लेफ़्टिनेंट विजयंत थापर के पिता हर साल एक कश्मीरी लड़की से मिलने क्यों जाते हैं?

Webdunia
शुक्रवार, 9 अगस्त 2019 (19:02 IST)
-रेहान फ़ज़ल
दिन : 29 जून,1999
समय: रात के 2 बजे
स्थान: कारगिल का नौल मोर्चा
 
एक बड़ी चट्टान की आड़ लिए हुए लेफ़्टिनेंट विजयंत थापर लेटे हुए हैं। दो पाकिस्तानी ठिकानों पर कब्ज़ा हो चुका है। तीसरा ठीक उनके सामने है। वहां से उन पर मशीनगन का ज़बरदस्त फ़ायर आ रहा है। थापर तय करते हैं कि इस मशीन गन को हमेशा के लिए ठंडा किया जाए।
 
दिमाग़ कहता है कि चट्टानों की आड़ लिए हुए ही फ़ायरिंग जारी रखी जाए, लेकिन विजयंत तो हमेशा से अपने दिल के ग़ुलाम रहे हैं। वो आड़ से बाहर निकलते हैं। मशीनगन चलाने वाले पर ताबड़तोड़ फ़ायर करते हैं। तभी चांदनी रात में एक चट्टान पर बैठा हुआ पाकिस्तानी सैनिक उन्हें देख लेता है।
 
वो बहुत सावधानी से निशाना लेकर लेफ़्टिनेंट विजयंत थापर पर गोली चलाता है। गोली उनके बाएं माथे में घुसकर दाहिनी आँख से बाहर निकलती है। थापर 'स्लो मोशन' में नीचे गिरते हैं। उनकी पूरी जैकेट ख़ून से भीगी हुई है। लेकिन उनके पूरे शरीर पर उस गोली के घाव के अलावा एक खरोंच तक नहीं है।
 
लेकिन अपनी शहादत से कुछ घंटे पहले वो अपने माता-पिता को एक पत्र लिखकर अपने एक बैचमेट प्रवीण तोमर को देते हैं। उन्हें निर्देश है कि अगर वो ज़िंदा वापस लौटते हैं तो उस पत्र को फाड़ दिया जाए और अगर वो वापस न लौटें तो वो पत्र उनके माता-पिता को दे दिया जाए।
 
मौत से पूर्व लिखा गया आख़िरी ख़त : आसमानी रंग के अंतर्देशीय लिफ़ाफ़े पर लिखा गया वो पत्र अब भी विजयंत के माता-पिता के पास सुरक्षित है। विजयंत की मां तृप्ता थापर उसे पढ़ कर सुनाती हैं -
 
'डियरेस्ट पापा, मामा, बर्डी एंड ग्रैनी
जब तक ये पत्र आपको मिलेगा, मैं आसमान से अप्सराओं के साथ आपको देख रहा होऊंगा। मुझे कोई दुख नहीं है। अगले जन्म में अगर मैं फिर इंसान बनता हूं तो दोबारा सेना में भर्ती होकर देश के लिए लड़ूंगा। अगर संभव हो तो यहां आइए ताकि आप अपनी आंखों से देख सकें कि आपके कल के लिए भारतीय सेना ने किस तरह से लड़ाई लड़ी है।
 
मेरी इच्छा है कि आप अनाथालय को कुछ पैसे दान दें और हर महीने 50 रुपए रुख़साना को उसकी स्कूल की ट्यूशन फ़ीस के लिए भेजते रहें। समय आ पहुंचा है कि मैं अपने 'डर्टी डज़ेन' से जा मिलूं। मेरी हमलावर पार्टी में 12 लोग हैं।
 
आपका रोबिन'
 
सेना में जाने का जज़बा विजयंत थापर में बचपन से ही था। जब वो छोटे थे तो वो अपने छोटे भाई को परमवीर चक्र विजेता अरुण खेत्रपाल का घर दिखाने ले गए थे। विजयंत की मां तृप्ता थापर याद करती हैं, "एक दोपहर स्कूल से आने के बाद रोबिन अपने छोटे भाई को ये कहकर अपने साथ ले गया कि आज मैं तुम्हें एक ख़ास जगह पर ले जा रहा हूं। शाम को जब दोनों भाई थके हारे घर वापस लौटे तो बर्डी ने अपनी मां से शिकायत की कि रोबिन आज मुझे अपने साथ अरुण खेत्रपाल के घर ले गया।"
 
