पाकिस्तान में महात्मा गांधी की मूर्तियां दो जगहों पर हैं। पहली, इस्लामाबाद के पाकिस्तान संग्रहालय में और दूसरी, इस्लामाबाद में ही भारत के उच्चायोग में।
पाकिस्तान संग्रहालय में निश्चित रूप से उनकी मूर्ति कोई सम्मान के भाव से नहीं लगाई गई है। वहां लगी प्रतिमा में वे मोहम्मद अली जिन्ना से बात कर रहे हैं। दरअसल, सितंबर 1944 में इन दोनों नेताओं के बीच भारत की आज़ादी को लेकर मुंबई (तब बम्बई) में कई दौर की बातचीत हुई थी। संग्रहालय में रखी यह मूरत उसी घटना को दिखाती है।
महात्मा गांधी की यदि 30 जनवरी, 1948 को हत्या न हुई होती तो कुछ दिनों बाद वे पाकिस्तान जाने वाले थे। वे लाहौर, रावलपिंडी और कराची जाने की ख़्वाहिश रखते थे। गांधीजी पाकिस्तान की यात्रा इसलिए करना चाहते थे क्योंकि दोनों देशों में बंटवारे के बाद हुई भयंकर हिंसा के बाद सौहार्द का वातावरण बने।
गांधीजी ने कहा भी था कि मैं लाहौर जाना चाहता हूं। मुझे वहां जाने के लिए किसी तरह की सुरक्षा की ज़रूरत नहीं है। मुझे मुसलमानों पर भरोसा है। वे चाहें तो मुझे मार सकते हैं? पर (पाकिस्तान) सरकार मेरे आने पर रोक कैसे लगा सकती है। अगर वह मुझे नहीं आने देना चाहेगी, तो उसे मुझे मारना होगा।'' - (गांधी वांगमय, खंड 96: 7 जुलाई, 1947-26 सितंबर, 1947, पेज 410)।
पाकिस्तान के चोटी के राजनीति विज्ञानी और जिन्ना के जीवनीकार प्रो. इश्तिहाक़ अहमद कहते हैं कि गांधी वास्तव में एक संत जैसी शख़्सियत थे। उन्होंने अपने एक निबंध 'वाय आई कन्सीडर गांधीजी ए महात्मा' (मैं गांधी जी को महात्मा क्यों मानता हूं) में लिखा है, "वे बंटवारे के बाद हुए दंगों को रुकवाने के लिए नोआखाली, कोलकाता, दिल्ली वग़ैरह जाते हैं। वे सबको बचाते हैं। दंगों को शांत करवाते हैं। वे उनके साथ खड़े थे, जिन्हें मारा जा रहा था। उन्होंने उनका मज़हब नहीं देखा था। गांधी के विपरीत जिन्ना ने कभी दंगों को कहीं भी रुकवाने या दंगों से प्रभावित लोगों के घावों पर मरहम लगाने की कोशिश नहीं की। जिन्ना तो कोलकाता में 16 अगस्त, 1946 को 'डायरेक्ट एक्शन' (सीधी कार्रवाई) का आह्वान करते हैं।"
'डायरेक्ट एक्शन' के कारण बंगाल में भड़के दंगों में हज़ारों बेगुनाहों को क़त्ल कर दिया गया। दंगे कोलकाता से नोआखाली और बिहार तक फैल गए थे। उन दंगों को भड़काने वाला तब कहीं नज़र नहीं आ रहा था।
जिन्ना 7 अगस्त, 1947 को जब दिल्ली से कराची के लिए सफ़दरजंग एयरपोर्ट से जा रहे थे, तब भी वहां और आसपास के शहरों में सांप्रदायिक दंगे भड़के हुए थे। पर उन्होंने कभी कहीं जाकर दंगा रुकवाने की कोशिश नहीं की। पहाड़गंज और करोलबाग़ जैसे इलाक़ों में दंगे भड़के हुए थे। उन्होंने पाकिस्तान जाकर भी ये काम नहीं किया।
गांधी को लेकर दो तरह की धारणाएं
पाकिस्तान में गांधी को लेकर मोटे तौर पर दो तरह की धारणांए सामने आती हैं। पंजाब, जो पाकिस्तान की सियासत और सेना में भागीदारी के लिहाज़ से सबसे अहम सूबा है, वहां पर उन्हें एक काइयां क़िस्म के हिन्दू नेता के रूप में ही किताबों में पेश किया जाता रहा।
वहां उन्हें ऐसा नेता बताया जाता रहा जो कम से कम मुसलमानों का हितैषी नहीं था। वहां के पाठ्यक्रमों में उन्हें कांग्रेस के एक औसत नेता के रूप में पेश किया जाता रहा है। पाकिस्तान की बीते 75 सालों की सरकारों ने अधकचरी जानकारियों के आधार पर बनी गांधी की शख़्सियत के साथ न्याय करने की कभी कोशिश नहीं की।
