कुंठा मसकोले, मध्य प्रदेश के खंडवा ज़िले के प्रखंड खालवा के सुदूर गाँव में रहती हैं। खालवा के जंगल के इलाक़े आदिवासी बहुल हैं। मसकोले के गाँव का नाम है मामाडोह। लेकिन उनके नाम को लेकर जब मैंने आदिवासी समाज के बुज़ुर्गों से पूछा तो उनका कहना था कि इस इलाक़े में इसी तरह के नाम रखने की परंपरा रही है।
ये सिर्फ़ नाम ही नहीं है बल्कि मसकोले जैसी और भी आदिवासी लड़कियां, या फिर उनके समुदाय के लोगों को अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में किन संघर्षों से गुज़रना पड़ता है यह उसका सिर्फ़ एक उदाहरण मात्र है।
ये मध्य प्रदेश के वो सुदूर इलाक़े हैं जहां के लोगों की नियति रोज़गार की तलाश में पलायन की है। इस पलायन के साथ जुड़ी हुईं हैं कई दास्तानें जो काम के दौरान उन पर हुए ज़ुल्म को बयान करती हैं।
यहाँ की अधिकांश आबादी के पास उतनी ज़मीन नहीं है जिसके सहारे वो अपने परिवार का पेट पाल सकें। इसलिए परिवार का हर बालिग़ आदमी मज़दूरी करने निकल पड़ता है। अगर आसपास के ज़िलों में मज़दूरी मिली तो ठीक, नहीं तो ये महानगरों और दूसरे प्रदेशों का रुख़ करते हैं।
'सोचा ऐसा काम करें जो कोई यहां और न करता हो'
ज़िंदगी के संघर्ष का सामना करते-करते कुंठा मसकोले जब पूरी तरह से थक चुकीं थीं तब उन्होंने क़िस्मत के ऊपर सबकुछ छोड़ दिया। उनकी मानसिक मनोदशा भी ठीक नहीं थी।
मगर इसी बीच कुछ ऐसा हुआ जिसने अलग-थलग पड़ीं कुंठा मसकोले और उनकी जैसी आदिवासी लड़कियों की उम्मीद जगाई।
लेकिन उनका सामना ऐसे समाज से होने वाला था जो लड़कियों को घर की चौखट के अन्दर रहकर चूल्हा चौका करने के लायक़ ही समझता था।
सामाजिक कार्यकर्ता सीमा प्रकाश बीबीसी से बात करते हुए कहती हैं कि कोरोना के दौरान जब अचानक लॉकडाउन लगा था तो खालवा के सुदूर इलाक़ों में रहने वाले आदिवासी दूसरे महानगरों में काम करने गए हुए थे। वो वहां फंस गए थे और फिर घर वापसी का उनका संघर्ष बहुत तकलीफ़देह रहा था।
यही वजह थी कि आदिवासी लड़कियां स्थानीय स्तर पर ही कुछ करने के बारे में सोचने लगीं जिससे कि उन्हें दो पैसे की आमदनी हो सके।
सीमा प्रकाश कहती हैं, "यहाँ खेतों में भी उतनी मज़दूरी नहीं मिलती। जी तोड़ मेहनत के बाद जो पैसे मिलते हैं वो परिवार के लिए पूरे नहीं होते। इस इलाक़े में ख़ासतौर पर जंगलों और आदिवासी बहुल इलाक़ों में आवागमन का एक मात्र साधन है मोटर साइकिल। लेकिन क़रीब पचास किलोमीटर के दायरे में दुपहिया वाहन की मरम्मत और पंचर लगाने की कोई सुविधा नहीं थी। तब सब ने मिलकर ये सोचा कि ऐसा काम किया जाए जो कोई दूसरा नहीं करता हो।"
मसकोले के अनुसार उनकी जैसी पचास से भी ज़्यादा आदिवासी लड़कियां हैं जिनको सीमा प्रकाश के संगठन ने दुपहिया वाहन की मरम्मत का प्रशिक्षण दिलवाया।
मसकोले का कहना है कि काम सीखने के बाद इनमें से ज़्यादातर लड़कियों ने अपने-अपने इलाक़ों में दुपहिया वाहन की मरम्मत की दुकानें खोल ली हैं।
मंटू कसीर से हमारी मुलाक़ात उनके गाँव कालम ख़ुर्द में हुई जहां वो अपना छोटा सा गैराज चला रहीं हैं। शुरुआत में उन्हें भी परेशानी का सामना करना पड़ा जब उनके परिजनों को लोग रास्ते में टोक कर पूछते थे कि अपने घर की लड़की से ये कैसा काम करवा रहे हैं।
