बिहार में नहीं चला 'मोदी मैजिक', हार के 10 बड़े कारण

रविवार, 8 नवंबर 2015 (13:00 IST)
पहले ‍दिल्ली विधानसभा चुनाव फिर बिहार चुनाव में करारी हार ने साबित कर दिया है कि नरेन्द्र मोदी का तिलिस्म टूट रहा है। अमेरिका के मेडिसन स्क्वेयर पर भले ही वे कितनी भी भीड़ जुटा लें, विदेशी मीडिया में कितनी ही सुर्खियां बटोर लें, लेकिन जब वोट की बात आती है तो देश की जनता के सामने ही झोली पसारना पड़ती है। अपने विदेशी दौरों पर फूलकर कुप्पा हुए मोदी लगता है अपने ही बिहार के लोगों की नब्ज को समझने में नाकाम रहे हैं। आइए जानते हैं बिहार में एनडीए या फिर भाजपा की हार के बड़े कारण....
नरेन्द्र मोदी का टूटता तिलिस्म : इस चुनाव परिणाम का सबसे ज्यादा प्रभाव यदि किसी व्यक्ति पर पड़ा है तो वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि पर। बिहार चुनाव में भाजपा की करारी हार से देश और दुनिया में यह संदेश जरूर गया है कि मोदी का तिलिस्म टूट रहा है। जिस उम्मीद के साथ लोगों ने उन्हें लोकसभा में भारी बहुमत दिया था, लगता है वह उम्मीद अब टूट रही है, क्योंकि इस चुनाव में मुकाबला एनडीए और महागठबंधन में न होकर नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार के बीच था। दूसरी ओर मोदी के धुआंधार प्रचार के बावजूद भाजपा इस चुनाव में बहुमत के लायक सीटें नहीं जुटा सकी। हालांकि अब यह भी माना जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी के आक्रामक चुनाव प्रचार और ज्यादा सभाओं का नकारात्मक असर ही हुआ। 
 
महंगाई मार गई : बिहार में एनडीए की हार में एक बड़ा कारण रहा खाद्य पदार्थों की महंगाई। हम सबको याद होंगे लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के वे भाषण जिनमें वे ऊंची आवाज में कहा करते थे कि गरीबी की थाली से दाल गायब हो रही है, तब दाल के भाव 70-80 रुपए के आसपास थे, जबकि आज ये भाव 150 रुपए से ऊपर निकल गए हैं। यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि मोदी ने एक बार भी अपने भाषण में महंगाई की बात नहीं की। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वोट के लिए ‍निकलने वाला वर्ग वही है जो महंगाई से सबसे ज्यादा प्रभावित होता है।  अगले पन्ने पर, भारी पड़ा बिहारी का मुद्दा... 
 
 

