पश्चिम बंगाल के माटीगरा-नक्सलबाड़ी विधानसभा क्षेत्र के अटल एस्टेट इलाक़े में सड़क किनारे 55 साल की सबिता राय चाय की पत्तियां टोकरी में लेकर लाइन में खड़ी हैं। वे अपनी बारी का इंतज़ार कर रही हैं।
शंकर तांती इन महिला मज़दूरों की हाज़िरी बना रहे हैं। सबिता राय आठ घंटे चाय की पत्तियाँ तोड़ती हैं और उन्हें 202 रुपए की मज़दूरी मिलती है। अगर इन्हें पश्चिम बंगाल सरकार की न्यूनतम मज़दूरी भी मिलती तो यह रक़म 260 रुपए होती। ऐसा न तो 34 साल सत्ता में रही वाम मोर्चे की सरकार में हो पाया और न ही 10 साल से ममता बनर्जी की सरकार में।
सबिता राय कहती हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री मोदी पर भरोसा है। सबिता कहती हैं, ''वही हम लोग की मज़दूरी बढ़ाएगा। हम तो अबकी बार मोदी को वोट देगा। ममता बनर्जी से कुछ भी नहीं मिला है।''
नक्सलबाड़ी वो इलाक़ा है, जहाँ बीजेपी की लोकप्रियता के बारे में कुछ दशक पहले तक कल्पना भी करना मुश्किल था लेकिन अब इन इलाक़ों में आइए तो लगभग हर घर में बीजेपी के झंडे दिखते हैं। लोग खुलकर बीजेपी के बारे में बात कर रहे हैं। कई लोग कह रहे हैं कि 34 साल तक सीपीएम रही, 10 साल तक ममता बनर्जी, तो अब बीजेपी को भी एक मौक़ा देकर देख लेते हैं।
सीपीएम और कांग्रेस के नेताओं से बात कीजिए तो ऐसा लगता है कि इनके लिए ममता बनर्जी सबसे बड़ी दुश्मन हैं और टीएमसी की हार इनका मक़सद है। सीपीएम नेता रबिन देब कहते हैं, "ममता ने लेफ्ट पार्टियों को ख़त्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और उसी का ख़मियाज़ा उन्हें ख़ुद भुगतना पड़ रहा है"।
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता अधीर रंजन चौधरी ने बीबीसी से कहा कि अब ममता को समझ में आ रहा है कि उन्होंने क्या ग़लतियां की हैं। अधीर कहते हैं, ''हमारे 44 विधायक थे और टीएमसी ने 23 विधायकों को तोड़ लिया। अब जब सत्ता हाथ से फिसलती दिख रही है तो सोनिया गाँधी को पत्र लिख रही हैं।''
पश्चिम बंगाल में लोगों के बीच एक नारा चल रहा है, "21 में राम और 26 में वाम"। मतलब इस बार के चुनाव में राम यानी बीजेपी और अगले विधानसभा चुनाव 2026 में वाम यानी सीपीएम। इस नारे को लेकर कहा जा रहा है कि यह सीपीएम के भीतर से आया है। सीपीएम के लोगों से बात कीजिए तो उन्हें लगता है कि ममता तभी सबक़ सीखेंगी जब बीजेपी को जीत मिलेगी।
नक्सलबाड़ी उत्तर बंगाल में है। उत्तर बंगाल में लोकसभा की कुल आठ सीटें हैं और बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में सात सीटों पर जीत दर्ज की थी। उत्तर बंगाल में कुल 52 विधानसभा सीटें हैं और यहाँ टीएमसी की लड़ाई सबसे मुश्किल मानी जा रही है।
हिंदुत्व और नक्सलवाद की जन्मभूमि
श्यामा प्रसाद मुखर्जी और चारू मजूमदार। दोनों सवर्ण भद्रलोक बंगाली। श्यामा प्रसाद मुखर्जी से चारू मजूमदार 17 साल छोटे थे। मुखर्जी ने 1951 में जनसंघ की स्थापना की और चारू मजूमदार ने 1967 में जिस नक्सल आंदोलन की शुरुआत की, उसने पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि भारत के कई राज्यों को झकझोर कर रख दिया।
एक की राह घोर दक्षिणपंथी थी, तो दूसरे की राह अतिवादी वामपंथी। एक हिन्दुत्व के झंडाबरदार, तो दूसरे धर्म को अफ़ीम मानने वाले। जनसंघ की स्थापना के दो साल बाद ही 1953 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत हो गई।