"हम लोग उस घर के अंदर भी नहीं गए। सिर्फ़ उसकी दीवार देखकर ही वापस लौट आए। रोबिन ने तब एक ऐसी बात कही थी जो मुझे आज तक भूली नहीं है, उसने कहा था देख लेना, एक दिन लोग हमारा घर भी देखने आएंगे। रोबिन की ये बात उसकी शहादत के बाद बिल्कुल सही साबित हुई।"
 
तुग़लकाबाद स्टेशन पर विजयंत से आख़िरी मुलाकात : कारगिल मोर्चे पर जाने से पहले लेफ़्टिनेंट विजयंत थापर कुपवाड़ा में तैनात थे। वो एक विशेष ट्रेन से ग्वालियर से कुपवाड़ा पहुंचे थे।
 
विजयंत के पिता कर्नल विरेंदर थापर याद करते हैं, "हमारे पास विजयंत का फ़ोन आया कि उसकी विशेष ट्रेन तुग़लकाबाद स्टेशन से गुज़रेगी। जब हम वहां पहुंचे तो वो ट्रेन आ चुकी थी। रोबिन ने हमें वहां न पाकर एक थ्री व्हीलर किया और हमारे नोएडा के घर के लिए रवाना हो गया। जब मैं घर पहुंचा तो मेरे नौकर ने बताया कि वो आए थे, लेकिन आप को यहां न पाकर दादी मां से मिलने चले गए हैं।
"बहरहाल मैं दोबारा हांफता-कांपता तुग़लकाबाद स्टेशन पहुंचा। हम लोग उसके लिए एक केक लेकर गए थे। अभी उसने केक काटा ही था कि सिग्नल हरा हो गया और गाड़ी चलने लगी। ये हमारी उससे आख़िरी मुलाकात थी। मेरे पास एक कैनन कैमरा हुआ करता था। वो रोबिन को बहुत पसंद था। चलते-चलते मैंने वो कैमरा उसे पकड़ा दिया।"
 
"रोबिन ने उस कैमरे से कई तस्वीरें खीचीं, लेकिन जब फ़िल्म ने ख़त्म होने का नाम ही नहीं लिया तो उसका माथा ठनका। उसने जब देखा तो पता चला कि कैमरे में फ़िल्म तो है ही नहीं। बाद में वो हम लोगों पर बहुत नाराज़ हुआ कि हमने कैमरे में फ़िल्म डलवाई ही नहीं। मैंने कहा फ़िल्म डलवाने का समय ही नहीं था। उसको तस्वीरें खींचने से पहले ये देख लेना चाहिए था कि उसमें फ़िल्म है या नहीं।"
 
'पीत्ज़ा हट' में मेज़ के ऊपर डांस : इस तरह की अपने बेटे की बहुत सी यादें तृप्ता थापर के मन में भी हैं। वो बताती हैं, "रोबिन का जन्मदिन 26 दिसंबर को पड़ता है। उसको हमेशा ये शिकायत रहती थी कि इन दिनों क्रिसमस की छुट्टियों के कारण उसके दोस्त उसके जन्मदिन पर नहीं आ पाते। एक बार जब वो देहरादून से ट्रेनिंग के दौरान घर आया तो उसके कुछ दोस्त उसे 'पीत्ज़ा हट' ले गए।"
 
"वहां उस के एक दोस्त ने उन लोगों को बता दिया कि विजयंत भारतीय सेना में है और देहरादून में ट्रेनिंग ले रहा है। ये सुनते ही 'पीत्ज़ा हट' वालों ने आनन-फ़ानन में एक केक का इंतज़ाम किया। उनके मैनेजर ने विजयंत से कहा हम आपका जन्मदिन मनाएंगे लेकिन आपको मेज़ के ऊपर खड़े होकर डांस करना पड़ेगा। विजयंत ने उन्हें निराश नहीं किया। उसके दोस्तों ने मुझे बताया कि ये उसका सबसे यादगार जन्मदिन था।"
 
विजयंत की रुख़साना से दोस्ती : कुपवाड़ा में ही पोस्टिंग के दौरान विजयंत की मुलाकात एक तीन साल की कश्मीरी लड़की से हुई, जिसका नाम रुख़साना था।
 
कर्नल वीरेंदर थापर बताते हैं, "कुपवाड़ा में एक जगह है कांडी, जहां एक स्कूल में भारतीय सैनिकों को रखा गया था। उसके सामने एक झोपड़ी के सामने तीन साल की एक मुस्लिम लड़की खड़ी रहती थी। रोबिन ने उसके बारे में पूछताछ की तो पता चला कि चरमपंथियों ने मुख़बरी के शक में उसके सामने ही उसके पिता की हत्या कर दी थी। तब से दहशत में उस लड़की ने बोलना बंद कर दिया था।"
 