मंटू कहती हैं, "पूरे दिन की दिहाड़ी में दो सौ रूपए मिलते थे। मगर वो भी रोज़ नहीं। किसी-किसी दिन ही काम मिलता था। फिर मैंने जाकर दुपहिया वाहन की मरम्मत का काम सीखा और फिर खालवा क़स्बे में बाबू भाई की गैराज में भी उनसे काम सीखा। मगर जब वापस गाँव आकर ख़ुद ये काम करने लगी और जब मुझे पैसे आने लगे तो अच्छा लगने लगा। अब दिन में 400-600 रुपए आ जाते हैं। अब हमें जो दिल करता है बाज़ार से जाकर ख़रीद लेते हैं।"
सांवली खेड़ा गाँव की रहने वाली गायत्री कास्डे कहती हैं कि अब उनके समुदाय से कोई रोज़ी कमाने के लिए पलायन नहीं करेगा।
पहले ताने मारते थे, अब मोटरसाइकिल मरम्मत के लिए आते हैं
बीबीसी से बात करते हुए गायत्री कास्डे की बहन सावित्री कहती हैं कि जब उनकी बहन दुपहिया वाहन की मरम्मत का काम सीखने जाती थीं तो लोग उनके पिता को ताने मारते थे।
वो कहती हैं, "मेरे पिता उदास हो जाते थे। माँ भी कहती थी कि ये लड़कों वाला काम सीख रही है लोग ताने दे रहे हैं। लेकिन मैंने गायत्री का समर्थन किया। मैंने अपने घर में कहा कि काम सीखने के बाद जब वो अपने गाँव में काम करेगी तो घर में पैसे आयेंगे। हमें किसी से क्या मतलब। हमें कोई और तो मदद करेगा नहीं।"
वो काम जिस पर सिर्फ़ मर्दों का आधिपत्य रहा हो और वो आदिवासी लड़कियां कर रही हों तो उससे समाज में असहजता तो होनी ही थी। फिर भी ये लड़कियां काम सीखती रहीं।
शिवानी उइके भी इसी सुदूर इलाक़े में बसे मेहलू गाँव में रहती हैं। वो बताती हैं कि पहले जब उन्होंने अपनी झोपड़ी में गैराज खोला तो आते-जाते लड़के उनका मज़ाक़ उड़ाते थे।
वो कहती हैं, "लेकिन जब उनकी मोटर साइकिल ख़राब होने लगी तो वो मेरे पास मरम्मत के लिए आने लगे। अब गाँव के लड़के ही कहते हैं कि हमें भी ये काम सिखा दो क्योंकि दूर-दूर तक न पेट्रोल पंप है और ना ही गाड़ी की मरम्मत की कोई दुकान।"
नौबत यहाँ तक आ गई है कि उन्हें काम करता हुआ देख लोग हैरत में पड़ जाते हैं। देखने वाले टोक भी देते हैं कि काम करते-करते इन लड़कियों को कहीं चोट ना लग जाए।
अब इन लड़कियों में इतना आत्मविश्वास आ गया है जिसकी वजह से इनके हाथों के औज़ार, गाड़ियों पर बहुत ही सफ़ाई के साथ चल रहे हैं।
पलायन और शोषण का इस इलाक़े में लंबा इतिहास रहा है। और यहाँ की आदिवासी लड़कियां उसे याद नहीं करना चाहती हैं। जो हुनर उन्होंने पिछले कुछ महीनों में सीखा है उसने उनके चेहरों पर मुस्कुराहट वापस लौटा दी है और यही इन लड़कियों के साथ जुड़ी संस्था की सबसे बड़ी कामयाबी भी है।
लेकिन मंटू कसीर के घरवालों को लगता है कि उनकी बेटी अपने पैरों पर खड़ी तो हो गयी है मगर आने वाले दिनों में उनके सामने एक और चुनौती आने वाली है। वो है अपनी बेटी की शादी की।
इस पर मंटू कहती हैं, "मैं लड़के से पहले से ही बोल दूंगी कि मैं अपना काम करती रहूँगी। शादी करना है तो करो नहीं तो भाड़ में जाओ।"
खालवा के सुदूर अंचल की लड़कियों की इस मेहनत ने स्थानीय पंचायत को भी प्रभावित किया है। अब पंचायत ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर इन लड़कियों को नया गैराज खोलने के लिए स्थान का चयन भी कर लिया है।
खालवा के उप-सरपंच शुभम तिवारी कहते हैं, "कोई सोच भी नहीं सकता था कि ये लड़कियां इतनी जल्दी इतना कुछ सीख जायेंगी। अब वो सीख गयी हैं और अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं तो हम भी उनके काम में उनका सहयोग कर रहे हैं।"
खंडवा ज़िले के इन सुदूर ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाली आदिवासी लड़कियों ने अपने समाज को जो राह दिखाई है उसने सबकी आँखें खोल दी हैं। अब किसी को रोज़गार की तलाश में शायद दूसरे प्रदेशों में पलायन नहीं करना पड़ेगा।