मुखर्जी के जीते-जी हिन्दुत्व की राजनीति हाशिए पर रही। उधर नक्सल आंदोलन शुरू होने के पाँच साल बाद चारू मजूमदार की भी 1972 में मौत हुई। चारू भी अधूरे सपनों के साथ दुनिया को अलविदा कह गए।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी को मई 1953 में जम्मू-कश्मीर के कठुआ में पुलिस ने गिरफ़्तार किया और कुछ दिन बाद डिटेंशन में ही संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मौत हो गई थी। चारू मजूमदार की मौत भी कोलकाता के लाल बाज़ार थाने में पुलिस हिरासत में संदिग्ध परिस्थितियों में हुई। दोनों के परिवारों का कहना था कि पुलिस हिरासत में उनकी सेहत की जान-बूझकर अनदेखी की गई।
बीजेपी वही पार्टी है, जिसकी बुनियाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ से रखी थी। दूसरी तरफ़ जिस चारू मजूमदार ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से विद्रोह कर नक्सल आंदोलन का बिगुल फूंका था, वो आज की तारीख़ में हाशिए पर है।
कहा जा रहा है कि एक बार फिर से पश्चिम बंगाल करवट बदलता दिख रहा है। इसका अहसास 2019 के आम चुनाव में ही हो गया था। बीजेपी ने प्रदेश की कुल 42 लोकसभा सीटों में से 18 पर जीत दर्ज की थी और वोट शेयर 42 फ़ीसदी रहा।
बदलाव का पिछला दौर
1967 का साल भारत की राजनीति के लिए भयानक उठा-पटक वाला था। पश्चिम बंगाल पूरी तरह से बदलाव के दौर से गुज़र रहा था। भारत के चौथे आम चुनाव फ़रवरी 1967 में आठ राज्यों में कांग्रेस की हार हुई और नौ राज्यों में ग़ैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं।
पश्चिम बंगाल में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी, जिसमें सीपीएम सबसे बड़ी पार्टी थी। कांग्रेस से अलग होकर बंगाल कांग्रेस की स्थापना करने वाले अजय मुखर्जी इस सरकार के मुख्यमंत्री और सीपीएम नेता ज्योति बसु उप-मुख्यमंत्री बने।
सुधारवाद, संशोधनवाद, क्रांतिकारी इच्छाशक्ति की कमी और संसदीय राजनीति के प्रति समर्पण जैसे आरोप की बुनियाद पर 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई का विभाजन हुआ और सीपीएम का गठन हुआ।
आगे चलकर सीपीएम के भीतर भी सवाल उठने लगे कि विभाजन का फ़ायदा क्या हुआ जब पार्टी सीपीआई की तरह ही काम कर रही है। जब कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन (1964) के बाद सीपीएम का गठन हुआ, तब भी चारू मजूमदार असमंजस में थे। वे इस बात से क़तई सहमत नहीं थे कि क्रांतिकारी पार्टी बनने का काम पूरा हो गया है।
1966 की चीनी 'सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति' से इस धड़े को और ऊर्जा मिली। इसकी गूंज इस क़दर भारत में देखी गई कि चारू मजूमदार जैसे सीपीएम नेताओं ने खुलेआम नारा लगाया कि "चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन हैं"। और यह तब की बात है जब चीन 1962 में भारत पर हमला कर चुका था।
1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन का सूत्रपात हुआ। 1967 से 1977 तक पश्चिम बंगाल की राजनीतिक उठापटक को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि इस दौरान पाँच बार मुख्यमंत्री बदले गए और तीन साल तक राष्ट्रपति शासन भी लागू किया गया।
1972 में पश्चिम बंगाल के सातवें विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने चौंकाने वाली जीत हासिल की। कांग्रेस को 216 सीटों पर जीत मिली जबकि सीपीएम 14 सीटों पर सिमटकर रह गई। कांग्रेस के सिद्धार्थ शंकर रे मुख्यमंत्री बने। मार्च 1972 से 1977 का यह कार्यकाल पश्चिम बंगाल में पुलिसिया दमन के लिए भी जाना जाता है। इसी दौरान देश भर में इंदिरा गाँधी ने आपातकाल भी लगाया और विपक्षी आवाज़ कुचल दी गई।
