एक बार मशहूर पत्रकार विनोद मेहता से पूछा गया कि इतिहास संजय गाँधी को किस तरह से याद करेगा? उनका जवाब था, "इतिहास शायद संजय गाँधी को इतनी तवज्जो न दे और उन्हें नज़रअंदाज़ ही करे। कम से कम मेरी नज़र में भारतीय राजनीति में उनका वजूद एक मामूली 'ब्लिप' की तरह था।"
ये तो रही विनोद मेहता की बात, लेकिन बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो भारतीय राजनीति में संजय गाँधी की भूमिका को दूसरे नज़रिए से देखना पसंद करते हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे पुष्पेश पंत कहते हैं, "कहीं न कहीं एक दिलेरी उस शख़्स में थी और कहीं न कहीं हिंदुस्तान की बेहतरी का सपना भी उनके अंदर था, जिसको कोई अगर आज याद करे तो लोग कहेंगे कि आप गाँधी परिवार के चमचे हैं, चापलूस हैं। लेकिन परिवार नियोजन के बारे में जो सख़्त रवैया आपात काल के दौरान अपनाया गया, अगर वो नहीं अपनाया गया होता तो इस मुल्क ने शायद कभी भी छोटा परिवार, सुखी परिवार की परिकल्पना समझने की कोशिश ही नहीं की होती।"
लेकिन जिस तरह से परिवार नियोजन कार्यक्रम में ज़बरदस्ती की गई, उसने भारतीय जनमानस को कांग्रेस पार्टी से बहुत बहुत दूर कर दिया। कुमकुम चड्ढा हिंदुस्तान टाइम्स से जुड़ी हुई वरिष्ठ पत्रकार हैं और उन्होंने बहुत नज़दीक से संजय गाँधी को कवर किया है। कुमकुम चड्ढा बताती हैं, "किस तरह से उन्होंने अपने लोगों से ये सब करने के लिए कहा, ये मैं नहीं जानती, लेकिन इतना मुझे पता है कि उन्होंने ऐसा करने के लिए हर एक के लिए लक्ष्य निर्धारित किए थे। हर कोई चाहता था कि इस लक्ष्य को हर कीमत पर पूरा किया जाए।"
वो कहती हैं, "दूसरी तरफ़ संजय के पास जा कर कोई ये नहीं कह सकता था कि ये नहीं हुआ। वो लोग संजय से बहुत डरते थे। हर तरफ़ डर का माहौल था और दूसरे लोग संजय के पास धैर्य का शुरू से अभाव था। उनकी डेडलाइन हमेशा एक दिन पहले की हुआ करती थी। इसलिए संजय के निर्देश पर जो कुछ भी लोग कर रहे थे, वो बहुत जल्दबाज़ी में कर रहे थे, जिसकी वजह से उसके उलटे परिणाम आने शुरू हो गए।"
कुमकुम कहती हैं, "उस समय पूरे भारत में सेंसरशिप लगी हुई थी और किसी में ये हिम्मत नहीं थी कि वो संजय गाँधी से जा कर कहता कि आपको ये नहीं करना चाहिए। मैं नहीं समझती कि संजय गाँधी ये सुनने के मूड में थे और उनका इस तरह का मिजाज़ भी नहीं था कि वो इस तरह की बातें सुनते।"
संजय गांधी और गुजराल की भिड़ंत
संजय गांधी पर सबसे गंभीर आरोप था इमरजेंसी के दौरान विपक्षी नेताओं की गिरफ़्तारी का आदेश देना, कड़ाई से सेंसरशिप लागू करना और सरकारी कामकाज में बिना किसी आधिकारिक भूमिका के हस्तक्षेप करना। जब उन्हें लगा कि इंदर कुमार गुजराल उनका कहना नहीं मानेंगे तो उन्हें उनके पद से हटा दिया गया।