"विजयंत जब भी उसे देखते, मुस्कुराकर उसे वेव करते और कभी-कभी अपनी गाड़ी रोक कर उसे चॉकलेट भी देते। उन्होंने अपनी माँ को पत्र लिखकर कहा था कि वो एक तीन साल की लड़की के लिए के लिए एक सलवार-कमीज़ सिलवा दें। वो जब अगली बार छुट्टियों पर आएंगे तो उसके लिए ले जाएंगे।"
 
"विजयंत उस लड़की से इतना क़रीब थे कि उन्होंने अपने आख़िरी ख़त में हमसे कहा था कि अगर उन्हें कुछ हो जाता है तो हम उस लड़की की मदद करते रहें और हर महीने उसकी स्कूल की फ़ीस के लिए 50 रुपए उसकी मां को देते रहें।"
 
रुख़साना को कंप्यूटर : थापर आगे बताते हैं, "रुख़साना इस समय 22 साल की है और 12 वीं कक्षा में पढ़ रही है। हर साल जब मैं द्रास जाता हूं तो उस लड़की से ज़रूर मिलता हूं। मैं हमेशा उसके लिए कोई न कोई चीज़ ले कर जाता हूं और वो भी हमें सेबों का कार्टन देती है। पिछले साल हमने उसे एक कंप्यूटर भेंट किया था।"
 
श्रीमती थापर बताती हैं कि जब भी रुख़साना की शादी होगी, वो उनके लिए एक अच्छा शादी का तोहफ़ा देंगी। ये तोहफ़ा उनके बेटे की तरफ़ से होगा जो अब इस दुनिया में नहीं है।
 
विजयंत के सहायक जगमल सिंह की मौत : जिस लड़ाई में लेफ़्टिनेंट विजयंत थापर ने भाग लिया, उसे 'बैटल ऑफ़ नौल' कहा जाता है। उसे 'थ्री पिंपल्स' की लड़ाई भी बोलते हैं। इस लड़ाई में विजयंत को पहला हमला करने की ज़िम्मेदारी दी गई। रात 8 बजे उन्हें हमला करना था। चांदनी रात थी। ये हमला करने के लिए जमा हो रहे थे कि पाकिस्तानियों ने इन्हें देख लिया।
 
कर्नल वीरेंदर थापर याद करते हैं, "भारतीय सैनिकों ने हमला करने के लिए क़रीब 100 तोपों का सहारा लिया। पाकिस्तानियों ने उसका उतना ही कड़ा जवाब दिया। पाकिस्तानियों का एक गोला विजयंत के सहायक या 'बडी' जगमल सिंह को लगा और वो वहीं शहीद हो गए। विजयंत पर उसका इतना बुरा असर पड़ा कि कुछ देर तक वो यूं ही बैठे रहे।"
 
"फिर उन्होंने अपनी टुकड़ी के तितर-बितर हो चुके सैनिकों को इकट्ठा किया और उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले गए। कर्नल रवींद्रनाथ ने तो ये समझा कि उनकी पूरी पलटन मारी गई है। उन्होंने उनकी जगह मेजर आचार्य और सुनायक को आगे बढ़ने का आदेश दिया।"
 
विजयंत और उनके बचे हुए साथी इस अफ़रातफ़री में अपना रास्ता भूल बैठे। अगले चार घंटों तक कड़ाके की सर्दी में वो नौल की चोटी को ढ़ूंढने की कोशिश करते रहे। अपनी पीठ पर 20 किलो का वज़न लादे विजयंत और उनके साथी आखिरकार मेजर आचार्य की टुकड़ी से मिलने में सफल रहे।
 
विजयंत की बहादुरी : कारगिल पर हाल में प्रकाशित किताब 'कारगिल - अनटोल्ड स्टोरीज़ फ़्रॉम वार' लिखने वाली रचना बिष्ट रावत बताती हैं, "नौल पर सबसे पहले मेजर आचार्य और उनके साथी पहुंचे। थोड़ी देर में सुनायक भी वहां पहुंच गए। पीछे आ रहे विजयंत और उनके साथियों ने जब मशीनगन की आवाज़ सुनी तो उनके चेहरे खिल गए। विजयंत ने कहा यही नौल है। तेज़ी से आगे बढ़ो। जैसे ही ये सब ऊपर पहुंचे, इन्होंने अपने आपको एक बड़ी लड़ाई के बीचोबीच पाया। सूबेदार भूपेंदर सिंह लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे।"
 