दिलचस्प यह है कि सीपीआई ने आपातकाल का समर्थन करते हुए इसे ज़रूरी बताया। क़रीब चार दशक बाद सीपीआई ने 2015 में आपातकाल के समर्थन को राजनीतिक भूल बताया था। सिद्धार्थ शंकर रे के बाद से कांग्रेस राज्य में अब तक सत्ता से बेदख़ल है।
आपातकाल के बाद भारत में छठा आम चुनाव मार्च 1977 में हुआ। केंद्र की इंदिरा गाँधी सरकार को शर्मनाक हार मिली। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। प्रधानमंत्री बनते ही मोरारजी देसाई ने कांग्रेस शासित नौ राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। बंगाल में जून 1977 में आठवां विधानसभा चुनाव हुआ। सीपीएम के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे को 294 में से 231 सीटों पर ज़बर्दस्त जीत मिली।
अकेले सीपीएम को 178 सीटों पर जीत मिली जबकि कांग्रेस 20 सीटों पर सिमट गई। 21 जून, 1977 को ज्योति बसु वाम मोर्चे के मुख्यमंत्री बने और लगातार 23 सालों तक यानी 28 अक्टूबर, 2000 तक मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री बने और वे भी दस साल तक रहे।
1990 के दशक के आख़िरी सालों से सीपीएम की लोकप्रियता में गिरावट आने लगी थी। पश्चिम बंगाल के 2001 के विधानसभा चुनाव में इसका साफ़ असर दिखा। 1998 में तृणमूल कांग्रेस का गठन हुआ और पहली बार 2001 में विधानसभा चुनाव का सामना किया। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली टीएमसी ने सीपीएम को पहले ही चुनाव में कड़ी टक्कर दी।
इस चुनाव में सीपीएम का वोट शेयर 36.59 फ़ीसद रहा जबकि टीएमसी को 3066 प्रतिशत वोट मिले। 2011 में सीपीएम के 34 साल के शासन का ममता बनर्जी ने अंत कर दिया।
ममता 2011 में मुख्यमंत्री बनीं और अब तक हैं। लेकिन 2021 आते-आते ममता की कुर्सी भी हिलती दिख रही है और ऐसा करने वाली पार्टी है- श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भारतीय जन संघ से बनी भारतीय जनता पार्टी। 2018 में त्रिपुरा में बीजेपी ने सीपीएम के 25 सालों के शासन को ख़त्म कर अपनी सरकार बनाई थी।
पश्चिम बंगाल में बीजेपी का उभार
आज़ादी के बाद अविभाजित बंगाल के मुस्लिम बहुल ज़िले पूर्वी पाकिस्तान में चले गए। इसके बाद पश्चिम बंगाल में मुस्लिम लीग कोई ताक़त नहीं रही। आज़ादी तक कांग्रेस पश्चिम बंगाल में मुख्य विपक्षी पार्टी रही और फिर उसने प्रफुल चंद्र घोष के नेतृत्व में पहली सरकार बनाई। 1952 में नए संविधान के अनुसार आम चुनाव कराया गया।
कांग्रेस पश्चिम बंगाल की 219 में से 150 सीटें जीतकर सत्ता में आई। कांग्रेस को 38।93 फ़ीसद वोट मिले। भारतीय जनसंघ को नौ सीटों पर जीत मिली और वोट 5।8 प्रतिशत मिले। इसके साथ अखिल भारतीय हिन्दू महासभा को भी चार सीटों पर जीत मिली।
लोकसभा चुनाव में भी भारतीय जनसंघ के खाते में दो सीट गई। एक ख़ुद जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी कोलकाता साऊथ-ईस्ट से जीते और मेदिनापुर-झाड़ग्राम से दुर्गाचरण बंधोपाध्याय को जीत मिली। हुगली सीट पर हिन्दू महासभा के टिकट पर एनसी चटर्जी जीते।
इसके बाद के सालों में हिन्दुत्व की राजनीति हाशिए पर जाती रही और जनसंघ बाद के चुनावों में एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत पाई। वोट शेयर में भी लगातार गिरावट आती गई। इसके बाद जनसंघ को केवल 1967 और 1971 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में एक-एक सीट पर जीत मिली।
ऐसे में यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि जनसंघ के संस्थापक और अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बंगाल में हिन्दुत्व की राजनीति आज़ादी के बाद से हाशिए पर क्यों रही?
