कानपुर में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के मुख्य अभियुक्त विकास दुबे की कथित मुठभेड़ में मौत पर ठीक उसी तरह सवाल उठ रहे हैं जैसे कि इस पूरे घटनाक्रम में पुलिस की भूमिका से लेकर विकास दुबे के राजनीतिक संपर्कों तक को लेकर उठ रहे थे।
यूपी पुलिस की दर्जनों टीमें कई राज्यों और नेपाल तक में लंबा जाल बिछाने के बावजूद घटना के एक हफ़्ते बाद तक विकास दुबे को पकड़ नहीं पाईं। गुरुवार को उज्जैन के महाकाल मंदिर में विकास दुबे ने कथित तौर पर ख़ुद को सरेंडर कराया। हालांकि मध्य प्रदेश पुलिस का दावा है कि गिरफ़्तार उन्होंने किया लेकिन इस गिरफ़्तारी पर संदेह जताया जा रहा है।
शुक्रवार को सुबह ही विकास दुबे के कथित तौर पर मुठभेड़ में पहले घायल होने और फिर कानपुर के हैलट अस्पताल में मारे जाने की ख़बर आई। यूपी एसटीएफ़ जानकारी दी कि विकास दुबे को उज्जैन से कानपुर लाया जा रहा था।
कानपुर के पास ही पुलिस की एक गाड़ी अचानक हादसे का शिकार होकर पलट गई। इस दौरान विकास दुबे ने हथियार छीनकर भागने की कोशिश की, जिसके बाद पुलिस को आत्मरक्षा में अभियुक्त को मारना पड़ा।
दो और सहयोगी ऐसे ही 'मुठभेड़' में मारे गए
लेकिन इस घटनाक्रम की 'क्रोनोलॉजी' इतनी सपाट और दोहराव वाली है कि इस पर लोगों को यक़ीन नहीं हो रहा है। दरअसल, जिस दिन विकास दुबे को उज्जैन में गिरफ़्तार किया गया, उसी दिन से सोशल मीडिया पर ऐसी आशंकाएं जताई जा रही थीं कि ऐसा ही कुछ विकास दुबे के साथ हो सकता है।
इसके पीछे वजह ये है कि विकास दुबे को दो अन्य सहयोगियों को एक दिन पहले ही यूपी एसटीएफ़ ने हरियाणा के फ़रीदाबाद से गिरफ़्तार करके यूपी की सीमा में लगभग इसी तरीक़े और इन्हीं परिस्थितियों में मारा गया था जिस तरह विकास दुबे को मारा गया।
ऐसे कई बिंदु हैं जिनके आधार पर इस मुठभेड़ के दावे पर सवाल उठाए जा रहे हैं। मसलन, क़रीब 1200 किमी तक के सड़क मार्ग में कोई बाधा नहीं आई लेकिन कानपुर के पास पहुंचते ही अचानक ऐसा क्या हुआ कि सिर्फ़ उसी गाड़ी का एक्सीडेंट हुआ जिसमें विकास बैठा हुआ था।
यही नहीं, इस गाड़ी में सवार पुलिसकर्मियों को चोटें आईं लेकिन विकास के साथ ऐसा कौन सा इत्तेफ़ाक होता है कि वह पुलिसकर्मियों के हथियार छीन कर पलटी हुई गाड़ी से निकलकर भागने लगता है।
पुलिस ने यह तो बताया है कि कुछ पुलिसकर्मियों को चोट लगी है लगी है लेकिन इनके बारे में अब तक ज़्यादा जानकारी नहीं मिल पाई है कि कितने पुलिसकर्मी घायल हैं और उन्हें कहां चोट लगी है।
कांग्रेस पार्टी ने इस कथित एनकाउंटर पर सवाल उठाते हुए पूछा है कि विकास दुबे यदि हथियार छीन कर भाग रहा था तो गोली उसके सीने पर कैसे लगी?
कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला कहते हैं, "गोली तो पीठ पर लगनी चाहिए थी। विकास दुबे के पैर में रॉड पड़ी है, वो कुछ दूर तक भी ठीक से चल नहीं पाता तो पुलिसकर्मियों की पकड़ से कैसे भाग गया?"
