विपक्ष बार-बार देख चुका है कि बीजेपी को एक ही तरीके से हराया जा सकता है। कैराना, गोरखपुर और फूलपुर से लेकर कर्नाटक तक में विपक्षी एकजुटता का एक ही नतीजा रहा है- बीजेपी की हार। मतलब कि यह कोरी थ्योरी नहीं है, यह पुख़्ता गणित है।
यह सब जानते-समझते हुए भी एकजुट होकर चुनाव लड़ने के विपक्षी मंसूबे सराब (मृगतृष्णा) ही साबित हुए हैं। विपक्षी एकता की राह में नेताओं के निजी स्वार्थ, लालच और अहंकार सबसे बड़े रोड़े हैं। विपक्ष के नेताओं की अति-महत्वाकांक्षा और अपनी कुव्वत के बारे में उनकी गलतफ़हमियां भी कम नहीं हैं।
कुछ अहम राज्यों की चर्चा आगे करेंगे, लेकिन सबसे पहले जेएनयू की बात, जिस कैम्पस से बीजेपी ने राष्ट्रवाद की राजनीति शुरू की थी, उसी यूनिवर्सिटी के छात्र संघ के 2017 के चुनाव में आरएसएस के संगठन एबीवीपी के ख़िलाफ़ विपक्षी एकता का हाल देखने लायक था। बीजेपी की राष्ट्रवाद की राजनीति और उसके विरोध के केंद्र-बिंदु रहे जेएनयू को विपक्षी एकता के टेस्ट केस के तौर पर देखा जाना चाहिए। यह विधायकी और सांसदी की बात नहीं थी, यह सिर्फ़ छात्र संघ का चुनाव था जो वैचारिक लड़ाई के सबसे बड़े मोर्चे में तब्दील हो गया था।
जेएनयू में एबीवीपी का मुकाबला करने के लिए वामपंथी छात्र संगठनों ने लेफ़्ट यूनिटी तो बनाई लेकिन सीपीआई से जुड़े छात्र संगठन एआइएसएफ़ ने इस यूनिटी में शामिल होने की ज़रूरत नहीं समझी। सीपीआई के नेता डी राजा की बेटी अपराजिता लेफ़्ट यूनिटी से अलग चुनाव लड़ीं, बीजेपी की राजनीति से असहमत दलित-आदिवासी छात्रों के संगठन (बापसा) ने भी एकजुटता की ज़रूरत नहीं समझी। यह विपक्षी एकता की एक आसान परीक्षा थी जिसमें वे नाकाम रहे। यह किसी लोभ-लाभ का मामला नहीं था फिर भी बीजेपी विरोधी एकजुट नहीं हो सके, लोकसभा चुनाव तो बहुत बड़ी बात है।
मोदी विरोध की युवा आवाज़ कन्हैया के मामले में यही बात एक बार फिर दिखी, बेगसूराय सीट पर विपक्ष एकता नहीं बना सका और कन्हैया का मुकाबला जितना बीजेपी के गिरिराज सिंह से है, उतना ही मोदी विरोधी आरजेडी के तनवीर हसन से भी। अगर मुकाबला सीधा होता तो कन्हैया की जीत की संभावना ज़्यादा होती, अब बीजेपी विरोधी वोट बंटने से तिकोने मुकाबले में विपक्षी उम्मीदवारों की संभावनाएं भी बंटी हुई हैं।
इसी तरह देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में भी कांग्रेस के गठबंधन से अलग रहने की वजह से मुकाबला तिकोना है। सपा-बसपा-रालोद का गठबंधन तो हो गया है, सीटों का बंटवारा भी, लेकिन कांग्रेस को मिलने वाले वोटों से शायद बीजेपी की मुश्किलें ही कम होंगी।
कांग्रेस-बसपा ने गंवाया मौका
कर्नाटक में जब कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में पूरा विपक्ष इकट्ठा हुआ था, सोनिया-मायावती की गलबहियों वाली तस्वीर देखकर लग रहा था कि मोदी को एकजुट विपक्ष का सामना करना पड़ेगा और जीत की राह उनके लिए आसान नहीं होगी, लेकिन आज पूछा जा रहा है- 'व्हेयर इज़ द जोश?'