कोलकाता यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर हिमाद्री चटर्जी कहते हैं, ''बंगाल में वामपंथी आंदोलन बहुत मज़बूत रहा। बंगाल का नक्सलबाड़ी आंदोलन ने तो बंगाल ही नहीं बल्कि भारत के कई हिस्सों को अपनी चपेट में लिया। बंगाल को विभाजन का दंश ज़्यादा झेलना पड़ा। एक तो पाकिस्तान बनने के बाद बड़ी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थी आए और फिर 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बनने के बाद शरणार्थियों का दूसरा रेला पश्चिम बंगाल आया।''
''इन शरणार्थियों को लेकर कम्युनिस्ट पार्टियों का रुख़ संवेदनशील रहा। शरणार्थी कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़ते गए। किसान और मज़दूर की बात भी वामपंथी पार्टियाँ ही कर रही थीं। भूमि सुधार को आक्रामक तरीक़े से वाम पार्टियाँ उठा रही थीं। जनसंघ और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की राजनीति इन समस्याओं के समाधान के लिए आश्वस्त नहीं कर रही थी।''
संबित पाल ने अपनी किताब 'बंगाल द राइज़ ऑफ़ द बीजेपी कननड्रम, द फ़्यूचर ऑफ़ द टीएमसी' में लिखा है, ''श्यामा प्रसाद मुखर्जी 1947 में नेहरू कैबिनेट में शामिल हो गए थे। उन्होंने हिन्दू महासभा को सलाह दी कि वो राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहे और सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष पर ध्यान केंद्रित करे। 15 फ़रवरी, 1948 को हिन्दू महासभा ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें ख़ुद को राजनीतिक गतिविधियों से अलग कर सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन बनाने की बात कही गई। इस फ़ैसले से पश्चिम बंगाल में महासभा की राजनीति प्रभावित हुई"।
संबित पाल ने लिखा है, "1949 में हिन्दू महासभा ने फिर से राजनीति में जाने का फ़ैसला किया। इस फ़ैसले का श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने विरोध किया और उन्होंने कार्यकारीअध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इसके बाद ही उन्होंने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की।''
वे लिखते हैं, ''श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत के बाद भी जनसंघ ने चुनाव लड़ा लेकिन उसकी पहचान उत्तर भारत के सवर्णों की पार्टी की रही और पूर्वी भारत के साथ दक्षिण भारत के हिन्दू ख़ुद को अलग-थलग महसूस करते रहे। गाँधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध भी लगा और इससे भी हिन्दुत्व की राजनीति को जूझना पड़ा। इन सारे हालात के कारण हिन्दुत्व की राजनीति बंगाल में पाँव नहीं जमा सकी और वाम पार्टियों ने बंगाल में विपक्ष की ख़ाली जगह को भर दिया।''
पश्चिम बंगाल में बीजेपी की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद के दावेदार माने जा रहे स्वपन दासगुप्ता कहते हैं कि बंगाल का हिन्दुत्व उत्तर भारत के हिन्दुत्व से अलग है और पार्टी को इसे समझने में वक़्त लगा।
दासगुप्ता कहते हैं, ''बंगाल का हिन्दुत्व नॉन वेजिटेरियन है। यह उत्तर भारत से मेल नहीं खाता है। बंगाल में नवरात्रि में भी लोग मांसाहार करते हैं। हमने जय श्रीराम के नारे को यहाँ विरोध का नारा बना दिया। यहां जय श्रीराम कोई सांप्रदायिक नारा नहीं है। ममता बनर्जी को इस नारे से चिढ़ होती थी इसलिए हमने इसे हथियार की तरह इस्तेमाल किया। उत्तर प्रदेश में जय श्रीराम का नारा अलग है। वहाँ हिन्दू गर्व से जुड़ा हो सकता है लेकिन बंगाल में विरोध का स्लोगन है।''
दूसरी तरफ़, ममता बनर्जी जय श्रीराम का नारा सुन भड़क जा रही हैं। बीजेपी ने टीएमसी समर्थकों को चिढ़ाने के लिए जय श्रीराम के नारे को रणनीति के तौर पर इस्तेमाल किया है। एक बार तो ममता जय श्रीराम का नारा सुन अपनी एसयूवी से उतर गईं और नारे लगाने वालों को धमकाती दिखीं। दूसरी तरफ़, ममता ने ख़ुद को बीजेपी से ज़्यादा हिन्दू दिखाने के लिए रैलियों में चंडी पाठ की बात कही।
टीएमसी नेता सौगत रॉय ने बीबीसी से बातचीत में माना कि ममता को ऐसा बीजेपी के दबाव में करना पड़ रहा है। हालाँकि सौगत रॉय यह भी कहते हैं, ''ममता बनर्जी पहले भी दुर्गा पूजा के आयोजनों का उद्घाटन करती रही हैं। हमें बीजेपी को बताना पड़ रहा है कि उनसे कम हिन्दू नहीं हैं लेकिन हम हिन्दुत्व की राजनीति पसंद नहीं करते हैं। हमें हिन्दू होने का सर्टिफिकेट बीजेपी से नहीं चाहिए लेकिन वे ख़ुद को ज़्यादा हिन्दू बताएंगे तो हमें इसका काउंटर करना पड़ेगा। बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति पश्चिम बंगाल के लिए बड़ी चुनौती है।''
आरएसएस प्रचारक रहे पश्चिम बंगाल बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं कि पहले बंगाल में संगठन मज़बूत नहीं था। वे कहते हैं, ''केंद्र में हमारी पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी तो अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में संगठन को मज़बूत करने पर ज़ोर दिया। सीपीएम हो या टीएमसी सबके राज्य में विपक्ष को बोलने में डर लगता था लेकिन हमने डरना बंद कर दिया और ममता को उन्हीं की ज़ुबान में जवाब देना शुरू किया। हम बंगाल में तब मज़बूत बनकर उभर रहे हैं जब वहाँ के लोग विकल्प की तलाश में हैं।''
पश्चिम बंगाल में पहचान की राजनीति
2016 के विधानसभा चुनाव तक बीजेपी पश्चिम बंगाल में एक-एक सीट जीतने के लिए तरसती रही। लेकिन 2018 के पंचायत चुनाव में बीजेपी ने 30 फ़ीसद से ज़्यादा वोट हासिल कर अपनी मौजूदगी का अहसास करा दिया। 2019 के आम चुनाव में बीजेपी को 42 में से 18 सीटों पर जीत मिली और 40 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट शेयर रहा। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए ये ख़तरे की घंटी थी। आख़िर ऐसा क्या हो गया कि बीजेपी को बंगाली पसंद करने लगे?