पाकिस्तान के लेखक हारून ख़ालिद एक जगह लिखते हैं, "पंजाब में एक स्कूल की किताब को इसलिए बैन कर दिया गया क्योंकि उसमें गांधी के चित्र और विचार रखे गए थे। किताब पर बैन लगाने वालों की शिक़ायत थी कि गांधी की जगह जिन्ना या इक़बाल के चित्र या विचार क्यों नहीं रखे गए।"
मतलब साफ़ है कि पाकिस्तान में गांधी की उजली छवि रखने पर सरकारी तौर पर मनाही है। अब पाकिस्तान में किस-किस को समझाया जाए कि गांधी को इसलिए मारा गया क्योंकि उनके हत्यारों को लगता था कि वे मुसलमानों या पाकिस्तान के पक्ष में खड़े हो जाते हैं।
लगता है कि पाकिस्तान के अधिकतर लेखक जिनमें इतिहासकार भी शामिल हैं, भांग खाकर गांधी को मुस्लिम विरोधी बताते रहे। ये उस गांधी को हिंदुओं के नेता के रूप में पेश करते हैं जो मारे जाने से तीन दिन पहले दिल्ली में क़ुतुबुउद्दीन बख़्तियार काकी की दरगाह देखने जाते हैं जिसे दंगाइयों ने क्षतिग्रस्त कर दिया था। दरगाह जाकर वे मुसलमानों को भरोसा देते हैं कि उस की क़ायदे से मरम्मत की जाएगी।
वे मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोकते भी हैं। लेकिन पाकिस्तान में उन्हीं गांधी को वहां की पाठ्य पुस्तकों में अछूत माना जाता है, जबकि उनकी प्रार्थना सभाओं में क़ुरान की आयतें ज़रूर पढ़ी जाती थीं।
ख़ैबर पख़्तूनख्वा सूबे में गांधी की दूसरी छवि
वहीं पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रांत के बारे में कहा जा सकता है कि वहां हमेशा गांधीजी के हक़ में माहौल रहा। इसकी संभवत: यह वजह रही कि वह 'सरहदी गांधी' ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का सूबा रहा है।
गांधी और सरहदी गांधी दोनों घनिष्ठ मित्र और सहयोगी थे। गांधी जी ने सरहदी गांधी के साथ 1938 में इस सूबे का दौरा भी किया था। वे पेशावर, बन्नू और मरदान भी गए थे।
बताते चलें कि राजधानी दिल्ली से सटे औद्योगिक शहर फ़रीदाबाद में बन्नू के लोगों को बसाया गया था। इसलिए सरहदी गांधी 1969 में फ़रीदाबाद में अपने लोगों से मिलने गए थे।
बहरहाल, गांधी जी का सरहदी गांधी के सूबे ने तहेदिल से स्वागत किया था। देश के बंटवारे के बाद वहां पर गांधी और सरहदी गांधी के मूल्यों पर चलने वाली अवामी नेशनल पार्टी (एएनपी) सबसे बड़ी और शक्तिशाली सियासी जमात रही।
सीमांत गांधी के पुत्र ख़ान अब्दुल वली ख़ान ने इस पार्टी की स्थापना की थी। वे भी गांधी जी से बार-बार मिले थे। अपने दादा और पिता की तरह इसके मौजूदा नेता अफ़संदयार वली ख़ान भी भारत के मित्र हैं। अफ़संदयार के दादा और पिता ने देश के बंटवारे का कड़ा विरोध किया था।
एनपीए ने हमेशा ही कट्टरवादियों से लोहा लिया। हालांकि फ़िलहाल चिंता की बात यह है कि सरहदी गांधी के सूबे में पिछले विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी को इमरान ख़ान की तहरीक़े इंसाफ़ पार्टी ने शिकस्त दी।
इसराइल-फ़लस्तीन विवाद पर गांधी के विचार
इसराइल-फ़लस्तीन के विवाद पर महात्मा गांधी गहराई से नज़र रख रहे थे। उनका कहना था कि "फ़लस्तीनी जगह उसी तरह अरबों की है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेज़ों का है। यह सही नहीं होगा कि यहूदियों को अरबों पर थोप दिया जाए। बेहतर तो यही होगा कि यहूदी जहां भी पैदा हुए और रह रहे हैं, वहां उनके साथ समता का व्यवहार हो। यदि यहूदियों को फ़लस्तीन की जगह ही चाहिए तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि उन्हें दुनिया की उन सभी जगहों से जबरन हटा दिया जाए, जहां वे आज हैं? या कि वे अपने मनमौज के लिए अपना दो घर चाहते हैं?"
