इंदिरा की 'भूल' क्या आज की सियासत के लिए सबक है?

Webdunia
बुधवार, 22 नवंबर 2017 (11:20 IST)
- कुलदीप नैय्यर (वरिष्ठ पत्रकार)
1975 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक याचिका के तहत श्रीमती इंदिरा गांधी को छह साल के लिए चुनाव लड़ने से रोक दिया था। इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ कोर्ट ने ग़लत तरीके से चुनाव जीतने के मामले में फ़ैसला सुनाया था। श्रीमती गांधी को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए 14 दिनों का वक़्त दिया गया था।
 
इंदिरा गांधी ने पद से इस्तीफ़ा देने के बजाय आपातकाल की घोषणा करवा दी और सत्ता की बागडोर सीधे अपने हाथों में ले ली थी। बिना किसी अदालती कार्यवाही के संसद से विपक्षी सदस्यों को हिरासत में ले लिया गया। एक लाख से ज़्यादा लोगों को जेल में डाल दिया गया था। इंदिरा गांधी ने ख़ुद को ही क़ानून बना लिया था।
 
इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया था?
शुरुआत में इंदिरा गांधी ने पद छोड़ने का मन बना लिया था, लेकिन जगजीवन राम ने इसका कड़ा विरोध किया। उन्हें लगता था कि अगर वो जनता के बीच जाएंगी और एक बार माफ़ी मांग लेंगी तो बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करेंगी। लोग ग़ुस्से में इसलिए थे क्योंकि आपातकाल में अत्याचार सहना पड़ा था। इंदिरा गांधी जिस तरह की राजनीति कर रही थीं उससे वो एक तानाशाह के रूप में सामने आई थीं।
 
हालांकि इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी और रक्षा मंत्री बंसीलाल सरकार को अपनी निजी जागीर की तरह चला रहे थे। उन्हें आलोचना बिल्कुल बर्दाश्त नहीं थी। इंदिरा गांधी सामान्य तौर पर ऐसे दिखाती थीं मानो वे बिल्कुल भोली हैं और जो कुछ हो रहा है उससे बेख़बर हैं। हालात इतने ख़राब हो गए थे कि लोगों को गिरफ़्तार करने के लिए ब्लैंक वॉरंट का इस्तेमाल किया जा रहा था।
 
प्रतिशोध की भावना
इंदिरा गांधी में प्रतिशोध की भावना की सारी सीमाएं टूट गई थीं। विरोधियों के घरों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों में छापमारी की जा रही थी। इनमें राजनीतिक दलों के नेता भी थे। यहां तक कि जिन फ़िल्मों से उनका कोई नुक़सान नहीं होना था उन्हें भी प्रतिबंधित कर दिया गया। 'आंधी' फ़िल्म में एक तानाशाह शासक का चित्रण किया गया था, उस पर रोक लगा दी गई।
 
अगर आज की पीढ़ी को आपातकाल के बारे में बताऊं तो मैं उस बात को फिर से दोहराऊंगा कि आज़ादी की रक्षा के लिए आंतरिक सतर्कता ज़रूरी है। जब भारत को आज़ाद हुए 70 साल हो गए हैं, ऐसे में यह सतर्कता आज की तारीख़ में और ज़रूरी है। किसी को यह आशंका नहीं थी कि एक प्रधानमंत्री अपने ख़िलाफ़ हाई कोर्ट के फ़ैसले के कारण त्यागपत्र देने के बजाय संविधान को निलंबित कर देंगी।
 
पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अक्सर कहते थे कि 'सिट लाइट, नॉट टाइट' मतलब कुर्सी को लेकर ज़्यादा आसक्त मत रहो। यही वजह है कि तमिलनाडु के अरियालुर में एक बड़ी रेल दुर्घटना होने के बाद उन्होंने रेल मंत्री की कुर्सी छोड़ दी थी। ऐसा उन्होंने रेल दुर्घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए किया था।
 
आज की तारीख़ में इस तरह की मिसाल विरले ही देखने को मिलती है। अब भी भारत को दुनिया के उन देशों में देखा जाता है जहां मूल्य बचे हुए हैं। संकीर्णता कोई जवाब नहीं है। गांधी ने जो कहा था उसे मुल्क को समझना चाहिए। उन्होंने कहा था- विषमता लोगों को निराशा में धकेलती है।
 
अमीरों के लिए आज़ादी?
अभी आज़ादी के संघर्ष के दिनों में जाने का कोई मतलब नहीं है। अंग्रेज़ों को निकाल बाहर करने के लिए सभी ने लड़ाई लड़ी। मैं उम्मीद करता हूं कि इसी माद्दा से देश की ग़रीबी को दूर किया जाएगा। अगर ऐसा नहीं होता है तो इसका मतलब यही हुआ कि आज़ादी केवल संपन्न लोगों के लिए थी।
 
अगर कुछ दशक पहले मात्र एक व्यक्ति का शासन था तो वो इंदिरा गांधी थीं और आज की तारीख़ में नरेंद्र मोदी हैं। ज़्यादातर अख़बारों और टीवी चैनलों ने भी मोदी से सहमति रखने का रास्ता अपना लिया है। अगर ये अपनी राह को लेकर गंभीर नहीं हैं तो श्रीमती गांधी के दौर का ही सामना करना होगा।
 
