यह वक़्त सोनिया गांधी के एक और त्याग का है। इस बार त्याग वे अपने बेटे राहुल गांधी के लिए करने जा रही हैं। राहुल गांधी कांग्रेस की कमान संभालने वाले हैं। नेहरू-गांधी परिवार के राहुल गांधी पांचवीं पीढ़ी के सदस्य और छठे शख़्स हैं, जो अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बनेंगे।
132 साल पुरानी पार्टी कांग्रेस की कमान 45 साल तक नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों के हाथों में रही है। इस परिवार से सोनिया गांधी सबसे लंबे समय 19 साल तक कांग्रेस प्रमुख रहीं। जवाहरलाल नेहरू 11 साल तक कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे। इसके अलावा इंदिरा गांधी सात साल, राजीव गांधी छह साल और मोतीलाल नेहरू दो साल कांग्रेस प्रमुख रहे थे।
राजनीति से रिटायरमेंट
सोनिया गांधी को राजनीति से स्पष्ट रूप से एक अवकाश की ज़रूरत है। दिसंबर 2013 में जब सोनिया गांधी 66 साल की हुई तो कथित रूप से उन्होंने पार्टी नेताओं से कहा कि वे सक्रिय राजनीति से 70 साल की उम्र रिटायर होने की योजना बना रही हैं।
सोनिया का यह कहना सबको चौंका देने वाला था। कुल मिलाकर देखें तो भारत में शायद ही कोई है जो राजनीति से रिटायरमेंट लेता है। वफ़ादारी और ख़ुशामदी को लेकर कांग्रेसी हमेशा से अपनी चालाकी के लिए जाने जाते हैं और इसी तर्ज़ पर राहुल की ताजपोशी को लेकर सोनिया के साथ खड़े नज़र आ रहे हैं।
राहुल की ताजपोशी की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी है। 2016 में सियासी मजबूरियों के कारण सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान नहीं छोड़ी थी। अब वो 71 साल की हो गई हैं और सक्रिय राजनीति से ख़ुद को स्पष्ट रूप से अलग करना चाहती हैं।
अगर वो रायबरेली से सांसद का पद नहीं छोड़ना चाहती हैं तो अच्छा होगा कि वो संसद में एक आम सांसद की तरह रहें। सोनिया गांधी अगर रायबरेली से सांसद पद छोड़ती हैं तो कांग्रेस के लिए वहां से उपचुनाव में उतरना आसान नहीं होगा।
सोनिया गांधी की भूमिका पर चर्चा
कांग्रेसी खेमे के नेपथ्य में सोनिया गांधी की भूमिका पर प्रस्ताव और सलाहों की कोई कमी नहीं है। पार्टी में कई नेता चाहते हैं कि सोनिया सलाहकार या मार्गदर्शक के रूप में अपना योगदान दे सकती हैं। लेकिन राहुल अध्यक्ष बनने के बाद भी सोनिया के साये में रहते हैं तो राजनीतिक रूप से उनके लिए इससे बुरा कुछ भी नहीं होगा। 2004 से 2017 के बीच मां-बेटे ने 13 साल तक साथ काम किया।
इस दौरान ऐसे कई मौक़े आए जब राहुल गांधी की परिकल्पना और पहल पर सोनिया गांधी हावी रहीं। इसकी सबसे प्रत्यक्ष मिसाल है जब युवा गांधी में पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र बहाल करने की बेचैनी दिखी। कांग्रेस के सीनियर या कहें कि पुराने नेताओं ने सोनिया गांधी को समझाने में ख़ूब मेहनत की कि राहुल गांधी को यूथ कांग्रेस, एनएसयूआई और सेवा दल तक सीमित रखा जाए।
अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव के रूप में इन संगठनों में राहुल गांधी की कोशिश व्यर्थ ही गई, क्योंकि मुख्यधारा की पार्टी से यथास्थिति ख़त्म नहीं हुई।
पारदर्शिता और सुशासन चाहते हैं राहुल?
2010 में पूरी दुनिया ने देखा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अध्यादेश को राहुल गांधी ने कैसे फाड़ कर फेंक दिया था। यह अध्यादेश राजनीति में भ्रष्ट और दोषी क़रार दिए गए लोगों की जगह बनाए रखने के लिए था। कुछ ही घंटों और दिनों में राहुल गांधी मनमोहन सिंह से माफ़ी मांगते दिखे।
इसके बाद राहुल गांधी एक साफ़-सुथरी छवि वाले नेता के रूप में उभरे जो पारदर्शिता और सुशासन की वकालत करते नज़र आए। 2004 में सोनिया गांधी ने जब प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया तो ऐसे कई लोग थे जिन्हें लगता था कि उन्हें पार्टी संगठन को मजबूत करना चाहिए। इसके बाद जयराम रमेश, पुलक चटर्जी और अन्य कई नेता यूपीए चेयरपर्सन और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद प्रमुख सोनिया गांधी के कार्यालय से जुड़ गए।
सोनिया गांधी को इस रूप में एक कैबिनेट मंत्री का दर्ज़ा मिला हुआ था। अगर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी यूपीए और एनएसी से ख़ुद को दूर रखतीं तो शायद मनमोहन या यूपीए सरकार बेहतर प्रदर्शन करती।
राहुल भी बनाएंगे सत्ता के दो केंद्र?
इसके साथ ही रिमोट कंट्रोल और सत्ता के दो केंद्र होने के आरोपों को भी बल नहीं मिलता। नेहरू-गांधी परिवार के 47 साल के युवा राहुल को चाहिए कि वो एकला चलो की नीति को आत्मसात करें। वो कड़ी मेहनत करें और कांग्रेस को सत्ता में लाने के लिए अपना लक्ष्य तय करें।
पार्टी प्रमुख के तौर पर वे ये काम चाहे 2019 के आम चुनाव में करें या 2024 के। संसदीय दल के नेता, कांग्रेस संसदीय बोर्ड प्रमुख या किसी अन्य फोरम में सोनिया गांधी की मौजूदगी एक 'सुपर दरबार' के रूप में रही है। सोनिया गांधी एक समानांतर सत्ता का केंद्र रही हैं।
इस बार ख़ुद को साबित करना होगा
सोनिया गांधी एक मां के रूप में राहुल गांधी को सलाह देने का हक़ रखती हैं, लेकिन यह संस्थागत स्तर पर संभव नहीं था। कांग्रेस में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जिन्होंने नियुक्तियों के मामले, नीतिगत मुद्दों, विचारधारा और अन्य पक्षों को 10 जनपथ लाने की कोशिश की।
अगर राहुल गांधी किसी और का साथ चाहते हैं तो प्रियंका गांधी को ला सकते हैं। प्रियंका राहुल को मजबूत करने में भूमिका अदा कर सकती हैं, लेकिन इस बार कांग्रेस को सतर्क रहना होगा कि सत्ता के दो केंद्र ना बने। यह वक़्त राहुल के लिए ख़ुद को साबित करने का है।
राजनीति में नेहरू ख़ानदान का कोई भी शख़्स नाकाम नहीं हुआ है और राहुल के सिर पर भी यह ज़िम्मेदारी है। एक मां के रूप में सोनिया को 10 जनपथ से इन घटनाक्रमों का गवाह बनना चाहिए।