पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद विपक्षी खेमे में ही नहीं भाजपा में भी हलचल नज़र आ रही है। भाजपा में '160' क्लब एक बार फिर सक्रिय हो गया है। इस बार इसके अगुआ बने हैं केद्रीय मंत्री नितिन गडकरी।
नितिन गडकरी अपनी साफगोई के लिए जाने जाते हैं। पर यह समझना भूल होगी कि वे बिना सोचे समझे कुछ भी बोल देते हैं। वे अपने लक्ष्य को कभी आंखों से ओझल नहीं होने देते। उनकी ताकत संघ से आती है। वे भी नागपुर के रहने वाले हैं।
ऐसा माना जाता है कि भाजपा में रहते हुए राजनीति में सफल होने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन काफी है। लेकिन यह एक अवधारणा मात्र है- सच्चाई से थोड़ा दूर। हां, वास्तविकता इसके उलट है। संघ के विरोध के बाद आप भाजपा में बढ़ नहीं सकते। यह नियम है। पर हर नियम के कुछ अपवाद होते हैं।
बीजेपी का '160 क्लब'
पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत ऐसे ही नेताओं में थे। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी कुछ कुछ उसी रास्ते पर हैं। साल 2014 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नरेन्द्र मोदी को संघ को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। उस समय भाजपा में एक बड़ी तगड़ी लॉबी थी जिसका मानना था कि पार्टी को लोकसभा की 160 से 180 सीटें मिलेंगी।
ऐसे में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व सहयोगी दलों को मंजूर नहीं होगा। तो प्रधानमंत्री पद के तीन उम्मीदवार उभर कर आए।
उस समय लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, जिनको लाल कृष्ण आडवाणी और उनके सहयोगियों का समर्थन हासिल था। दूसरे नितिन गडकरी जो संघ की पसंद के तौर पर राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। पर संघ के समर्थन के बावजूद अध्यक्ष पद का दूसरा कार्यकाल हासिल नहीं कर पाए। तीसरे उम्मीदवार थे, उस वक्त पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह। तीनों एक दूसरे को पसंद तो नहीं करते थे लेकिन एक बात पर तीनों में सहमति थी। वह था नरेन्द्र मोदी का विरोध।
मोदी ने कैसे दी गडकरी को मात
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़ने से पहले उस समय के भाजपा के दोनों अध्यक्षों से बात की। राजनाथ सिंह से उनकी बातचीत का किस्सा फिर कभी। नितिन गडकरी की बात करते हैं। नीतीश कुमार ने गडकरी से सीधा सवाल किया कि क्या आप लोग नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करेंगे।
गडकरी का सीधा जवाब था, "मैं इस बात की गारंटी देता हूं कि हमारी पार्टी चुनाव से पहले किसी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करेंगी।"
गडकरी मानकर चल रहे थे कि उन्हें अध्यक्ष पद का दूसरा कार्यकाल भी मिलेगा और लोकसभा चुनाव के समय पार्टी की कमान उनके हाथ में ही रहेगी। पूर्ति घोटाले की ख़बर ने उन्हें दोबारा अध्यक्ष नहीं बनने दिया। इसके लिए वे अब तक अपनी ही पार्टी के नेताओं को ज़िम्मेदार मानते हैं। उन्हें लगता है कि इससे न केवल अध्यक्ष पद गया बल्कि प्रधानमंत्री बनने का अवसर भी।
किस जल्दी में हैं गडकरी
ये बात अतीत की हुई और दोबारा अतीत में जाने से पहले वर्तमान में लौटते हैं। नितिन गडकरी सोमवार को ख़ुफ़िया ब्यूरो के अधिकारियों के कार्यक्रम में बोल रहे थे। लेकिन जिक्र अपनी पार्टी की अंदरूनी राजनीति की कर रहे थे। इससे उनकी अधीरता भी झलकती है।
उन्होंने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह पर सीधा निशाना साधा और कहा कि विधायक, सांसद हारते हैं तो जिम्मेदारी पार्टी अध्यक्ष की ही होती है।...वे यह भूल गए कि उन्हीं के पार्टी अध्यक्ष रहते हुए भाजपा की दो दशकों में सबसे बुरी हार उत्तर प्रदेश में हुई। उस समय उन्होंने नरेन्द्र मोदी के घोर विरोधी संजय जोशी को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया था। नरेन्द्र मोदी ने धमकी दी कि संजय जोशी को नहीं हटाया तो वे चुनाव प्रचार के लिए नहीं आएंगे। पर गडकरी ने सुना नहीं।
मोदी-गडकरी से पहले शाह-गडकरी की बात कर लेते हैं। इसके लिए फिर थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा। ये दोनों नेता एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते।
जब शाह को घंटों इंतज़ार करवाते थे गडकरी...
एक किस्सा गडकरी के पार्टी अध्यक्ष के कार्यकाल का है। उस समय अदालत के आदेश से अमित शाह गुजरात से बाहर दिल्ली में रह रहे थे। अमित शाह अध्यक्ष से मिलने जाते थे तो उन्हें घंटों बाहर इंतजार करवाया जाता था। उस समय शाह के बुरे दिन चल रहे थे।
गडकरी महाराष्ट्र से उठकर अचानक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे। पर समय का चक्र घूमा। 2014 दिसम्बर में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का नाम तय होना था। शाह उस समय पार्टी अध्यक्ष बन चुके थे। गडकरी मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, पर नहीं बन पाए।
उससे भी ज्यादा धक्का उनको इस बात से लगा कि नागपुर के देवेन्द्र फड़णनवीस, जिन्हें वे अपने सामने बच्चा मानते थे, मुख्यमंत्री बन गए। तब से मौके का इंतज़ार कर रहे गडकरी के हाथ अब मौका लगा है। उन्हें लग रहा है कि यही मौका है जब मोदी-शाह पर हमला किया जा सकता है।
अब देखना यह है कि उनके साथ कोई और पार्टी नेता खुलकर आता है या नहीं। पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद आम चर्चा है कि मोदी का जादू पहले जैसा नहीं चल रहा। माना जा रहा है कि भाजपा की सीटें घटेंगी और कांग्रेस की बढ़ेंगी। इसके बावजूद यह भी माना जा रहा है कि सरकार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की ही बनेगी। भाजपा में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि उस हालत में पार्टी को मोदी के विकल्प की दरकार होगी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर गडकरी का परोक्ष हमला अपनी दावेदारी की पेशकदमी है। गडकरी ने अपने मंत्रालय के कामकाज से भी नाम कमाया है। उन्होंने अपनी एक छवि बनाई है कि वे काम करवाने में माहिर हैं और समझौतों से उन्हें कोई परहेज नहीं है। गडकरी भ्रष्टाचार के समर्थक नहीं है लेकिन इसे इतनी बुरी चीज नहीं मानते कि इसके लिए काम रोक दें।
गडकरी के बयानों से मोदी शाह के ख़िलाफ़ भाजपा में गोलबंदी की बात उजागर हो गई है। सवाल अब यह है कि गडकरी की यह पेशकदमी कितनी दूर तक जाती है। सवाल यह भी है कि अमित शाह की ओर से कोई जवाब आता है या नहीं। जो भी हो लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी का इरादा तो जता ही दिया है।