जग्गा कपूर अपनी किताब 'व्हाट प्राइस परजरी- फ़ैक्ट्स ऑफ़ द शाह कमीशन' में लिखते हैं, "संजय ने गुजराल को हुक्म दिया कि अब से प्रसारण से पहले आकाशवाणी के सारे समाचार बुलेटिन उन्हें दिखाए जाएं। गुजराल ने कहा ये संभव नहीं है। इंदिरा दरवाज़े के पास खड़ी संजय और गुजराल की ये बातचीत सुन रही थीं, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा।"
वो आगे लिखते हैं, "अगली सुबह जब इंदिरा मौजूद नहीं थीं, संजय ने गुजराल से कहा कि आप अपना मंत्रालय ढंग से नहीं चला रहे हैं। गुजराल का जवाब था कि अगर तुम्हें मुझसे कुछ बात करनी है, तो तुम्हें सभ्य और विनम्र होना होगा। मेरा और प्रधानमंत्री का साथ तब का है, जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे। तुम्हें मेरे मंत्रालय में टाँग अड़ाने का कोई हक नहीं है।"
मार्क टली की गिरफ्तारी के आदेश
अगले दिन संजय गाँधी के ख़ास दोस्त मोहम्मद युनुस ने गुजराल को फ़ोन कर कहा कि वो दिल्ली में बीबीसी का दफ़्तर बंद करवा दें और उसके ब्यूरो चीफ़ मार्क टली को गिरफ़्तार कर लें, क्योंकि उन्होंने कथित रूप से ये झूठी ख़बर प्रसारित की है कि जगजीवन राम और स्वर्ण सिंह को घर में नज़रबंद कर दिया गया है।
मार्क टली अपनी किताब 'फ़्रॉम राज टू राजीव' में लिखते हैं, "यूनुस ने गुजराल को हुक्म दिया कि मार्क टली को बुलवाओ और उसकी पैंट उतरवा कर उसकी बेंत से पिटाई करवाओ और जेल में ठूंस दो। गुजराल ने जवाब दिया कि एक विदेशी संवाददाता को गिरफ़्तार करवाना सूचना और प्रसारण मंत्रालय का काम नहीं है।"
वो आगे लिखते हैं, "फ़ोन रखते ही उन्होंने बीबीसी प्रसारण की मॉनीटरिंग रिपोर्ट मंगवाई, जिससे पता चल गया कि बीबीसी ने जगजीवन राम और स्वर्ण सिंह को हिरासत में लिए जाने की ख़बर प्रसारित नहीं की थी। उन्होंने ये सूचना इंदिरा गाँधी तक पहुंचा दी लेकिन उसी शाम इंदिरा गाँधी ने उन्हें फ़ोन कर कहा कि वो उनसे सूचना और प्रसारण मंत्रालय ले रही हैं, क्योंकि मौजूदा हालात में उस कड़े हाथों से चलाए जाने की ज़रूरत है।"
रुख़साना सुल्तान से संजय की नज़दीकी
जो लोग संजय गांधी के करीब थे, उन्होंने इमरजेंसी के दौरान उनका पूरा फ़ायदा उठाया और लोगों के बीच उनकी छवि ख़राब करने में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इनमें से एक थी अभिनेत्री अमृता सिंह की माँ रुख़साना सुल्तान।
कुमकुम चडढ़ा बताती हैं, "एक स्तर पर दोनों के बारे में काफ़ी अनर्गल बातें कही जाती थीं। रुख़साना सबको साफ़ कर देती थी और उन्होंने मुझसे भी कहा था कि संजय उनके बहुत करीबी दोस्त हैं। इमरजेंसी के दौरान रुख़साना के पास बहुत ताकत थीं। इस ताक़त का उन्होंने बहुत बेजा इस्तेमाल किया, चाहे वो परिवार नियोजन हो या जामा मस्जिद का सौदर्यीकरण हो। अगर लोग संजय गांधी से नफ़रत करते थे, तो वो इसलिए कि वो उनके नाम पर ये कार्यक्रम चलाती थीं। संजय का कोई भी ऐसा दोस्त नहीं था, जो उनसे ये कह सकता था कि आप ये ग़लत काम कर रहे हैं।"
मुंहफट और स्पष्टवादी