नक्सल आंदोलन के जनक चारू मजूमदार के बेटे अभिजीत मजूमदार कहते हैं, ''2011 में टीएमसी सत्ता में आई तो उसने लेफ़्ट की लाइन को ही आक्रामकता से पेश किया। ममता के एजेंडे में था कि लेफ़्ट को ख़त्म कर देना है और सीपीएम के साथ ऐसा करने में एक हद तक कामयाबी भी मिली। लोगों को सीपीएम के बाद जो बदलाव मिला, वो बहुत अलग नहीं था। अब आम लोगों को लग रहा है कि 34 साल वाम मोर्चे की सरकार रही, 10 साल ममता को मौक़ा दे दिया तो अब बीजेपी को भी क्यों नहीं आज़मा लिया जाए।"
इसके बाद अभिजीत कहते हैं, "लेकिन लोग इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि टीएमसी के आने और सीपीएम के जाने की तरह बीजेपी की जीत नहीं होगी। बीजेपी दूसरे क़िस्म की राजनीति करती है। अगर बंगाल में वो एक बार सत्ता में आ गई तो यहाँ भयावह बदलाव होंगे। बीजेपी आती है तो यह बदलाव की चाहत में होगा।''
इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ़) नाम की एक पार्टी बनाने वाले फ़ुरफ़ुरा शरीफ़ के पीरज़ादा अब्बास सिद्दीक़ी भी इस बार ममता के ख़िलाफ़ कांग्रेस और सीपीएम के गठबंधन में शामिल हैं। फ़ुरफ़ुरा शरीफ़ दक्षिणी 24-परगना, उत्तरी 24 परगना और दिंजापुर ज़िले के बड़ी संख्या में मुसलमान दुआ मांगने आते हैं। असम और बांग्लादेश के भी मुसलमान यहाँ आते हैं। इस पूरे इलाक़े में 90 विधानसभा क्षेत्र हैं, जहाँ मुसलमानों की तादाद 27 फ़ीसदी से ज़्यादा है।
बीजेपी की बंगाल में बढ़ती ताक़त पर अब्बास सिद्दीक़ी कहते हैं, ''ममता बनर्जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति ने पश्चिम बंगाल में बीजेपी को पाँव पसारने का मौक़ा दिया। ममता ने 2017 के अक्टूबर में दुर्गा मूर्ति के विसर्जन को मुहर्रम का हवाला देकर रोक दिया था। ऐसी माँग मुसलमानों की तरफ़ से नहीं की गई थी। लेकिन ममता को दिखाना था कि वो मुसलमानों की सबसे बड़ी हितैषी हैं।"
सिद्दीक़ी कहते हैं कि इस तरह के फ़ैसलों पर प्रतिक्रिया हुई, बीजेपी को पाँव पसारने का मौक़ा मिला। बीजेपी ने बंगाल के हिन्दुओं को बताया कि देखो तुम्हारी मुख्यमंत्री इस क़दर मुस्लिम-परस्त हैं कि दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन तक रोक दे रही हैं। भला हिन्दू इस तर्क से क्यों सहमत नहीं होते?''