"विजयंत ने उन्हें देखते ही पूछा, 'आचार्य साहब कहाँ हैं?' भूपेंदर ने तुरंत उसका जवाब नहीं दिया। वो युवा विजयंत को लड़ाई के बीच ऐसी ख़बर नहीं सुनाना चाहते थे, जिससे उनको धक्का लगे। दस मिनट के बाद विजयंत के सब्र का बांध टूट गया।"
 
"इस बार उन्होंने थोड़ी सख़्ती से कहा 'आचार्य साहब कहाँ हैं?' भूपेंदर ने जवाब दिया, 'साहब शहीद हो गए।' ये सुनते ही विजयंत थापर की आंखों में में आंसू आ गए। तभी उनके एक और साथी नायक आनंद को भी गोली लग गई।"
 
पाकिस्तानी स्नाइपर की गोली लगी : रचना बिष्ट रावत आगे बताती हैं, "थापर का ग़ुस्सा अब तक सातवें आसमान पर था। हाथों में अपनी एके-47 लिए विजयंत ने उड़ती गोलियों के बीच लांस हवलदार तिलक सिंह की बग़ल में 'पोज़ीशन' ली। थोड़ी ही देर में उन्होंने उस पाकिस्तानी चौकी पर कब्ज़ा कर लिया। अब उनका ध्यान तीसरी चौकी पर था। वहां से उनके सैनिकों के ऊपर मशीन गन का ज़बरदस्त फ़ायर आ रहा था।"
 
"वो उन्हें अपने ठिकानों से बाहर नहीं आने दे रहे थे। अचानक विजयंत चट्टान की ओट से बाहर निकले और एलएमजी चला रहे पाकिस्तानी सैनिक को धराशाई कर दिया। लेकिन तभी एक दूसरे पाकिस्तानी सैनिक ने उन्हें अपना निशाना बनाया। वो नीचे गिरे लेकिन उनकी पलटन ने नौल की तीसरी चोटी पर कब्ज़ा करने में देर नहीं की।"
विजयंत को इस वीरता के लिए मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया। ये पुरस्कार उनकी तरफ़ से उनकी दादी ने राष्ट्रपति केआर नारायणन से ग्रहण किया।
 
शहादत का सामाचार छोटे भाई को मिला : जब विजयंत थापर की शहादत का समाचार आया तो उनके पिता कर्नल विरेंदर थापर अलवर में थे। तब से लेकर आज तक वो हर साल उस स्थान पर जाते हैं, जहां विजयंत थापर ने अपने प्राणों की आहुति दी थी।
 
उनकी मां को ये ख़बर उनके छोटे बेटे से टेलीफोन पर मिली जिसने उनका हमेशा के लिए दिल तोड़ दिया। उस दिन उनका छोटा बेटा घर पर था। उसके पास सेना मुख्यालय से फ़ोन आया कि लेफ़्टिनेंट विजयंत थापर वीरगति को प्राप्त हुए।
 
तृप्ता थापर याद करती हैं, "हमें तो पता भी नहीं था कि रोबिन कारगिल में लड़ाई लड़ रहा है। एक बार मेरे पास दिल्ली से एक दंपत्ति का फ़ोन आया कि उनकी मेरे बेटे से मुलाक़ात हुई है और उसने संदेश भिजवाया है कि वो ठीक है। उन्होंने बताया कि वो उससे मीनामर्ग में मिले थे। इस बीच टाइम्स ऑफ़ इंडिया में ख़बर छपी कि तोलोलिंग के मोर्चे पर लेफ़्टिनेंट विजयंत थापर ने बहुत बहादुरी से लड़ाई लड़ी।"
 
"इंडिया टुडे पत्रिका में उसकी तस्वीर भी छपी। फिर तोलोलिंग की जीत के तीन दिन बाद रोबिन का फ़ोन आया कि हमने तोलोलिंग पर फिर कब्ज़ा कर लिया है। फिर उसने कहा कि वो अगले बीस दिन तक फ़ोन पर बात नहीं कर पाएगा, क्योंकि उसे एक ख़ास मिशन पर जाना है। उसके बाद रोबिन की तरफ़ से कोई संपर्क नहीं हुआ। सेना मुख्यालय से ये ख़बर आई कि रोबिन ने कारगिल में लड़ते हुए देश के लिए सबसे बड़ा त्याग किया है।"
 

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