15/16 जून की उस सर्द रात में पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में तक़रीबन 14,000 फ़ुट ऊंचाई पर हुई चीनी और भारतीय सेना की भिड़ंत में मारे जाने वालों में अधिकतर भारतीय फ़ौजी बिहार रेजिमेंट के थे।
वहां, गलवान घाटी में, तैनात टुकड़ी के कमांडिंग अफ़सर कर्नल बी संतोष बाबू का, जिनको उनके साथी फ़ौजियों और अधिकारियों ने नर्म-ज़बान और सादगी पंसद बताया है, ताल्लुक़ भी इसी रेजीमेंट से था। 'एक कुशल लीडर' बताए जानेवाले कर्नल संतोष की सोमवार को हुई भिड़ंत में मौत हो गई थी।
हालांकि बिहार रेजिमेंट की स्थापना साल 1941 में हुई थी लेकिन भारतीय सेना की वेबसाइट पर इसके संबंध में लिखते हुए 'बंगाल नेटिव इंफ़ैंटरी' का ज़िक्र किया गया है, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में बनाई गई थी।
इंफ़ैंटरी का शाब्दिक अर्थ पैदल सेना है। 1857 विद्रोह के मशहूर सिपाही मंगल पांडेय बंगाल नैटिव इंफ़ैंटरी से थे।
भारत की आज़ादी की पहली लड़ाई बताए जाने वाले, 1857 के विद्रोह में इस रेजिमेंट के सिपाहियों के बड़े पैमाने पर शामिल होने के 'संभावित और सामने मौजूद ख़तरों को भांपते हुए ब्रितानियों ने बिहार बटालियन के सभी अट्ठारह यूनिट्स को समाप्त कर दिया और ये सुनिश्चित किया कि बिहारियों की फ़ौज में भर्ती न की जाए। ये रोक दूसरे विश्व युद्ध के समय ही समाप्त हो पाई।
अपने पहले अवतार - बंगाल नेटिव इंफ़ैंट्री में ब्रितानियों की तरफ़ से बंगाल के नवाब और मराठाओं के ख़िलाफ़ लड़नेवाली फ़ौज ने 1941 के बाद से बर्मा (अब म्यांमार), मलाया (मलय प्रायदीप के कुछ मुल्क और सिंगापुर जो ब्रिटिश क़ब्ज़े में थे) से लेकर 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और 1999 के करगिल जंग में हिस्सा लिया है, जब पाकिस्तानी सेना लद्दाख के करगिल क्षेत्र में घुस आई थी।
भारत ने उस घुसपैठ को ख़त्म करने और अपने इलाक़े को वापस लेने के लिए जो ऑपरेशन विजय शुरू किया था उसमें बड़ी संख्या में इस रेजिमेंट के सिपाही और अधिकारी शामिल थे।
करगिल के बटालिक सेक्टर में जुलाई के शुरुआती दिनों में हुई भीषण जंग के बाद भारतीय फ़ौज ने फ़तह हासिल की, भारतीय फ़ौज '1 बिहार रेजीमेंट को जुबार और थारू पहाड़ियों पर हुई विजय का श्रेय' देती है।
बिहार के राजकीय चिह्न को भारत के राजकीय चिह्न के तौर पर अपनाया
बटालिक की जीत के लिए प्रशस्ति पत्र से लेकर भारत के उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों के ऑपरेशनों में हिस्सा लेने और उसे बेहतर तरीक़े से निभाने के लिए वीर चक्र और अशोक चक्र जैसे मेडल हासिल कर चुकी बिहार रेजिमेंट के कई कार्यों जैसे बांग्लादेश की आज़ादी के समय हुए अखौरा के युद्ध के लिए आज भी याद किया जाता है।
भारत-बांग्लादेश की सीमा के पास मौजूद अखौरा में आज भी वागा-अटारी की तरह फ़्लैग सेरेमनी होती है जिसमें बीएसएफ़ और बॉर्डर गार्ड्स बांग्लादेश शामिल होते हैं।
साल 2008 के मुंबई हमले में हमलावरों की गोलियों का शिकार हुए संदीप उन्नीकृष्णन, जो बिहार रेजिमेंट से संबंधित रह चुके थे, इस टुकड़ी की बहादुरी की कहानियों को लोगों की ज़बान और दिल में ज़िंदा रखा है।
और भी कहानियां हैं, 15 सिंतबर, 1941 में तैयार की गई इस रेजिमेंट की, जिसके कमांडिग अफ़सर कैप्टन हबीबुल्लाह ख़ान खटक थे, वो बाद में पाकितानी फ़ौज में मेजर जनरल रहे।
बिहार के गर्वरन सर थॉमस रदरफ़ोर्ड जब साल 1945 में शिलांग के दौरे में बिहार रेजिमेंट के चिह्न से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने कर्नल हबीबुल्लाह ख़ान खटक (तरक्क़ी के बाद) से बिहार सूबे के राजकीय चिह्न के तौर पर इसके इस्तेमाल की इजाज़त माँगी।
मई 1945 में बिहार हुकूमत ने एक राजपत्रित अधिसूचना जारी कर कर्नल एम हबीबुल्ला और समस्त प्रथम बिहार बटालियन का शुक्रिया अदा किया और तीन सिरों वाले अशोक सिंह को बिहार के राजकीय चिह्न के तौर पर अपनाया गया।
आज़ादी के बाद इसी तीन सिरों वाले सिंह को भारत के राजकीय चिह्न के तौर पर अपनाया गया है।