यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के आक्रामक रुख़ की आलोचनाओं के बीच पश्चिमी देशों के नेताओं की नीति पर भी सवाल उठ रहे हैं।
ग़ैर पश्चिमी देशों के कई जानकारों ने हमले की कवरेज में पश्चिमी मीडिया के कथित पूर्वाग्रह पर चिंता जताई है और पश्चिमी देशों के नेताओं पर दोहरी नीति अपनाने के आरोप भी लगाए हैं। उनका कहना है कि पश्चिमी नेता रूस को विलेन बनाने की कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, जबकि अभी जारी संकट के लिए कुछ दोष उनके भी हैं।
अरब और मध्य पूर्व देशों के पत्रकारों के एक नेटवर्क 'अरब और मध्य पूर्वी पत्रकार संघ' ने एक बयान में पश्चिमी मीडिया की 'नस्लवादी' कवरेज पर चिंता जताई है।
पश्चिमी देशों का दोहरापन
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने मंगलवार को अपने 'स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन' में रूस पर लगाए प्रतिबंधों को और सख़्त किए जाने की घोषणा की और कहा कि इस क़दम से रूस को आर्थिक रूप से आगे चलकर घातक नुक़सान पहुँचेगा।
राष्ट्रपति ने "वैश्विक अर्थव्यवस्था के कुछ सबसे बड़े मुनाफ़ाखोरों पर कार्रवाई" का भी ऐलान किया। उनका इशारा रूस के राष्ट्रपति पुतिन के पूँजीपति दोस्तों की तरफ़ था जो राष्ट्रपति के मुताबिक़ इस युद्ध में उनका साथ दे रहे हैं।
अमेरिका के अलावा ब्रिटेन और यूरोपीय संघ ने भी रूस पर 'कड़े' प्रतिबंध लगाए हैं। पश्चिमी मीडिया में बताया जा रहा है कि इन प्रतिबंधों का असर रूस के अंदर दिखना शुरू हो गया है। अमेरिकी मीडिया सीएनएन के मुताबिक़ रूस के लोग क़तारों में खड़े होकर एटीएम और बैंकों से पैसे निकाल रहे हैं ताकि वो अपने पैसे डूबने से पहले इसे निकाल सकें।
मगर रूस में प्रतिबंधों को लेकर कितनी चिंता है, इसकी ख़बर रूसी मीडिया में आएगी, इसकी संभावना कम है क्योंकि ऐसी ख़बरें आई हैं कि वहाँ मीडिया पर सरकार की तरफ़ से कई तरह की पाबंदियाँ लगाई गई हैं।
लेकिन ये दिलचस्प है कि रूस पर प्रतिबंधों की बात कर रहे पश्चिमी मीडिया के अधिकतर रिपोर्टर ये नहीं बता रहे हैं कि यूरोप और अमेरिका ने रूसी गैस और कच्चे तेल के निर्यात पर पाबंदी नहीं लगाई है।
पाइपलाइन से यूरोप को रूसी गैस का निर्यात करने वाली सबसे बड़ी कंपनी गज़प्रोम ने सोमवार को कहा कि वह अभी भी यूरोपीय ग्राहकों के ऑर्डर के हिसाब से यूक्रेन के माध्यम से यूरोप में गैस की सप्लाई कर रही है।
यूक्रेन ने 2014 में ही रूस से गैस लेना बंद कर दिया था लेकिन वो उसी पाइपलाइन से यूरोप के ज़रिए रूस का गैस लेता आया है। युद्ध के बाद भी ये सिलसिला जारी है।
रूस कच्चे तेल का विश्व में दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है। वहीं गैस के मामले में वह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश है।
यूरोप के देशों में अगर रूस से गैस जाना बंद हो जाए तो यूरोप के घरों में हीटिंग सिस्टम बैठ सकता है और ठंड के मौसम में लोगों को भीषण कठिनाई हो सकती है। घरों को गर्म करने के अलावा गैस का इस्तेमाल, विमानों और कारों-वाहनों में ईंधन भरने के लिए भी होता है।
यूरोपीय देशों को रूस से गैस क़तर के मुक़ाबले अधिक सस्ती पड़ता है जो एक बड़ा निर्यातक है।
प्रतिबंध- दोधारी तलवार
जॉर्जिया और आर्मेनिया में भारत के राजदूत रहे अचल कुमार मल्होत्रा कहते हैं प्रतिबंध दुधारी तलवार की तरह हैं।
बीबीसी से वो कहते हैं, "पुतिन को प्रतिबंधों की आदत सी पड़ चुकी है और ये अब तक असरदार साबित नहीं हुए हैं। मुझे लगता है पुतिन ने यूक्रेन पर हमले से पहले ही ये अनुमान लगाया होगा कि पश्चिमी देश उन पर प्रतिबंध लगाएंगे और वे इससे कैसे निपटेंगे। पुतिन राष्ट्रीय सुरक्षा को अर्थव्यवस्था पर प्राथमिकता दे रहे हैं। उन्हें पता है कि प्रतिबंध एक दोधारी तलवार है। इसका नुकसान रूस को तो होगा ही जिन देशों ने प्रतिबंध लगाया है उन्हें भी होगा।"
न्यूयॉर्क स्थित पत्रकार जेरेमी स्कैहिल उन गिने-चुने पश्चिमी देशों के पत्रकार हैं जिन्होंने पश्चिमी देशों के नेताओं के कथित दोहरेपन को उजागर करने की कोशिश की है। एक साथ कई ट्वीट्स में उन्होंने ये तर्क दिया है कि रूस जो यूक्रेन में कर रहा है वो हर तरह से ग़लत है और इसका समर्थन कोई नहीं करेगा। लेकिन उनके मुताबिक़ इस सिलसिले में ख़ुद पश्चिमी देशों का रिकॉर्ड निंदनीय है।
जेरेमी स्कैहिल कहते हैं, "लगातार ख़ुद किए अपने अपराधों को स्वीकार करने से बराबर इनकार करने में नाकामी रूस की निंदा की विश्वसनीयता को कमज़ोर करती है, ख़ासकर उन लोगों की निगाहों में जो नेटो और अमेरिकी सैन्यवाद के इतिहास को जानते हैं। यह पुतिन के लिए एक उपहार है।"
The systemic US failure to accept responsibility for its own crimes undermines the credibility of its condemnations of Russia, particularly in the eyes of anyone who knows the history of NATO and US militarism. It is a gift to Putin's cause.
