐसा ही लगा था कि वह गुटनिरपेक्षता से पिंड छुड़ा रहे हैं। इसे तब और बल मिला जब मोदी गुटनिरपेक्ष आंदोलन के दो-दो समिट में शामिल नहीं हुए। अमेरिका में हाउडी मोदी और ट्रंप के भारत आने से लगा था कि मोदी यूएस की ओर ज़्यादा झुक रहे हैं।''
''2021 में अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को वापस बुलाने का फ़ैसला किया तो भारत को भनक तक नहीं लगी थी। अमेरिकी सैनिकों के जाने के बाद तालिबान ने 2021 में 15 अगस्त को अफ़ग़ानिस्तान की कमान अपने हाथ में ले ली थी। अमेरिका ने इतना बड़ा फ़ैसला लिया लेकिन भारत से ज़िक्र तक नहीं किया था। भारत कई तरह के हित तालिबान के आने के बाद दाँव पर लग गए।''
डॉ राजन कुमार कहते हैं, ''बाइडन प्रशासन के इस रुख़ से मोदी सरकार आश्वस्त हो गई कि अमेरिका को केवल अपने हितों की चिंता है और वह इसके लिए किसी भी हद तक जा सकता है। इसके बाद पिछले साल 24 फ़रवरी को रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तो हालात और तेज़ी से बदले।''
''अमेरिका ने भारत पर दबाव डाला कि वह यूक्रेन के पक्ष में आए और रूस के ख़िलाफ़ बोले। भारत के लिए ऐसा करना बिल्कुल आसान नहीं था। रूस भारत का आजमाया हुआ पुराना सहयोगी है। इस जटिल स्थिति से निकलने के लिए भारत ने गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत का सहारा लिया। अब मोदी सरकार नॉन अलाइनमेंट की नीति को ही मल्टी अलाइनमेंट कह रही है। अगर ग्लोबल साउथ समिट को गुटनिरपेक्ष आंदोलन समिट कह दें तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। लेकिन हर सरकार कोशिश करती है कि चीज़ें कम से कम बाहर से नई दिखें।''
सुपरपावर का भी ज़ोर नहीं : यूक्रेन और रूस में युद्ध के बाद से ग्लोबल साउथ के देशों पर एक किस्म का दबाव था कि वे यूक्रेन को लेकर अमेरिका के साथ आएँ और रूस चाहता था कि अमेरिकी नेतृत्व को चुनौती देने के लिए उसके साथ आएँ।
अमेरिका ने इसके लिए लोकतंत्र की दुहाई दी और इस तरह से पेश किया कि एक तानाशाही शासन वाले मुल्क (रूस) ने लोकतांत्रिक देश (यूक्रेन) पर हमला किया है। ऐसे में सारे लोकतांत्रिक देशों को यूक्रेन के पक्ष में खड़ा होना चाहिए।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है और उसने इस तर्क को सिरे ख़ारिज कर दिया। भारत के विदेश मंत्री ने इस तर्क के सहारे पश्चिम को ही घेर लिया।
पिछले साल अक्तूबर महीने में जयशंकर ने ऑस्ट्रेलिया में वहाँ की विदेश मंत्री पेनी वॉन्ग के सामने ही कहा था, ''रूस के साथ भारत के संबंध गहरे होने के कई कारण हैं। कई दशकों तक पश्चिमी देशों ने भारत को हथियार नहीं दिया और हमारे पड़ोसी, जहाँ सैन्य तानाशाह था, उसे हथियार मिलता रहा। सैन्य तानाशाह वाला पड़ोसी पश्चिम का पसंदीदा पार्टनर रहा।''
लेकिन बात केवल भारत की नहीं है। भारत की तरह मिडिल पावर वाले कई देशों ने अमेरिका की नहीं सुनी और अपने हितों को प्राथमिकता दी।
तुर्की, सऊदी अरब, यूएई और इंडोनेशिया उन मिडिल पावर में शामिल हैं। तुर्की और भारत ने यूक्रेन पर रूसी हमले से असहमति जताई लेकिन रूस के ख़िलाफ़ पश्चिम के प्रतिबंधों से ख़ुद को अलग रखा। इसके बावजूद रूस और अमेरिका ने दोनों देशों से रिश्ते सामान्य रखे। तुर्की और भारत को इस बात की इजाज़त मिली कि वे इस टकराव से ख़ुद को दूर रखें।