संजय गाँधी की आम छवि कम बोलने वाले मुंहफट शख़्स की थी। उनके मन में अपने सहयोगियों के लिए कोई इज़्ज़त नहीं थी, चाहे वो उम्र में उनसे कितने ही बड़े क्यों न हों। लेकिन एक ज़माने में संजय गांधी के क़रीबी और युवा कांग्रेस के नेता रहे जनार्दन सिंह गहलोत बताते हैं, "उनमें रफ़नेस कतई नहीं थी। वो स्पष्टवादी ज़रूर थे जिसे सही मायने में आज तक भारतवासी स्वीकार नहीं कर पाए हैं। आज जो चापलूसों का ज़माना है, हर राजनीतिज्ञ मीठी बातें करता है, मैं समझता हूँ, वो उससे हट कर थे। इसलिए उनकी छवि बनती रहती थी कि वो रूखे हैं, जो कि वो बिल्कुल नहीं थे। "
वो आगे कहते हैं, "लेकिन ये बात ज़रूर थी कि जो बात उनको ठीक लगती थी, उसको वो मुंह पर कह ज़रूर देते थे। देश के लोगों ने बाद में स्वीकार भी किया कि उनका जो पांच सूत्री कार्यक्रम था, वो देश के लिए बहुत अच्छा था।" इसी तरह की बात संजय गांधी के सहयोगी रहे संजय सिंह अमेठी से एक बार सांसद रह चुके हैं और इस समय राज्यसभा के सांसद हैं।
संजय सिंह कहते हैं, "दो तीन गुण उनके मुझे बहुत अच्छे लगे। एक तो बड़ी साफ़ बात करते थे। स्पष्टवादिता थी। बड़े सौम्य थे। बहुत अच्छा व्यवहार था उनका और एक कोशिश करते थे कि कम से कम बात हो और संदेश ठीक से लोगों की समझ में आ जाए और सबसे बड़ी चीज़ थी कि जब वो स्वयं किसी चीज़ को हाँ कहते थे, तो उसको करने का पूरा प्रयास करते थे और उसी तरह आशा करते थे कि जो भी कोई बात करे, तो उसे पूरा ज़रूर करे। "
समय के पाबंद
संजय गाँधी की नकारात्मक छवि बनाने में उनके कथित रूखे व्यवहार ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। विनोद मेहता संजय गाँधी पर लिखी अपनी किताब, 'द संजय स्टोरी' में लिखते हैं, "1 अकबर रोड पर संजय गांधी का दिन सुबह 8 बजे शुरू होता था। इसी समय जगमोहन, किशन चंद, नवीन चावला और पीएस भिंडर जैसे अफ़सर संजय को अपनी डेली रिपोर्ट पेश करते थे। इसी समय वो संजय से आदेश भी लेते थे। इनमें से ज़्यादातर लोग उन्हें सर कह कर पुकारते थे।"
जगदीश टाइटलर बताते हैं कि संजय सिर्फ़ एक दो शब्द ही बोलते थे। मैंने उनको कभी चिल्लाते हुए नहीं सुना। उनके आदेश क्रिस्टल की तरह साफ़ होते थे। उनकी यादाश्त बहुत ज़बरदस्त थी। टाइटलर कहते हैं, "ठीक 8 बज कर 45 मिनट पर वो अपनी मेटाडोर में बैठ कर गुड़गाँव में अपनी मारुति फ़ैक्ट्री के लिए रवाना हो जाते थे। वो समय के इतने पाबंद थे कि आप उनसे अपनी घड़ी मिला सकते थे। ठीक 12 बज कर 55 मिनट पर वो दोपहर का खाना खाने घर लौटते थे, क्योंकि इंदिरा गाँधी के आदेश थे कि दिन का खाना परिवार के सब लोग साथ खाएं।"
टाइटलर आगे कहते हैं, "दोपहर 2 बजे से उनका लोगों से मिलने का सिलसिला फिर से शुरू होता था। इस बार उनसे मिलने वालों में केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री और यूथ कांग्रेस के नेता होते थे। उन्हें मिलने का जो वक्त दिया जाता था, वो कुछ इस तरह होता था.. 4 बज कर 7 मिनट, 4 बज कर 11 मिनट या 4 बज कर 17 मिनट। जब कोई कमरे में घुसता था तो न ही वो उसके स्वागत में खड़े होते थे और न ही उससे हाथ मिलाते थे।"
मारुति की नींव रखी