रूस के यूक्रेन पर हमले से पहले 21वीं शताब्दी के अब तक के 22 सालों में अमेरिका और नेटो देशों ने अफ़ग़ानिस्तान (2021) और इराक़ (2003) पर क़ब्ज़ा किया, सीरिया में राष्ट्रपति बशर असद के ख़िलाफ़ अपनी सेना उतारी और लीबिया और सोमालिया में सैन्य कार्रवाई की।
अमेरिका ने 19 साल पहले इराक़ पर हमला किया था। हमले की वजह बताते हुए राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश ने आक्रमण के कुछ दिनों पहले एक भाषण में ये कहा था, "हमारे और अन्य सरकारों के ज़रिए एकत्र की गई ख़ुफ़िया जानकारी में कोई संदेह नहीं है कि इराक़ सरकार के पास अब तक के सबसे घातक हथियारों में से कुछ को रखना और छिपाना जारी है। इस शासन ने पहले ही इराक़ के पड़ोसियों और इराक़ के लोगों के ख़िलाफ़ सामूहिक विनाश के हथियारों का इस्तेमाल किया है।"
इस वजह के साथ ही राष्ट्रपति बुश ने एक और वजह गिनाई थी। उन्होंने उस समय के इराक़ी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के बारे में कहा था कि उन्होंने अल क़ायदा और दूसरे चरमपंथियों को पनाह दी है। राष्ट्रपति बुश ने यहाँ तक कह दिया था कि सद्दाम हुसैन का अमेरिका में 9/11 के हमलों में हाथ था।
लेकिन इराक़ पर क़ब्ज़े के बाद जब सामूहिक विनाश के हथियार न मिले तो अमेरिका और नेटो देशों की विश्वसनीयता पर सवाल उठे।
जानकार बताते हैं कि पश्चिमी मीडिया ने ये कहकर इस मुद्दे को टाल दिया कि उनसे अनजाने में ग़लती हुई थी।
यूक्रेन संकट के समय सोशल मीडिया पर लोग रूस और पुतिन की कड़ी आलोचना ज़रूर कर रहे हैं लेकिन वो अमेरिका की कोरिया और वियतनाम जैसे दूसरे देशों पर चढ़ाई की भी चर्चा कर रहे हैं जिन्हें लेकर सवाल उठते रहे हैं।
जेरेमी स्कैहिल कहते हैं, "पश्चिमी देशों के नेताओं के कई बयान रूस के ऐक्शन के बारे में सटीक हो सकते हैं, मगर उन्हें अपने स्वयं के सैन्यवाद और दोहरेपन और नैतिक दिवालियापन के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।"
मीडिया का कथित 'नस्लवाद'
कई देशों के मीडिया संगठनों ने पश्चिमी मीडिया की आलोचना की है और आरोप लगाया है कि यूक्रेन युद्ध की कवरेज़ में नस्लवाद के उदाहरण देखे जा रहे हैं।
अरब और मध्य पूर्वी पत्रकार संघ (एएमईजेए) ने एक बयान में कहा, "हमने नस्लवादी समाचार कवरेज के उदाहरणों को ट्रैक किया है जो दूसरों पर युद्ध के कुछ पीड़ितों को अधिक महत्व देते हैं।"
संगठन ने सीबीएस न्यूज़, द टेलीग्राफ़ और अल जज़ीरा इंग्लिश जैसे प्रमुख मीडिया संगठनों के विश्लेषकों और पत्रकारों द्वारा की गई टिप्पणियों के उदाहरणों का हवाला देते हुए ये बयान जारी किया गया है।
बयान में कहा गया, "इन टिप्पणियों ने या तो यूक्रेनियन की कॉकेशियन जाति या उनकी आर्थिक स्थिति पर अधिक फ़ोकस किया और उनकी मध्य पूर्वी देशों या उत्तरी अफ्रीका के लोगों के साथ तुलना की।"
सोशल मीडिया पर कई लोगों ने इस पर टिप्पणियां की हैं। इस पर वीडियो क्लिप्स तैयार किये गए हैं।
सीबीएस न्यूज़ के एक वरिष्ठ पत्रकार ने कीएव से रिपोर्टिंग करते हुए कहा कि यह कोई इराक़ या अफ़ग़ानिस्तान जैसी जगह नहीं है, ये अपेक्षाकृत यूरोपीय शहर है जहां आप इस तरह की चीज़ों की उम्मीद नहीं करेंगे।
एक दूसरे रिपोर्टर ने यूक्रेन के बारे में कहा कि यह विकासशील तीसरी दुनिया का राष्ट्र नहीं है।
एक और रिपोर्टर ने यूक्रेन से जाने वाले शरणार्थियों के बारे में कहा कि ये समृद्ध मध्यम वर्ग के लोग हैं, ये उत्तर अफ़्रीका जैसे देशों से आए लोग नहीं हैं, ऐसा लगता है कि ये यूरोप में रहने वाले पड़ोसी हैं।