ब्रिटेन के 'राज ठाकरे'

रविवार, 25 अक्टूबर 2009 (23:27 IST)
-राजेश प्रियदर्शी
मैं उन अस्सी लाख लोगों में शामिल था जिन्होंने ब्रिटिश नेशनल पार्टी (बीएनपी) के निक ग्रिफिन को गुरुवार की रात टीवी पर देखा, मैं उन लोगों में भी हूँ जिन्हें वे 'अपने देश' से निकाल देने का नारा बुलंद करते रहे हैं।

निक ग्रिफिन को देखकर लग रहा था कि राज ठाकरे थोड़े ज्यादा गोरे और मोटे हो गए हैं। दोनों ही मुझ जैसे लोगों को अपनी 'प्रिय मातृभूमि' से भगा देना चाहते हैं।

ग्रिफिन अगर 'गंदे भूरे' लोगों से कुछ सीखना चाहें तो महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के राज ठाकरे उन्हें बहुत कुछ सिखा सकते हैं, खास तौर पर तोड़फोड़ और मारधाड़ के मामले में।

ठाकरे की तुलना में ग्रिफिन की हालत यूँ भी थोड़ी कमज़ोर रही है क्योंकि ब्रितानी मीडिया ने तय नीति के तहत उन्हें लगभग पूरी तरह 'ब्लैकआउट' कर रखा था, धमकियों के सीधे प्रसारण का ठाकरे वाला सुख उन्हें नसीब नहीं रहा।

जब ग्रिफिन को बीबीसी टीवी ने अपने प्रतिष्ठित कार्यक्रम 'क्वेश्चन टाइम' (प्रश्नकाल) में शामिल होने का न्योता दिया तो जोरदार बहस छिड़ गई। बहस इतनी तीखी हुई कि कई सांसदों ने बीबीसी पर मुकदमा करने की धमकी दी।

ब्रितानी मंत्रिमंडल दो खेमों में बँट गया, एक समूह बहस के जरिये उनकी नीतियों की पोलपट्टी खोलने का हामी था, तो दूसरा उन्हें मंच दिए जाने के सख्त खिलाफ। बीबीसी के दफ्तर के बाहर तरह-तरह के गुटों, यहाँ तक कि पत्रकारों ने भी उन्हें टीवी पर दिखाए जाने के खिलाफ प्रदर्शन किया।

निक ग्रिफिन को देखकर लग रहा था कि राज ठाकरे थोड़े ज्यादा गोरे और मोटे हो गए हैं। दोनों ही मुझ जैसे लोगों को अपनी 'प्रिय मातृभूमि' से भगा देना चाहते हैं
ग्रिफिन के सही या गलत होने पर कोई बहस नहीं थी। वैसी भी उनकी नीतियाँ इतनी ब्लैक एंड व्हाइट हैं कि बहस की कोई गुंजाइश है भी नहीं, बहस इस बात पर थी कि 'गोरे लोगों के वर्चस्व' की घोर अलोकतांत्रिक राजनीति करने वाले व्यक्ति के बहिष्कार का फैसला क्यों बदला जाए?

लोकतंत्र के तकाजे कई बार उसकी जड़ें खोदने वालों के ज्यादा काम आते हैं।

उन्हें टीवी पर दिखाए जाने की सबसे बड़ी दलील ये थी कि अगर उन्हें चुनाव लड़ने से नहीं रोका जा सकता, चुनाव जीतने से नहीं रोका जा सकता तो फिर एक निर्वाचित जन-प्रतिनिधि को टीवी पर आने से कैसे रोका जा सकता है?

बहरहाल, वे टीवी पर आए। लोगों ने बीसियों बार साबित किया कि वे झूठ बोल रहे हैं, अपनी वीडियो रिकॉर्डिंगों तक से मुकर रहे हैं, उन्हें इतिहास, भूगोल, राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान...किसी विषय की समझ नहीं है।

सिर्फ गोरे लोगों को अपनी पार्टी की सदस्यता देने वाले ग्रिफिन बार-बार यही कहते रहे कि यह कितने दुख की बात है कि ब्रिटेन जैसे देश में एक गोरे ईसाई का मुँह बंद कराया जा रहा है।

मुख्यधारा की तीनों पार्टियों के नेताओं ने कहा कि ग्रिफिन बेनकाब हो गए हैं और अब उनकी राजनीति का अंत हो जाएगा लेकिन अगले दिन खबर आई कि तीन हजार लोगों ने उसी रात उनकी पार्टी की सदस्यता की अर्जी दी जब वे टीवी पर आए।

मीडिया के 'ऑक्सीजन की सप्लाई' एक बहुत पेचीदा मामला है, यह सप्लाई किसको, किन परिस्थितियों में, कितनी मिलनी चाहिए इसका कोई सीधा या सही-गलत जवाब किसी के पास नहीं है।

वेबदुनिया पर पढ़ें