नरेंद्र मोदी का 'एकल' शासन भविष्य के लिए ख़तरा है। बीजेपी सरकार में कैबिनेट मंत्री या कैबिनेट में संयुक्त रूप से विचार-विमर्श की बात केवल काग़ज़ों पर है। सभी सियासी दलों को पहले जैसी किसी भी आपातकालीन स्थिति बनने के ख़िलाफ़ आवाज़ एक करनी चाहिए। ऐसी सतर्कता ही आपातकाल को रोक सकती है।
 
अरुण जेटली उदार नेता?
इस सरकार में अरुण जेटली जैसे व्यक्ति भी हैं, जिन्हें आपातकाल की निरंकुशता का एहसास है। अरुण जेटली को भी आपातकाल के दौरान जेल की हवा खानी पड़ी थी। जेटली जैसा सोचते हैं उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि आरएसएस उन्हें हांक नहीं सकता है। मुझे लगता है कि आपातकाल देश में फिर से नहीं थोपा जा सकता है क्योंकि जनता पार्टी की सरकार ने संविधान में संशोधन किया था।
 
अभी वैसी स्थिति पैदा की जा सकती है जिसमें कहा जाएगा कि बिना किसी क़ानूनी अनुमोदन के आपातकाल को लागू किया जा सकता है। हालांकि इसमें जनभावना काफ़ी मजबूती से सामने आएगी और आपातकाल को फिर से थोपना संभव नहीं होगा। लोग सड़कों पर विरोध करने उतर जाएंगे और आपातकाल जैसे किसी भी शासन के लिए आसान नहीं होगा।
 
बुनियादी बात यह है कि हमारे इंस्टीट्यूशन में क्या अहम है। यहां तक कि पहले के आपातकाल में जिन ताक़तों का इस्तेमाल किया गया, उसे फिर से उपयोग में लाना आसान नहीं है। हमारे इंस्टीट्यूशन आज भी काफ़ी मजबूत हैं और ये स्वतंत्रता पर पाबंदी की स्थिति में प्रतिरोधक के तौर पर सामने आएंगे। हाल के दिनों में ऐसी मिसालें हैं जिनसे उम्मीद बनती है।
 
कांग्रेस पार्टी ने आज तक माफ़ी नहीं मांगी
युद्ध के बाद के जर्मनी ने हिटलर के अत्याचारों के लिए माफ़ी मांगी थी। यहां तक कि जर्मनी ने इसके लिए हर्जाना भी भरा था। ऐसे अत्याचारों के लिए कोई माफ़ी नहीं दी जा सकती, लेकिन लोगों को सामान्य तौर पर लगता है कि बच्चों को एहसास होगा कि उनके पूर्वजों ने ग़लती सुधारने की कोशिश की थी।
 
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमृतसर स्वर्ण मंदिर गए थे और उन्होंने ब्लूस्टार ऑपरेशन के लिए माफ़ी मांगी थी। इस ऑपरेशन में भारतीय सैनिकों ने मंदिर पर हमला कर सिख लड़ाकों को मारा था। इसमें जनरैल सिंह भिंडरावाले भी शामिल थे। कोई भी देश अपने भीतर अलग देश बनाने की अनुमति नहीं दे सकता।
 
आपातकाल किसी अपराध से कम नहीं था, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने इसके लिए कभी माफ़ी नहीं मांगी। ख़ासकर नेहरू-गांधी ख़ानदान से अफ़सोस का एक शब्द भी नहीं कहा गया। ग़ैर-कांग्रेसी पार्टियों ने इसके विरोध में बयान जारी किया या विरोध प्रदर्शन भी किया, लेकिन कांग्रेस पार्टी आपातकाल पर ख़ामोश ही रही।
 
किसी की बोलने की हिम्मत नहीं होती थी
आख़िर आपातकाल ने दस्तक कैसे दी? इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले को इंदिरा गांधी बर्दाश्त नहीं कर पाई थीं। जहां उन्हें न्यायपालिका के फ़ैसले का सम्मान करना चाहिए था वहां उन्होंने उसी के अधिकारों को कुचल दिया। इंदिरा गाधी ने आदेश दिया था कि कोर्ट सरकार के फ़ैसलों का मूल्यांकन नहीं कर सकती है।
 
आपातकाल के दौरान एक लाख से ज़्यादा लोगों को हिरासत में लिया गया था। तब के अटॉर्नी जनरल नीरेन डे ने कोर्ट में तर्क दिया था कि जीने के अधिकार को भी निरस्त किया जा सकता है। डर का ऐसा माहौल था कि दिल्ली में किसी भी वक़ील को बोलने की हिम्मत नहीं होती थी।
 
मुंबई से सोली सोराबजी और दिल्ली से वीएम थारकुंडे ने ग़ैरक़ानूनी गिरफ़्तारियों के ख़िलाफ़ अदालत में बहस की। मेरी याचिका के पक्ष में इन दोनों ने कोर्ट में दलील दी थी और मैं तीन महीने बाद जेल से रिहा हुआ था।
 
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

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