भारत में सीदी समुदाय के लोग सदियों से रह रहे हैं जो अफ़्रीकी मूल के हैं। सीदी समुदाय के बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं। पिछले कुछ दशकों में बहुत कुछ बदला है और अब इस समुदाय की कुछ लड़कियां खेल की दुनिया में नाम कमाने की कोशिश में हैं।
सीदी कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात में दूर-दराज़ के इलाक़ों में रहते हैं। ये पूर्वी अफ्रीका के बंतू समुदाय के वंशज हैं। इन्हें सातवीं सदी के आस-पास अरब अपने साथ लाए थे। बाद में सीदी पुर्तगालियों और अंग्रेज़ों के साथ भी आए। फिर वो भारत में ही रह गए। कुछ सीदी जंगलों में जा छुपे और वहीं अपनी रिहाइश बना ली। आज भी ये लोग समाज से अलग-थलग रहते हैं। हालाँकि पिछले कुछ दशकों में कुछ-कुछ बदल रहा है।
खेल की दुनिया में इनका प्रवेश
बिल्की गांव कर्नाटक के हुबली शहर से तीन घंटे की दूरी पर है। बिल्की में रहने वाली 18 साल की श्वेता सीदी एथलेटिक्स में राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में हिस्सा ले चुकी हैं। उनका सपना है नेशनल चैंपियन बनना। वो कहती है, "अगर हमें और अभ्यास के मौके मिले तो हम मेडल जीत सकते हैं। अगर हम मेडल जीतेंगे तो बाकि लोग हमारे काम की तारीफ़ करेंगे और हमें प्रोत्साहित भी करेंगे।"
ज़िला स्तर पर मेडल जीत चुकी श्वेता की रिश्तेदार, 13 साल की फ़्लोरिन भी अब अपनी बहन के नक़्शे कदम पर चल रही हैं। फ़्लोरिन भी राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में हिस्सा ले चुकी हैं। वो कहती है, "मैं नेशनल लेवल तक पहुंचना चाहती हूं और उसके बाद ओलंपिक्स तक और उसके लिए मैं कड़ी मेहनत करती हूँ।"
"सीदी समुदाय के बारे में नहीं जानते और हमें घूरते हैं"
ये लोग कन्नड़, कोंकणी जैसी स्थानीय भाषा बोलते हैं। इनका पहनावा भी आम लोगों जैसा ही है। इनके नाम भारतीय, अरबी और पुर्तगाली परंपरा का मिला-जुला रूप हैं। लेकिन ज़्यादा लोग इनके बारे में नहीं जानते। जब श्वेता घर से दूर जाती हैं या फिर कुछ खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेती हैं तो लोग उन्हें जिज्ञासा भरी नज़रों से देखते हैं।
कन्नड़ में श्वेता ने बताया, "कुछ लोग सीदी समुदाय के बारे में नहीं जानते वो हमारे बालों को छूते हैं। वो ये भी नहीं जानते कि हम भारत से ही हैं। वो हमसे अंग्रेज़ी में बात करने की कोशिश करते हैं और हमें घूरते हैं। कभी अगर प्रतियोगिता में हमारा अच्छा प्रदर्शन नहीं रहा तो कुछ लोग कहते हैं कि देखो वे अफ़्रीका से हैं फिर भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए। हमें बुरा लगता है पर क्या करें?"
ट्रेनिंग देने के लिए योजना
सीदियों के भारत की मुख्य धारा से कटे होने की वजह से उनके पास रोज़गार और तरक़्क़ी के बहुत कम साधन हैं। संवैधानिक रूप से सशक्त बनाने के लिए, 2003 में सरकार ने सीदियों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया। कई लोगों को ये भी महसूस होता है कि इनमें खेल में अच्छा प्रदर्शन करने की क्षमता है। भारतीय खेल प्राधिकरण ने भी उन्हें प्रशिक्षण देने के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए थे।
अस्सी के दशक में उस वक़्त की खेल मंत्री मार्गरेट अल्वा ने सीदियों को खेल की ट्रेनिंग देने के लिए एक योजना शुरू की थी। इनकी प्रतिभा को और बेहतर कैसे किया जाए? सरकार इसकी कोशिश में लगी हुई है।
कर्नाटक के युवा सशक्तिकरण और खेल विभाग के कमिश्नर, के श्रीनिवास ने बताया, "सरकार के कुछ स्पोर्ट्स हॉस्टल में भी सीदी समुदाय के लोग रहते हैं। सीदी दूर-दराज़ के इलाकों में रहते हैं तो हमारी कोशिश रहती है कि हम उन तक पहुंचें और उन्हें बताएं कि उनके लिए कौन-कौन सी सुविधाएं हैं ताकि वो पढ़ाई और खेल में आगे बढ़ें। सीदी समाज की लड़कियों का खेल में काफ़ी अच्छा प्रदर्शन रहा है।"
"मेरा आइडल है यूसेन बोल्ट"
ग़ैर सरकारी संगठन भी अब इनकी मदद के लिए आगे आ रहे हैं। 'ब्रिजेस ऑफ़ स्पोर्ट्स' के नीतीश चिनिवर ने बताया, "बहुतों को ऐसा लगता है कि इनकी जेनेटिक हिस्ट्री में कुछ ख़ास है जिसकी वजह से ये अंतरराष्ट्रीय खेलों में भारत के लिए मेडल जीत सकते हैं और "ब्रिजेस ऑफ स्पोर्ट्स" ऐसे टैलेंट को ढूंढकर उन्हें प्रशिक्षण देता है। हम स्कूल के साथ मिलकर इन्हें अच्छे कोच की निगरानी मे ट्रेनिंग देते हैं।"
ऐसा ही एक टैलेंट है 17 साल के रवि किरण सिदी जो श्वेता और फ़्लोरिन के साथ मुंडगोड़ के लोयोला स्कूल में पढ़ते हैं और क्लास के बाद प्रैक्टिस करते हैं।
रवि किरण सीदी ने बताया, "पहले मैं इंटरनेट पर वीडियो देख देख कर अभ्यास करता था पर जबसे से 'ब्रिजेस ऑफ़ स्पोर्ट्स' के साथ ट्रेनिंग मिलनी शुरू हुई है तबसे अच्छा लग रहा है। मुझे मेरे कोच, रिज़वान और मलनागूडर सर से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मेरी मां मुझे बहुत प्रोत्साहित करती है और मेरा आइडल है यूसेन बोल्ट।"
1980 के बाद बहुत से सीदी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में हिस्सा ले चुके हैं। श्वेता के रिश्तेदार और फ़्लोरीन के पिता ख़ुद एक नेशनल स्तर के खिलाड़ी रह चुके हैं।
पेडरु दीयोग सीदी ने कहा, "जो मैं नहीं कर पाया, मुझे उम्मीद है मेरी बेटी फ़्लोरीन करके दिखाएगी। देश के लिए मैडल लाएगी। अगर श्वेता नाम कमाएगी तो सब कहेंगे कि हमारे गाँव की बेटी ने नाम कमाया।"
भारत में लगभग पचास हज़ार से ज़्यादा सीदी रहते हैं जिनमें से कुछ अब अपने लिए एक अलग पहचान ढूंढने में कामयाब हो रहे हैं।