बीजेपी के लिए झारखंड जीतना इस बार मुश्किल क्यों?

BBC Hindi
रविवार, 8 दिसंबर 2019 (12:33 IST)
रजनीश कुमार, बीबीसी संवाददाता, रांची से
राँची में चर्च कॉम्पलेक्स के पास एक फ़ुट ओवरब्रिज है। इस पर बीजेपी का एक विशाल होर्डिंग लगा है। इस होर्डिंग में रघुबर दास और पीएम मोदी की तस्वीर है जिसके बग़ल में लिखा है- 'झारखंड के साथ मोदी है, तो किसी और के बारे में क्या सोचना।'
 
इसी फ़ुट ओवरब्रिज के नीचे से दुबले-पतले शरीर वाले 50 साल के वीरेंद्र महतो रिक्शा खींचते हुए निकलते हैं। 50 की उम्र में ही महतो 60 के लगते हैं।
 
चुनाव के बारे में उनसे पूछा तो उन्होंने रिक्शे के पैंडल को और तेज़ चलाना शुरू कर दिया और कहा, ''दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत करो तो पाँच सौ कमाते हैं। उनमें से डेढ़ सौ रुपया रोज़ रहने-खाने में खर्च हो जाता है। जो बचता है उससे किसी तरह परिवार का गुज़ारा हो रहा है। क्या फ़र्क़ पड़ता है कोई चुनाव जीते। जब झारखंड बिहार था तब भी रिक्शा खींच रहा था अब भी वही कर रहा हूँ। सरकार से क्या चाहिए हमको। अरे एक रिक्शा ही दे देती। हमारे लिए तो रघुबर दास ने कुछ नहीं किया है।''
 
झारखंड के चुनाव में राम मंदिर, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म होना और एनआरसी कोई मुद्दा नहीं है। निचले तबके ख़ासकर आदिवासी और श्रमिक वग रोज़गार, बिजली-पानी, सड़क, घर और स्कूल की बात कर रहे हैं। उच्च मध्यम वर्ग में बीजेपी और पीएम मोदी को लेकर सहानुभूति ज़रूर है लेकिन उसे भी लगता है यह लोकसभा चुनाव के लिए ठीक है।
 
बीजेपी अगर होर्डिंग पर- झारखंड के साथ मोदी है तो किसी और के बारे में क्या सोचना के बजाय ये लिखती कि झारखंड के साथ रघुबर है तो किसी और के बारे में क्या सोचना तो यह उस आत्मविश्वास का भी परिचायक होता कि पार्टी अपने प्रदेश नेतृत्व को लेकर आश्वस्त है।
 
हालाँकि रघुबर दास को लगता है कि इस चुनाव में बीजेपी को राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी होने का फ़ायदा मिलेगा। रघुबर दास ने बीबीसी से कहा, ''हमें अनुच्छेद 370 और अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का फ़ायदा ज़रूर मिलेगा क्योंकि कांग्रेस ने इन मुद्दों को फँसाकर रखा था।
 
रघुबर दास भी चाहते हैं कि चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों की बात हो लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा। दास अपने राजनीतिक करियर का सबसे मुश्किल चुनाव लड़ रहे हैं। इस चुनाव में उनके ख़िलाफ़ विपक्ष गोलबंद है तो पार्टी के भीतर भी सब कुछ ठीक नहीं है।
 
अर्जुन मुंडा का फैक्टर
2014 के झारखंड विधानसभा चुनाव में अर्जुन मुंडा जमशेदपुर से क़रीब 40 किलोमीटर दूर खरसांवा विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार थे। वो यहाँ से चार बार विधायक चुने गए थे। प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहे थे। मुंडा स्टार कैंपेनर थे और बड़े आश्वस्त थे कि खरसांवा में उन्हें बहुत मेहनत की ज़रूरत नहीं है। वो बाक़ी के विधानसभा क्षेत्रों में व्यस्त रहे और उन्हें जेएमएम के दशरथ कृष्ण गगरई ने हरा दिया और रघुबर दास को मुख्यमंत्री बनने का मौक़ा मिल गया। इस बार लोकसभा चुनाव में मुंडा को बीजेपी ने खुंटी से उम्मीदवार बनाया और वो किसी तरह हारते-हारते जीते।
 
खरसांवा से इस बार अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा टिकट चाहती थीं और वहाँ की स्थानीय बीजेपी को भी लगता था कि मीरा उम्मीदवार होतीं तो बीजेपी की झोली में ये सीट होती। लेकिन वहां बनरा के उम्मीदवार बनने से एक बार फिर से जेएमएम के गगरई की लड़ाई आसान हो गई है।
 