मिडिल पावर छाए : कहा जा रहा है कि 2022 में मिडिल पावर वाले देशों ने विदेश नीति के मोर्चे पर अपनी स्वतंत्रता और हितों से कोई समझौता नहीं किया। तुर्की, भारत, सऊदी अरब और इंडोनेशिया जैसे देशों ने वैश्विक स्तर पर अपने प्रभाव का विस्तार किया और ये किसी के दबाव में झुके नहीं।
पिछली सदी में शीत युद्ध के दौरान जो स्थिति थी उससे अभी अलग इसलिए भी है क्योंकि ये मिडिल पावर अब एक आर्थिक ताक़त के रूप में उभरे हैं और अब ये किसी सुपरपावर के मातहत रहने को तैयार नहीं हैं।
भारत दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। भारत का रूस से तेल आयात यूक्रेन संकट के बाद से नाटकीय रूप से बढ़ गया है। भारत इस बात से तनिक भी नहीं डरा कि रूस से तेल ख़रीदने के कारण पश्चिम नाराज़ हो जाएगा या पलटवार करेगा।
यही नहीं इससे पहले भारत को रूस से एस-400 एंटी-एयरक्राफ्ट मिसाइल सिस्टम ख़रीदने पर अमेरिका ने प्रतिबंध की चेतावनी दी थी।
2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रूस के कथित हस्तक्षेप करने के मामले में उसे सज़ा देने के लिए 2017 में काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरिज़ थ्रू सैंक्शन ऐक्ट (CAATSA) पास किया गया था।
इसके तहत जो भी देश रूस से सैन्य उपकरण ख़रीदेगा, उस पर प्रतिबंध लगाने का प्रावधान है। भारत ने अमेरिका की बात नहीं मानी और अमेरिका ने नियम होने के बावजूद कोई प्रतिबंध नहीं लगाया। जब पूरी दुनिया में महंगाई बढ़ रही थी तो सऊदी अरब ने तेल का उत्पादन कम कर दिया था। इसके अलावा सऊदी अरब ने चीन से कई समझौते भी किए।
इतना कुछ होने के बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अमेरिकी कांग्रेस में यमन को लेकर सऊदी के ख़िलाफ़ प्रस्ताव आया तो उसे रोकने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया।
कहा जा रहा है कि अब मिडिल पावर मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में बिना किसी खेमे में शामिल हुए अपने हितों की रक्षा कर रहे हैं।
तुर्की का सख़्त रुख़ : तुर्की नेटो का सदस्य है, इसके बावजूद रूस को लेकर उसका रुख़ नेटो की आधिकारिक लाइन से बिल्कुल अलग है। पूरा नेटो रूस के ख़िलाफ़ प्रतिबंध में शामिल है लेकिन तुर्की ने शामिल होने से इनकार कर दिया।
तुर्की ने फिनलैंड और स्वीडन को नेटो में शामिल होने को लेकर कई शर्तें लगा रखी हैं। इसके बावजूद अमेरिका और यूरोप तुर्की के ख़िलाफ़ खुलकर नहीं बोल रहे हैं।
कई विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले कुछ सालों में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बदली है। कहा जा रहा है कि अमेरिका अब मिडिल पावर की स्वायत्तता को स्वीकार करने पर मजबूर हुआ है।
थिंक टैंक क्विन्सी इंस्टिट्यूट के निदेशक सारंग शिदोरे ने लिखा है, ''अमेरिका अपनी नज़रों से दुनिया को जिस तरह से देखता है, वैसा ही बनाना चाहता है। पहले वह अपने खांचे में ख़ुद को फिट करता है और फिर पूरी दुनिया पर थोपने की कोशिश करता है।''
शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत यूनियन अपने लक्ष्यों को लेकर अडिग थे। दोनों पक्ष अपना खेमा बड़ा करना चाहते थे। इसके लिए दोनों बाक़ी दुनिया के देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप भी करते थे। कई बार तो रूस और अमेरिका ने अपने खेमे में लाने के लिए दूसरे देशों में अपनी कठपुतली सरकारें भी बनवाईं।
क्विन्सी इंस्टिट्यूट के नॉन रेजिडेंट फेलो लिंडसे ओ'रोर्के की रिसर्च के अनुसार, शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने गोपनीय ऑपरेशन के ज़रिए कम से कम 26 बार अपनी पसंद की सरकार बनाने में मदद की थी। हालांकि कई बार शीत युद्ध के दौरान भी अमेरिका को मिडिल पावर से चुनौती मिली।