सवाल यह भी पूछे जा रहे हैं कि 1200 किमी की यात्रा सड़क मार्ग से क्यों हो रही है, जबकि चार्टर्ड प्लेन से विकास दुबे को लाने की बात हो रही थी? और कार से लाए जाने के दौरान हथकड़ी क्यों नहीं लगाई गई।
इत्तेफ़ाक़ ही इत्तेफ़ाक़
ये भी इत्तेफ़ाक़ ही रहा कि घटना से कुछ दूर पहले ही पत्रकारों की गाड़ियों को चेकिंग के लिए रोक लिया गया। और विकास दुबे को ले जा रही गाड़ी ऐसी जगह पलटी जहां रोड के किनारे डिवाइडर नहीं था।
ये भी इत्तेफ़ाक़ ही है कि पलटी हुई गाड़ी के आसपास सड़क पर दुर्घटना होने के निशान नहीं है और चलती सड़क पर गाड़ी के दुर्घटना का शिकार होने के चश्मदीद भी नहीं है।
ये भी इत्तेफ़ाक़ ही है कि जिस विकास दुबे को महाकाल मंदिर के निहत्थे गार्डों ने पकड़ लिया वो यूपी एसटीएफ़ के प्रशिक्षित पुलिस अधिकारियों की पकड़ से भाग निकला और उन्होंने उसे ज़िंदा पकड़ने के बजाए मार देना बेहतर समझा।
ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब पुलिस के पास या तो अभी हैं नहीं या फिर वो देना नहीं चाहती। कानपुर पुलिस और यूपी एसटीएफ़ के अधिकारियों से हमने इन सवालों के बारे में जानने की कोशिश की लेकिन फ़िलहाल कोई जवाब नहीं मिल सका।
यूपी सरकार इससे पहले भी एनकाउंटर्स को लेकर सवालों के घेरे में रही है। सरकार का दावा है कि राज्य में बीजेपी सरकार बनने के बाद क़रीब दो हज़ार एनकाउंटर हुए हैं और इनमें सौ से ज़्यादा लोग मारे गए हैं।
कुछ मामलों में मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं से नोटिस भी मिले हैं लेकिन एनकाउंटर को लेकर सरकार ज़रा भी नरम नहीं हुई है।
क्या कथित तौर पर फ़र्जी एनकाउंटर्स को लेकर सरकार और अफ़सरों को न्यायालय या अन्य संवैधानिक संस्थाओं का भी डर नहीं रहता, इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार सुभाष मिश्र कहते हैं, "इतने एनकाउंटर हुए, अब तक न तो किसी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई हुई न ही कोई ऐसा नोटिस आया कि मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं या फिर न्यायालय से, जिससे कि सरकार या पुलिस वालों में कोई भय होता। तो पुलिस वालों का भी मनोबल बढता है कि कुछ नहीं होगा। पिछली सरकारों से तुलना करें तो पिछली सरकारों में सौ एनकाउंटर भी नहीं हुए। एनकाउंटर स्टेट की पॉलिसी बन गई है। इससे पुलिस को और बल मिला है।। सीएम ने हर मंच से कहा कि ठोंको नीति पर चलो।"
सुभाष मिश्र कहते हैं," यूपी पुलिस के पास एक अच्छा मौक़ा मिला था। पुलिस इस मौक़े का सदुपयोग करती तो बहुत से राज़ खुल सकते थे। माफ़िया-पुलिस-नेता के गठजोड़ का सच जनता के सामने आ सकता था। ये पता चल सकता था कि विकास को किन लोगों ने संरक्षण दिया। उससे पुलिस का क्या कनेक्शन है। उसके बाद उसे सज़ा दिलाई जा सकती थी। ऐसी समस्याओं का समाधान पूरी तरह भले न होता लेकिन कुछ हद तक ज़रूर होता।"
''पुलिस वालों को लगा कि ये हैदराबाद कांड की तरह उनके लिए हीरो बनने का मौक़ा है। लोगों ने भी पुलिस वालों को एसी घटनाओं के बाद कंधों पर बिठाकर हीरो बनाया है।"
रिटायर्ड पुलिस अधिकारी विभूतिनारायण राय कहते हैं, 'ये जो कहानी सुनाई जा रही है इसमें बहुत झोल हैं, जितने सवालों के जवाब दिए जा रहे हैं, उनसे ज़्यादा सवाल उठ रहे हैं। कल से ही मीडिया में कहा जा रहा था कि विकास दुबे को रास्ते में ही मार दिया जाएगा। और ये हो गया। यूपी पुलिस को अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए इस एनकाउंटर की किसी निष्पक्ष एजेंसी से स्वयं ही जांच करानी चाहिए ताकि ये पता चले कि ये फ़ेक एनकाउंटर है या असली एनकाउंटर है।'