जमशेदपुर में एक बड़े अख़बार के स्थानीय संपादक ने नाम नहीं लिखने की शर्त पर बताया कि मीरा को टिकट नहीं देने के पीछे रघुबर दास ही हैं। उनका कहना है कि पिछले विधानसभा चुनाव में अर्जुन मुंडा और रघुबर दास की प्रतिद्वंद्विता किसी से छुपी नहीं थी और इस बार भी उससे कहीं ज़्यादा है। इसी प्रतिद्वंद्विता को कम करने के लिए अर्जुन मुंडा को केंद्र में मंत्री बना दिया गया लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री बनने का मोह उनका ख़त्म नहीं हुआ है।
 
वो कहते हैं, ''बीजेपी के बाग़ी नेता सरयू राय जमशेदपुर पूर्वी से रघुबर दास को कड़ी टक्कर दे रहे हैं तो इसमें अर्जुन मुंडा की भी भूमिका है। जमशेदपुर पूर्वी से सरयू राय बड़ा उलटफेर करते हैं तो इसमें केवल उनकी ही भूमिका नहीं होगी बल्कि अर्जुन मुंडा और पार्टी के एक धड़े की भी बड़ी भूमिका होगी। खरसांवा की हार को अर्जुन मुंडा अब तक पचा नहीं पाए हैं और उन्हें लगता है कि उनकी हार में रघुबर दास की भी भूमिका थी।''
 
राँची में बीजेपी को लंबे समय से करव करने वाले पत्रकारों का कहना है कि सरयू राय और रघुबर दास के बीच की कलह सतह पर खुलकर आ गई थी लेकिन मुंडा और रघुबर दास की कलह भीतर ही भीतर कभी थमी नहीं। अर्जुन मुंडा खुंटी विधानसभा क्षेत्र से भी नीलकंठ सिंह मुंडा को टिकट देना नहीं चाहते थे लेकिन रघुबर दास ने उन्हें ही दिया।
 
रघुबर दास से पूछा कि आपके अर्जुन मुंडा से संबंध अच्छे नहीं हैं और उनकी पत्नी मीरा को आपने खरसांवा से टिकट नहीं दिया तो इसके जवाब में उन्होंने कहा कि पार्टी एकजुट होकर चुनाव लड़ रही है और कोई विवाद नहीं है।
 
'बीजेपी के अंदर कोई विवाद नहीं'
इस बार झारखंड में बीजेपी के ख़िलाफ़ विपक्ष गोलबंद है। कांग्रेस ने जेएमएम को 43 सीटें दी हैं और ख़ुद महज़ 31 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इसके साथ ही आरजेडी के हिस्से में सात सीटें आई हैं। महागठबंधन ने जेएमएम प्रमुख हेमंत सोरेन को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया है।
 
81 सीटों वाली झारखंड विधानसभा में 28 सीटें आदिवासियों के लिए रिज़र्व हैं और महागठबंधन ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार आदिवासी को ही बनाया है। दूसरी तरफ़ बीजेपी के रघुवर दास ग़ैर-आदिवासी हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि आदिवासी वोट बीजेपी के ख़िलाफ़ गोलबंद हो सकता है।
 
राँची के ज़ेवियर कॉलेज से अगपित बीकॉम कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि ऱघुबर दास आदिवासियों के बीच बहुत अलोकप्रिय हुए हैं। अगपित ईसाई आदिवासी हैं। वो कहते हैं, ''आदिवासियों के बीच रघुबर दास की छवि बहुत ठीक नहीं है। काश्तकारी क़ानून में बदलाव पर भले सरकार विवाद के बाद रुक गई लेकिन आदिवासियों के मन में यह बात घर कर गई है कि रघुबर दास आदिवासियों की ज़मीन ग़ैर-आदिवासियों को देना चाहती है।
 
रघुवर दास की सरकार प्रदेश के काश्तकारी क़ानून में बदलाव को लेकर काफ़ी विवाद का सामना कर चुकी है। इसे दास के आदिवासी विरोधी छवि के तौर पर भी पेश किया गया। पुराने काश्तकारी क़ानून से आदिवासियों को अपनी ज़मीन की सुरक्षा मिलती है। विवाद इतना बढ़ा कि बीजेपी को इसमें बदलाव से हाथ पीछे खींचने पड़े। इसके बावजूद यह मुद्दा अब भी ज़िंदा है। आदिवासियों ने इस क़ानून को लेकर बहुत ही तीव्र विरोध प्रदर्शन किया था। खूँटी में तो मुख्यमंत्री रघुवर दास पर लोगों ने जूते और चप्पल भी फेंके थे।
 