1973 में इसराइल का सीरिया और मिस्र से युद्ध हुआ था। इसे अक्तूबर वॉर भी कहा जाता है। पश्चिम ने इस युद्ध में इसराइल का साथ दिया था। अरब के तेल उत्पादक देशों ने इसराइल को मदद देने की प्रतिक्रिया में पश्चिम में तेल निर्यात बंद कर दिया था। कहा जाता है कि यह पहली बार था जब मिडिल पावर ने अमेरिका को सीधी चुनौती दी थी।
सोवियत यूनियन के बिखरने के बाद भी अमेरिका का रुख़ छोटे देशों को लेकर काफ़ी आक्रामक रहा। 1990 और 2017 के बीच जब एकध्रुवीय दुनिया शबाब पर थी तब अमेरिका ने विदेशों में 130 सैन्य हस्तक्षेप किए।
चीन की नीति हिट : मध्य-पूर्व के कई देशों में अपनी पसंद की सरकार भी बनवाने की कोशिश की। इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका बुरी तरह से नाकाम रहा। अब चीज़ें बदल रही हैं। ग्लोबल साउथ के देश आर्थिक रूप से शक्तिशाली हुए हैं अमेरिका की हर बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन ईरान और वेनेज़ुएला अब भी अमेरिकी प्रतिबंधों से उबर नहीं पा रहे हैं।
हालाँकि अमेरिका के इस रुख़ पर सवाल उठ रहे हैं कि जब दुनिया भर में तेल की क़ीमत बढ़ रही है तो ईरान और वेनेज़ुएला के तेल को मार्केट में क्यों नहीं आने दिया जा रहा है।
चीन की विदेश नीति को ज़्यादा यथार्थवादी माना जाता है। कहा जाता है कि वह किसी भी देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करता है। चीन की इस नीति को आर्थिक सहयोग पूरी दुनिया में बढ़ाने में मददगार माना जाता है। मध्य-पूर्व में जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है, वहाँ भी चीन ने अपना आर्थिक सहयोग बढ़ाया है।
मिडिल पावर वाले जो भी देश प्राकृतिक संसाधन और रणनीतिक लोकेशन के मामले में अहम हैं, वो पश्चिम से आँख से आँख मिलाकर बात कर रहे हैं।
जेएनयू में मध्य एशिया और रूसी अध्ययन संस्थान के प्रोफ़ेसर संजय कुमार पांडे कहते हैं, ''तुर्की ने बहुत ही समझदारी से अपने हितों की रक्षा की है। वह पश्चिम और रूस के बीच संतुलन बनाने में कामयाब रहा है। तुर्की काला सागर से यूक्रेन के अनाज को विदेश में जाने देने का समझौता कराने में कामयाब रहा था। अमेरिकी कांग्रेस में अर्दोआन को लेकर इतना ज़्यादा विरोध था लेकिन उसकी रणनीतिक लोकेशन को कोई भी छोड़ना नहीं चाहता है और अर्दोआन इसका जमकर फ़ायदा उठाते हैं।''
सऊदी अरब रूस और चीन से अपना संबंध मज़बूत करने में कामयाब रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने पत्रकार जमाल खाशोज्जी की हत्या मामले में सऊदी अरब को अलग-थलग करने की बात कही थी लेकिन पिछले साल जुलाई में वह ख़ुद ही सऊदी अरब गए।
अमेरिका ने क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को अमेरिका आने पर जमाल ख़ाशोज्जी मामले में किसी भी क़ानूनी कार्रवाई बचने के लिए छूट दे दी है। पिछले साल फ्रांस ने क्राउन प्रिंस के पेरिस पहुँचने पर ज़ोरदार स्वागत किया था।
पिछले साल नवंबर में बाली में हुए जी-20 समिट से पहले इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो ने रूसी राष्ट्रपति पुतिन से मुलाक़ात की थी और पश्चिम के दबाव के बावजूद उन्हें आने का न्योता दिया था।
अभी जी-20 की अध्यक्षता भारत के पास है और इस साल नवंबर में समिट होना है। कहा जा रहा है कि जी-20 में भारत का एजेंडा ग्लोबल साउथ ही रहेगा।