अब्बास सिद्दीक़ी कहते हैं, ''हम उस पश्चिम बंगाल में रहते थे जहाँ दुर्गा पूजा की ख़ुशी और मुहर्रम के मातम को अलग नहीं करना पड़ता था। लेकिन ममता को मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाकर वोट लेना था। वो कभी हिजाब पहनकर बेवक़ूफ़ बनाती हैं तो कभी इमाम भत्ता देकर।''
प्रोफ़ेसर हिमाद्री चटर्जी भी अब्बास सिद्दीक़ी की बातों से सहमत हैं। वे कहते हैं, ''ममता का यह आकलन बिल्कुल ग़लत साबित हुआ। जब आप एक समुदाय की राजनीति करते हैं तो आपको याद रखना चाहिए कि इसमें बैकफ़ायर की आशंका प्रबल रहती है।''
तीन अप्रैल को ममता बनर्जी ने हुगली के तारकेश्वर में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि अल्पसंख्यकों को अपना वोट बँटने नहीं देना चाहिए। इसे लेकर चुनाव आयोग ने उन्हें आचार संहिता का उल्लंघन बताकर नोटिस थमाया है।
कई लोग मानते हैं कि बीजेपी के लिए पश्चिम बंगाल फलने-फूलने के लिए उर्वर ज़मीन थी और नरेंद्र मोदी-अमित शाह की बीजेपी ने इस मौक़े को हाथ से नहीं जाने दिया। बांग्लादेशी घुसपैठिए, सीएए, एनआरसी, ममता बनर्जी के कथित मुस्लिम तुष्टीकरण और विपक्ष के लिए ख़ाली जगह से बीजेपी को भरपूर मौक़ा मिला।
पश्चिम बंगाल में बड़ी तादाद में प्रवासी आबादी है और बीजेपी ने नागरिकता देने की बात की तो इनमें उम्मीद जगी। सीएए और एनआरसी से धार्मिक ध्रुवीकरण भी देखने को मिला।
पश्चिम बंगाल के रायगंज लोकसभा क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं की तादाद क़रीब 49 फ़ीसद है। 2019 में यहाँ से सीपीएम के मोहम्मद सलीम और टीएमसी के कन्हैया लाल अग्रवाल उम्मीदवार थे। मुसलमानों के वोट बँट गए, जिससे बीजेपी के देबाश्री चौधरी को जीत मिल गई।
पश्चिम बंगाल में हिन्दी भाषी भी बीजेपी को लेकर लामबंद दिख रहे हैं। कोलकाता में टैक्सी चलाने वाले ज़्यादातर यूपी-बिहार के लोग हैं और इनसे बात कीजिए तो साफ़ बताते हैं कि दीदी का दौर अब गया। इसी को देखते हुए अब ममता बनर्जी बांग्ला प्राइड की भी बात कर रही हैं। ममता ने अपने कई भाषणों में बीजेपी को लेकर कहा कि बंगाल पर कोई बाहरी राज नहीं कर सकता।
ओमप्रकाश साव मूल रूप से यूपी के देवरिया के हैं। अभी ये पश्चिम बंगाल में भाटपाड़ा के वोटर हैं। इन्होंने 20 साल अहमदाबाद में सोनपापड़ी बनाने का काम किया और अच्छे पैसे भी कमाए। लेकिन बीमारी और पत्नी की मौत के कारण इन्हें वापस लौटना पड़ा। अब ओमप्रकाश साव तंबाकू वाला मंजन बेचने का काम करते हैं।
इनका कहना है कि अब मोदी से ही पश्चिम बंगाल का कुछ भला हो सकता है। भाटपाड़ा से बीजेपी ने बैरकपुर से अपने सांसद अर्जुन सिंह के बेटे पवन सिंह को उम्मीदवार बनाया है। अर्जुन सिंह भी टीएमसी से ही बीजेपी में आए हैं। ओमप्रकाश साव के पास गुजरात की कई कहानियाँ हैं और वे लोगों को सुनाते भी हैं।
उनका कहना है कि अगर क़ानून व्यवस्था कहीं ठीक है तो वो गुजरात में है और बंगाल को भी वैसे ही दुरुस्त करने की ज़रूरत है।
बीजेपी ने ममता बनर्जी के कथित मुस्लिम तुष्टीकरण को भी मुद्दा बनाया। इस चुनाव में बीजेपी ने ममता को 'ममता बेगम' तक कहा। नंदीग्राम में इसका साफ़ असर दिखा। नंदीग्राम के बूथ नंबर 76 पर एक अप्रैल को रणिता अगस्ती जब वोट देने आईं तो उनसे पूछा कि ममता को बीजेपी वाले बेगम कह रहे हैं क्या उन्हें ये ठीक लगा? इस पर रणिता ने कहा कि इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है क्योंकि ममता मु्स्लिम परस्त हैं।
नंदीग्राम में मतदान केंद्रों पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच मतदान के मामले में साफ़ विभाजन दिखा। मुसलमानों में डर दिखा कि बीजेपी आएगी इसलिए टीएमसी को वोट करो। लेकिन इस लाइन पर हिन्दुओं में भी ध्रुवीकरण हुआ होगा तो ममता के लिए नंदीग्राम सीट जीतना आसान नहीं होगा।