यूपी में पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महज दो सीटें मिली थीं जबकि बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी, यह ज़रूर है कि बीएसपी को तकरीबन 20 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि कांग्रेस को सात प्रतिशत। अगर कांग्रेस यूपी में महागठबंधन का हिस्सा होती तो मोदी विरोधी मोर्चा बहुत मज़बूत हो सकता था।
यही नहीं, राजस्थान और मध्य प्रदेश में अगर कांग्रेस-बसपा का गठबंधन होता तो वे बीजेपी से कई ऐसी सीटें छीन सकते थे जहां हार-जीत का अंतर कम है, कांग्रेस-बीएसपी के इन दो बड़े राज्यों के अलग-अलग चुनाव लड़ने का फ़ायदा बीजेपी को ही मिलने वाला है। दोनों पक्ष समझौता न होने के लिए एक-दूसरे को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं।
मोदी के विरोधी और एक-दूसरे के भी
42 सीटों वाले राज्य पश्चिम बंगाल में तीन मोदी विरोधी ताकते हैं- ममता, कांग्रेस और वामपंथी। ममता और वामपंथी एक साथ नहीं आ सकते क्योंकि उनकी लड़ाई काफ़ी ख़ूनी रही है। कांग्रेस और ममता के गठबंधन की संभावना नहीं बनी क्योंकि दीदी कांग्रेस के लिए सीटें छोड़ने को तैयार नहीं हुईं।
अब बची कांग्रेस और सीपीएम के गठबंधन की संभावना, दोनों खुद को बड़ा मोदी विरोधी बताते हैं लेकिन बंगाल में चार सीटें जीतने वाली कांग्रेस और सिर्फ़ दो सीटों वाली सीपीएम बीच कोई तालमेल नहीं हो पाया क्योंकि वामपंथी भी कांग्रेस के लिए सीटें छोड़ने को तैयार नहीं हैं।
राहुल गांधी के वामपंथियों के अंतिम किले केरल से चुनाव लड़ने के फ़ैसले से भी मामला पेचीदा हो गया है। वायनाड कांग्रेस की नज़र में एक सुरक्षित सीट है जहां से वामपंथी नहीं जीतेंगे, वहां पिछले दो चुनाव भी कांग्रेस ने ही जीते थे, यानी कांग्रेस सीपीएम की कोई सीट छीन नहीं रही है लेकिन इस पर सीपीएम ने जिस तरह का विरोध प्रदर्शन किया है वह विचित्र ही है।
मोदी विरोध के मामले में कम्युनिस्ट रवैया अबूझ है। मिसाल के तौर पर सीपीएम ने कर्नाटक के चिकबल्लापुर से कांग्रेस-जेडीएस के साझा उम्मीदवार और वरिष्ठ नेता वीरप्पा मोइली के ख़िलाफ़ अपना उम्मीदवार उतार दिया है, जिसके जीतने की कोई संभावना नहीं है, लेकिन कम्युनिस्ट उम्मीदवार की मौजूदगी से बीजेपी को फ़ायदा हो सकता है क्योंकि मोदी विरोधी वोट बंट जाएंगे।
इसी तरह, कांग्रेस और 'आप' एकजुट होकर लड़ें तो दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और गोवा में बीजेपी को मुश्किल में डाल सकते थे लेकिन ऐसा होने के आसार नहीं दिख रहे हैं, विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतने वाली 'आप' दिल्ली की सात में से 2-3 सीटें कांग्रेस को देकर, उसके बदले में हरियाणा, पंजाब और गोवा में ज़्यादा सीटें चाहती है जिससे कांग्रेस साफ़ इनकार कर चुकी है।
दिल्ली में आप-कांग्रेस के गठबंधन को लेकर जारी 'कभी हां, कभी ना' तो अब मज़ाक ही बन चुका है, बाकी राज्यों में इन दोनों के बीच तालमेल होने के आसार अब तक तो नहीं दिख रहे हैं।
न पिछली हार-जीत से, न मोदी-शाह से सीखा
पौने पांच साल तक साझीदारों को हाशिए पर रखने और नाराज़ करने के बाद, कई राजनीतिक विश्लेषक कहने लगे थे कि इस बार बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन में बात बिगड़ जाएगी लेकिन मोदी-शाह ने समय रहते सारे सौदे पटा लिए।
गठबंधन लेन-देन और बड़े दिल से ही चलते हैं, इस मामले में बीजेपी ने साफ़ तौर पर समझदारी दिखाई। बिहार में नीतीश कुमार को अपनी जीती हुई सीटें तक दे दीं, जबकि नाराज़ चल रही, बात-बात पर बीजेपी पर फ़ब्ती कसने वाली शिव सेना को भी मना लिया। यही नहीं, जनवरी में एनआरसी पर नाराज़ होकर गठबंधन छोड़ने वाली असम गण परिषद (एजीपी) को मार्च में दोबारा एनडीए का हिस्सा बना लिया।
तेलुगू देशम पार्टी ही एक अपवाद है जो आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर एनडीए से अलग हो गई थी, उसे मनाने की कोशिश शायद इसलिए नहीं हुई क्योंकि पार्टी की हालत काफ़ी कमज़ोर दिख रही है। यह कहना ग़लत होगा कि मोदी विरोधी गठबंधन बनाने की कोशिश हर जगह नाकाम रही है, यूपी में सपा-बसपा-रालोद, कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस, महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी और तमिलनाडु में डीएमके-कांग्रेस गठबंधन पुख्ता हैं लेकिन यूपीए ने इसे राष्ट्रव्यापी और मज़बूत बनाने के कई मौके गंवा दिए हैं।
मोदी विरोधी गठबंधन के कई नेता कह रहे हैं कि चुनाव नतीजे आने के बाद विपक्षी गठबंधन अभी के मुकाबले मज़बूत होगा लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद होने वाली जोड़-तोड़ के कौशल में उनका मुकाबला अमित शाह से होगा, इसमें किसे बढ़त हासिल है, सब जानते हैं।
अगर दोनों में से किसी ख़ेमे को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो वाइएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी, टीआरएस के नेता चंद्रशेखर राव या बीजेडी के नवीन पटनायक जैसे खिलाड़ी अचानक अहम हो जाएंगे। जितनी तकरार विपक्षी खेमे में आज देखने को मिल रही है, नतीजे आने के बाद उससे कम होगी, ऐसा कहने का कोई आधार नहीं है।