और वही गांधी भारत सरकार से पाकिस्तान के हिस्से के 55 करोड़ रुपए देने की मांग भी कर रहे थे। अगर पाकिस्तान की सरकार के कठमुल्ला रवैये से हटकर बात करें तो वहां के लिबरल समाज में गांधी के प्रति सोच बदल रही है।
दोनों देशों के चैंबर ऑफ़ कॉमर्स में गांधी की भूमिका
गांधी जी 1934 में कराची गए थे। उस बार उन्होंने कराची चैंबर ऑफ़ कॉमर्स की इमारत का शिलान्यास किया था। उस मौके पर वहां एक शिलापट्ट भी लगा था जिस पर अंग्रेज़ी में लिखा था, ''महात्मा गांधी ने कराची इंडियन मर्चेन्ट्स एसोसिएशन के इस नींव के पत्थर को 8 जुलाई, 1934 को रखा।''
कराची के बिज़नेसमैन अशरफ़ मद्रासवाला ने बताया कि उस शिलापट्ट को 2018 में चैंबर की इमारत के दोबारा बनाने के दौरान हटा दिया गया। राजधानी दिल्ली में भी तानसेन मार्ग पर बने फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फ़िक्की) की स्थापना में भी महात्मा गांधी की भूमिका थी। उन्हीं की प्रेरणा और सलाह से 1927 में फ़िक्की की स्थापना हुई थी।
कराची के एक पार्क का नाम भी गांधी गार्डन था। वहां पर राजनीतिक-सामाजिक कार्यक्रम होते थे। अब वहां से भी गांधी जी का नाम हट चुका है। इसके अलावा कराची के जूलॉजिकल गार्डन का नाम भी पहले 'गांधी गार्डन' ही हुआ करता था। अब उसका भी नाम बदलकर 'कराची जूलॉजिकल गार्डन' कर दिया गया है।
रावलपिंडी में भी गांधीजी के नाम पर पार्क था। वह शहर के राजा बाज़ार इलाक़े में था। ये सारे नाम बदले जा चुके हैं। लेकिन, गांधी का विचार तो सरहद के उस पार भी जीवित है और अब उसे वहां का शिक्षित और उदारवादी तबका आदर के भाव से देख रहा है।
लाहौर और कराची में गांधी और कांग्रेस का असर
आज के पाकिस्तान में 1947 से पहले सिर्फ़ मुस्लिम लीग का ही असर नहीं था। वहां पर कांग्रेस पार्टी का भी बड़ा जनाधार था। कांग्रेस के कई बड़े सत्र लाहौर और कराची में हुए थे।
31 दिसंबर, 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में ही जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में प्रस्ताव पारित कर भारत के लिए 'पूर्ण स्वराज' की मांग की गई थी। इसी दिन, रावी नदी के तट पर भारत की आज़ादी का संकल्प लेते हुए तिरंगा झंडा फहराया गया। इसमें गांधी जी भी थे।
उस अधिवेशन के दो साल बाद 1931 में, कांग्रेस का कराची में अधिवेशन हुआ। भारत के इतिहास में वह एक अहम घटना थी। वह सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में हुआ था। इस अधिवेशन में गांधी-इरविन समझौते का समर्थन किया गया जिसने कांग्रेस को सरकार से समान स्तर पर बात करने का अवसर प्रदान किया।
ज़ाहिर है, लाहौर और कराची जैसे शहरों में कांग्रेस का प्रभाव होगा जिसके चलते वहां कांग्रेस के अधिवेशन हुए। इन शहरों में रहने वाले कांग्रेसी 1947 के बाद वहीं रह गए। उनके बीच गांधी जी के सत्य, अहिंसा और सर्वोदय जैसे सिद्धांतों को लेकर प्रतिबद्ता भी बनी रही।
इसलिए यक़ीन कीजिए कि पाकिस्तान में भी कांग्रेस और गांधी की विचारधारा से जुड़े लोग आज भी हैं।