रघुबर दास के सामने क्या है चुनौती
2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 72 सीटों पर चुनाव लड़ा और 37 सीटों पर जीत मिली थी। तब आजसू ने बीजेपी के साथ चुनाव लड़ा था और उसे आठ में से पाँच सीटों पर जीत मिली थी। बीजेपी का वोट शेयर 31।26 फ़ीसदी था।
 
तब विपक्ष एकजुट नहीं था और सबने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। कांग्रेस को केवल छह सीटों पर जीत मिली थी और जेएमएम को 19। बाबूलाल मरांडी को आठ सीटों पर जीत मिली थी। बाद में मरांडी के छह विधायक दल बदल बीजेपी में शामिल हो गए थे।
 
2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी विरोधी वोट एकजुट नहीं पाई थी और विपक्ष की एकजुटता भी नाकाम रही थी। लेकिन विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में वोट देने का पैटर्न अलग-अलग रहता है। इसलिए रघुवर दास की राह आसान नहीं है। इस पैटर्न को हरियाणा और महाराष्ट्र से भी समझा जा सकता है जहां बीजेपी 2014 के नतीजे दोहराने में नाकाम रही।
 
बीजेपी के लिए आजसू और लोक जनशक्ति पार्टी से भी परेशानी हो सकती है। आजसू पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी के साथ थी और उसने आठ में पाँच सीटों पर जीत दर्ज की थी। इस बार आजसू ने 19 सीटों की माँग रख दी लेकिन बीजेपी तैयार नहीं हुई। ऐसे में आजसू का बीजेपी से गठबंधन टूट गया। आजसू ने 12 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं। एलजेपी को 2014 में बीजेपी ने एक सीट दी थी लेकिन उस पर भी हार मिली थी। लेकिन इस बार एलजेपी अकेले ही सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है।
 
लोकसभा चुनाव के नतीजों से बीजेपी को लगता है कि वो अकेले भी चुनाव जीत सकती है। दुमका जेएमएम कि क़िला माना जाता है लेकिन इस बार के चुनाव में बीजेपी के सुनील सोरेन ने जेएमएम के संस्थापक सिबू सोरेन को 48 हज़ार मतों से हरा दिया था। उसी तरह कोडरमा को पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का गढ़ माना जाता है लेकिन वहाँ भी बीजेपी ने बड़े अंतर से चुनाव जीता। मरांडी को आरजेडी से बाग़ी होकर बीजेपी में आईं अन्नपूर्णा देवी ने हरा दिया था। तब अन्नपूर्णा देवी आरजेडी के झारखंड प्रमुख थीं। मरांडी कोडरमा से महागठबंधन के उम्मीदवार थे और उन्हें साढ़े चार लाख से ज़्यादा मतों से हार मिली थी।
 
कितनी सीटें निकाल पाएंगे रघुबर?
15 नवंबर 2000 में झारखंड बनने के बाद से यहाँ अब तक नौ मुख्यमंत्री बन चुके हैं। इनमें राष्ट्रीय पार्टियों से लेकर क्षेत्रीय पार्टियों और यहाँ तक कि निर्दलीय विधायक के हाथ में भी झारखंड की सत्ता आई। खंडित जनादेश के कारण यहाँ राजनीतिक अस्थिरता रही और सत्ता आती जाती रही। इसमें राजनीतिक मौक़ापरस्ती का भी बड़ा रोल रहा। पहचान आधारित राजनीति झारखंड में लंबे समय से रही है। यहाँ के लोग मतदान मुख्य रूप से जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर करते हैं।
 
राँची में उर्दू दैनिक रोज़नामा अलहयात के संपादक मोहम्मद रहमतुल्लाह को लगता है कि इस बार रघुबर दास के नेतृत्व में बीजेपी 30 से ज़्यादा सीटें नहीं जीत पाएगी। वो कहते हैं, ''रघुबर दास सीएम तभी बन पाएँगे जब बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिलेगा। इस बार कहीं से भी लग नहीं रहा कि बीजेपी बहुमत का आँकड़ा छू पाएगी। रघुबर दास को भरोसा है कि पीएम मोदी के नाम पर लोग बीजेपी को जीता देंगे लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा। अगर बीजेपी 30-35 सीटों तक रह गई तो आजसू रघुबर दास के नाम पर समर्थन नहीं देगी। ऐसे में बीजेपी को रघुबर दास के अलावा किसी और को सीएम बनाने पर मजबूर होना पड़ेगा।''
 
हालाँकि रघुबर दास को लगता है कि उन्हें किसी से भी समर्थन लेने की ज़रूरत नहीं पड़ेगा और वो इस चुनाव को पिछले विधानसभा चुनाव से भी आसान बता रहे हैं। बीजेपी को बाग़ी नेता सरयू राय कहते हैं बीजेपी इस बार 15 सीट से ज़्यादा नहीं जीत पाएगी।

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