बीजेपी नेता स्वपन दासगुप्ता कहते हैं कि टीएमसी और सीपीएम ने हिन्दुओं को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया था लेकिन अब हिन्दू बिना डर के बीजेपी के कारण जय श्रीराम का नारा लगा पा रहे हैं।
टीएमसी के वरिष्ठ नेता और दमदम से लोकसभा सांसद प्रोफ़ेसर सौगत रॉय मानते हैं कि बीजेपी ने पश्चिम बंगाल के चुनाव को बदल दिया है। वे कहते हैं कि अब तक पश्चिम बंगाल में पहचान की राजनीति हाशिए पर थी लेकिन बीजेपी ने इसे रणनीति के तहत उभारा। प्रोफ़ेसर सौगत रॉय कहते हैं कि बंगाल की राजनीति में मुख्यरूप से तीन सवर्ण जातियों- ब्राह्मण, कायस्थ और वैद्य का वर्चस्व रहा।
बीजेपी इसी आधार पर साबित करने में लगी है कि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों की उपेक्षा की गई। प्रोफ़ेसर रॉय कहते हैं कि अब तक बंगाल की राजनीति को जातीय खांचे में नहीं देखा जाता था।
स्वपन दासगुप्ता कहते हैं कि टीएमसी, कांग्रेस और सीपीएम ने जैसी राजनीति की उससे बंगाल के बाहर लगता था कि यहाँ बनर्जी, चटर्जी और रॉय के अलावा कोई है ही नहीं। स्वपन दासगुप्ता कहते हैं, ''यहां जिन जातियों की आबादी सबसे ज़्यादा है, उन्हें वामपंथियों, कांग्रेस और ममता ने उपेक्षित कर रखा। बीजेपी बंगाली अपर कास्ट भद्रलोक की राजनीति को तोड़ने जा रही है। हमने 2019 में दलितों और आदिवासियों को टिकट दिए। वहाँ भी टिकट दिए जो सीटें उनके लिए रिज़र्व नहीं हैं।''
पश्चिम बंगाल में 10 लोकसभा सीटें अनुसूचित जातियों के लिए रिज़र्व हैं और 2010 में इनमें से पाँच पर बीजेपी को जीत मिली। 2011 की जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति कुल आबादी के 23.51 फ़ीसद हैं। पश्चिम बंगाल दलितों की आबादी के आकार के मामले में तीसरे नंबर पर है। कहा जा रहा है कि अगर बीजेपी बंगाल में चुनाव जीतती है तो मुख्यमंत्री का पद किसी ग़ैर-सवर्ण को दे सकती है।
ज्योति प्रसाद चटर्जी और सुप्रियो बासु ने अपनी किताब 'लेफ़्ट फ्रंटएंड आफ़्टर' में लिखा है, ''जातियों की तादाद के आधार पर प्रतिनिधित्व की बहस बंगाल में दूसरे राज्यों की तुलना में ग़ायब रही। बंगाल की राजनीति में जातीय महत्वाकांक्षा को दबाकर रखा गया था।''
कई हिन्दी भाषी राज्यों में अगड़ी जाति के लोगों के मुख्यमंत्री बनने की परंपरा दशकों पहले ख़त्म हो चुकी है लेकिन बंगाल में अब तक ऐसा नहीं हो पाया है। अभिजीत मजूमदार भी इस बात से सहमत हैं कि बीजेपी को पहचान की राजनीति का फ़ायदा मिलेगा।
बीजेपी ने यह साबित करने की कोशिश की कि ममता बनर्जी न केवल मुस्लिम परस्त हैं बल्कि हिन्दू विरोधी भी हैं। ममता बनर्जी सरकार के कुछ प्रशासनिक फ़ैसलों से बीजेपी के इस नैरेटिव को बल मिला।
बीजेपी ने इस नैरेटिव को साबित करने के लिए कहना शुरू किया कि ममता राज में मुसलमानों को ख़ुश करने के लिए दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा और मूर्ति विसर्जन करने से रोका जा रहा है। हावड़ा ज़िले के एक स्कूल में सरस्वती पूजा रोकने का मामला सामने आया और फिर 2017 में मुहर्रम को लेकर दुर्गा मूर्ति विसर्जन को एक दिन आगे बढ़ाने का फ़ैसला भी काफ़ी विवादित रहा।
सीएसडीएस के निदेशक और चुनाव विश्लेषक संजय कुमार कहते हैं कि ममता के ख़िलाफ़ बीजेपी को इस नैरेटिव में कामयाबी मिली है। ममता क्या, किसी भी ग़ैर-बीजेपी पार्टी के लिए यह चुनौती है कि बीजेपी के इस हथियार से कैसे लड़े। वे कहते हैं, ''ममता ने इससे लड़ने के लिए ख़ुद को हिन्दू साबित करने की कोशिश की तो मुसलमानों को लेकर भी सतर्क रहीं। दरअसल, यह कोई सिर दर्द जैसा नहीं है कि दर्द कम करने के लिए पेन किलर ले लो। यह बहुत ही जटिल मसला है और इससे लड़ना बहुत मुश्किल काम है।''