नारायण दत्त तिवारी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री और आँध्र प्रदेश के राज्यपाल रह चुके हैं। तिवारी मानते हैं कि संजय गांधी को बिना वजह बदनाम किया गया और उनके योगदान को कम करके आँका गया।
तिवारी कहते हैं, "संजय गांधी का जो 5 सूत्री कर्यक्रम था, आज सभी मानते हैं कि वो सही और व्यवहारिक था। वो मानते थे कि बिना परिवार नियोजन के भारत की ग़रीबी दूर नहीं हो सकती।" वो कहते हैं, "इसी तरह पेड़ लगाने का आंदोलन और भारत में चीज़ों के बनने पर ज़ोर उनके कार्यक्रम का प्रमुख हिस्सा था। उन्होंने वर्कशॉप में मारुति का डिज़ाइन बनाने की कोशिश की। आज मारुति कार भारत में बन रही है और उसका निर्यात भी किया जा रहा है, लेकिन इसकी नींव संजय गाँधी ने ही डाली थी।"
तेज़ गाड़ी चलाने के शौकीन
आम लोगों के मन में संजय गांधी की छवि एक 'मैन ऑफ़ एक्शन' वाले शख़्स की है, जिसके पास धीरज की कमी थी। आम धारणा के ख़िलाफ़ वो शराब सिगरेट तो दूर, चाय पीना तक पसंद नहीं करते थे।
जनार्दन सिंह गहलोत कहते हैं, "उनका एक शौक था कि वो गाड़ी बहुत तेज़ चलाते थे। एक बार हम, संजय गांधी और अंबिका सोनी तीनों पंजाब के टूर से आ रहे थे। उनकी आदत थी कि वो अपनी गाड़ी ख़ुद चलाते थे और हमारी ये हालत थी कि हमारे हाथ पैर फूल रहे थे कि कहीँ गाड़ी का एक्सीडेंट न हो जाए। जब हम उन्हें टोकते थे तो वो कहते थे, डरते हो क्या?"
वो कहते हैं, "जिस दिन वो प्लेन उड़ाने गए थे, मेनकाजी ने इंदिराजी से कहा था कि वो संजय से गोता न लगाने के लिए कहे और उन्हें रोक लें। लेकिन जब तक इंदिराजी बाहर पहुंचती, वो अपनी मैटाडोर ले कर निकल चुके थे। उसी दिन ये हादसा हो गया।"
गहलोत बताते हैं, "वो कैंपा कोला और पेप्सी तक पीना पसंद नहीं करते थे और लोगों से सवाल पूछा करते थे कि तुम पान क्यों खाते हो। मैं समझता हूँ कि देश को नौजवानों को वो अलग रास्ते पर ले जाना चाहते थे। उनकी सादगी का आलम ये था कि वो खद्दर का कुर्ता पायजामा पहनते थे, औरों की तरह नहीं कि शाम को जींस और टी शर्ट पहन कर घूम रहे हों।"
कमलनाथ के ड्राइंग रूम में संजय की तस्वीर
संजय गांधी के साथियों की ये कह कर आलोचना की जा सकती है कि वो सुसंस्कृत और बौद्धिक नहीं थे और शायद उनमें गांभीर्य भी नहीं था, लेकिन उनकी संजय के प्रति निष्ठा में कभी भी कमी नहीं आई, ख़ासतौर से तब जब सारा भारत उनके ख़िलाफ़ हो गया था।
कुमकुम चड्ढ़ा बताती हैं, "कमलनाथ ऐसे शख़्स हैं, जो इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते और संजय की मौत के सालों बाद भी उनकी तस्वीर अपने ड्राइंग रूम में लगाते थे।"
वो कहती हैं, "मैंने एक बार उनसे पूछा भी था कि अब उनका देहांत हो चुका है। कोई उनके बारे में बात तक नहीं करना चाहता और आपने उनकी तस्वीर लगा रखी है। उनका जवाब था, इंदिराजी मेरी प्रधानमंत्री हैं, लेकिन संजय मेरे नेता और मेरे दोस्त थे। एक अंधी निष्ठा और स्नेह था कुछ लोगों का उनके प्रति।"