ममता बनर्जी हर साल छह दिसंबर को शांति दिवस रैली का आयोजन करती थीं। 2017 में इस रैली को संबोधित करते हुए ममता ने कहा था, ''पश्चिम बंगाल में 31 फ़ीसद मुस्लिम भाई-बहन हैं। सुरक्षा देना मेरी ज़िम्मेदारी है। अगर आप इसे तुष्टीकरण कहते हैं तो मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है।'' लेकिन अगले साल तृणमूल कांग्रेस ने इस रैली का आयोजन नहीं किया। मुस्लिम मौलवी भी ममता के साथ मंच पर कम दिखने लगे।
प्रोफ़ेसर हिमाद्री चटर्जी कहते हैं कि अगर मुसलमानों का तुष्टीकरण हुआ होता तो बंगाल के मुसलमान शिक्षा और नौकरी के मामले में बहुत आगे होते लेकिन सच तो यह है कि यहाँ के मुसलमान बहुत पिछड़े हुए हैं। प्रोफ़ेसर हिमाद्री कहते हैं अगर ये सांस्कृतिक तुष्टीकरण है तब भी मुसलमानों को शिक्षा के मामले में आगे होना चाहिए था।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रणनीति
बीजेपी का प्रयोग त्रिपुरा में सफल रहा था और उसने 25 साल पुरानी सीपीएम सरकार को 2018 में सत्ता से बेदख़ल कर दिया था। बीजेपी ने त्रिपुरा में अपने कुनबे को बड़ा करते हुए आईपीएफ़टी से गठबंधन किया था।
त्रिपुरा में कांग्रेस से टीएमसी के नेता बने सुदीप रॉय बर्मन को अमित शाह ने चुनाव से पहले बीजेपी में शामिल किया था। संबित पाल ने अपनी किताब 'द बंगाल द राइज़ ऑफ़ द बीजेपी' में लिखा है कि त्रिपुरा में बीजेपी के गेमप्लान को कामयाब बनाने में सुदीप रॉय बर्मन की अहम भूमिका रही।
बीजेपी ऐसा प्रयोग गुजरात में कर चुकी थी। नरहरि अमीन को 2012 में और 2018 में विट्ठलभाई रडाडिया को बीजेपी में शामिल किया गया था। 2016 में असम में तरुण गोगोई के वित्त मंत्री हिमंत बिस्वा सर्मा को भी अमित शाह बीजेपी में लाए थे और वहां सरकार बनाने में उनकी अहम भूमिका रही। बीजेपी ने इसी प्रयोग को पश्चिम बंगाल में भी दोहाराया और यह प्रयोग संगठन को मज़बूत करने में काफ़ी महत्वपूर्ण साबित हुआ।
अमित शाह और मोदी ने ममता को कमज़ोर करने के लिए उनकी पार्टी के नेताओं को तोड़ना शुरू किया जो सिलसिला अब तक नहीं थम रहा है। मुकुल रॉय का टीएमसी छोड़ना असम में हिमंत बिस्वा के कांग्रेस छोड़ने की तरह देखा जा रहा है। संबित पाल के मुताबिक़, बंगाल में टीएमसी को सांगठनिक रूप से मज़बूत बनाने में मुकुल रॉय की अहम भूमिका रही थी।
मुकुल रॉय और हिमंता बिस्वा सर्मा दोनों पर घोटाले के गंभीर आरोप थे। संबित पाल कहते हैं कि बीजेपी ने इन आरोपों का हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया और दोनों नेताओं को आसानी से बीजेपी में शामिल कर लिया।
एक वक़्त तब था जब 1998 में टीएमसी अस्तित्व में आई तो बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व गठबंधन के लिए बेक़रार रहता था। 1998 में बीजेपी का टीएमसी के साथ गठबंधन हुआ तो एक सीट पर जीत भी मिली।
दमदम से तपन सिकदर को जीत मिली। यह गठबंधन 1999 के लोकसभा चुनाव में भी रहा और बीजेपी को दो लोकसभा सीटों पर जीत मिली। तपन सिकदर दमदम से फिर चुने गए और सत्यव्रत मुखर्जी कृष्णानगर से सांसद बने। अब हालात बदल चुके हैं और टीएमसी में बीजेपी ने भगदड़-सी मचा दी है। वहाँ के बड़े से बड़े नेता बीजेपी जॉइन कर रहे हैं।
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष और हैदराबाद के लोकसभा सांसद असदउद्दीन ओवैसी कहते हैं कि बीजेपी के हिन्दुत्व की राजनीति से लड़ने का हथियार सॉफ़्ट हिन्दुत्व नहीं हो सकता।
ओवैसी कहते हैं, ''बीजेपी को हम बाबासाहेब आंबेडकर के बनाए संविधान के ज़रिए ही हरा सकते हैं। ममता जैसी राजनीति कर रही हैं, उससे बीजेपी कभी नहीं हारेगी बल्कि और मज़बूत होगी। बीजेपी के जय श्रीराम की राजनीति को हम चंडी पाठ से कभी नहीं हरा सकते।''
पश्चिम बंगाल के चुनावी कैंपेन को देखते हुए ऐसा लगता है कि भारतीय लोकतंत्र में चुनाव जीतने के लिए धार्मिक ध्रुवीकरण एक आसान ज़रिया बन गया है। लोकतंत्र में बहुसंख्यक आबादी जिसके साथ होती है वो चुनाव जीतता है लेकिन बहुसंख्यक होने का आधार धर