बाहरी बनाम बिहारी का मुद्दा : महागठबंधन की ओर से नीतीश कुमार एकमत से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे, जबकि एनडीए की ओर से कोई नाम सामने नहीं आया। इसके चलते लालू और नीतीश ने बाहरी बनाम बिहारी के मुद्दे के जमकर भुनाया। वे लोगों को समझाने में सफल रहे कि मोदी और अमित शाह बिहार में किसी बाहरी व्यक्ति को थोप सकते हैं। इस मामले में रणनीतिक रूप से भी भाजपा ने भी मुंह की खाई क्योंकि दिल्ली में भी भाजपा को मुख्‍यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं करना काफी भारी पड़ा था। 
मुस्लिम-यादव समीकरण : एनडीए बिहार में लालू और नीतीश के मुस्लिम यादव समीकरण को तोड़ने में नाकाम रहा। मोदी के लालू का जंगल राज और शैतान जैसे जुमले लोगों पर असर नहीं छोड़ पाए। दूसरी ओर चारा घोटाले में दोषी होने के बावजूद लालू यादव अपनी अनूठी चुनाव प्रचार शैली से अपने मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में सफल रहे। बिहार एमएमआई नेता असदुद्दीन ओवैसी की मौजूदगी भी एनडीए को कोई फायदा नहीं दिला पाई। क्योंकि ऐसा माना जा रहा था कि ओवैसी की मौजूदगी से मुस्लिम मतदाता बंट जाएगे, जिसका सीधा फायदा भाजपा नीत गठबंधन एनडीए को होगा। 
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टिकट वितरण को लेकर असंतोष : एनडीए में टिकट वितरण को लेकर शुरू से ही असंतोष देखा गया। आईएएस अधिकारी से भाजपा सांसद बने आरके‍ सिंह ने टिकट वितरण को लेकर नाराजी जाहिर की थी। उस समय उन्होंने कहा था कि भाजपा अपराधियों को टिकट दे रही है। शत्रुघ्न सिन्हा पूरे चुनाव के दौरान पार्टी को मुश्किल में डालने बयान देते रहे। भाजपा जिन जीतनराम मांझी से महादलित वोट हासिल करने की उम्मीद लगाए बैठी थी, वे भी उसकी नैया को पार नहीं लगा सके। रामविलास पासवान, उपेन्द्र कुशवाहा और मांझी से सीटों के तालमेल के चलते भाजपा के स्थानीय नेताओं ने खुद को उपेक्षित महसूस किया और उन्होंने पूरी ऊर्जा के साथ काम नहीं किया। इसका खामियाजा भी पार्टी को भुगतना पड़ा। 
भाजपा नेताओं की बदजुबानी : प्रधानमंत्री ने नीतीश कुमार तथा लालूप्रसाद यादव पर सीधे व्यक्तिगत हमले किए जिनका खामियाजा भी पार्टी को भुगतना पड़ा। यह भी नहीं भुलना चाहिए कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने अरविंद केजरीवाल को निशाना बनाया था और आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीत लीं। इससे बिहार में भी यह संदेश गया कि बिहार में प्रधानमंत्री बनाम नीतीश और लालू हैं और जनता ने स्थानीय नेताओं को तवज्जो दी। भाजपा के फायर ब्रांड नेताओं ने लगातार सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। साक्षी महाराज, साध्वी प्रज्ञा, कैलाश विजयवर्गीय और महंत आदित्यनाथ ने लगातार मुस्लिमों के खिलाफ जहर उगला, जिससे उनका ध्रुवीकरण महागठबंधन के पक्ष में हो गया। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री की खामोशी को भी लोगों ने सही नहीं माना।     
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आरक्षण पर मोहन की 'भागवत' :  आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने चुनावों के दौरान कहा था कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए। अब तक का आरक्षण राजनीति से प्रेरित था जिसकी अब दुबारा से व्याख्या होनी चाहिए। यह दांव भी एनडीए के लिए उलटा पड़ गया। मोदी ने अपनी चुनावी रैलियों में मरते दम तक आरक्षण बनाए रखने की बात कही, लेकिन लालू यादव ने इस मुद्दे पर भाजपा को जमकर घेरा और महादलितों, पिछड़े और अन्य पिछड़ा वर्ग ने भाजपा के खिलाफ वोटिंग की।
वनमैन शो : भाजपा ने एक बार फिर से अपनी चिर-परिचित शैली अपनाते हुए मोदी के वन मैन शो पर अत्यधिक भरोसा किया। पूरे चुनाव के दौरान गृहमंत्री राजनाथसिंह, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जैसे बड़े हाशिए पर ही रहे। कहीं न कहीं इस तरह के बड़े नेताओं से जुड़े लोगों ने पार्टी के लिए पूरे उत्साह से काम नहीं किया। 
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हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण में नाकामी :  चाहे गोमांस का मुद्दा हो या फिर अमित शाह का भाजपा की हार पर पाकिस्तान में पटाखे फूटने संबंधी बयान हो, भाजपा हिन्दू मतों का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने में नाकाम रही। दूसरी ओर दादरी में गोमांस के मुद्दे पर मुस्लिम की हत्या के मुद्दे पर लालू ने भाजपा को निशाने पर लिया और वे अपने परंपरागत मुस्लिम वोटरों को अपने पक्ष में करने में सफल रहे। सांप्रदायिकता और असहिष्णुता बड़ा मुद्दा बन गया, जिससे भाजपा के विकास के नारे की भी हवा निकल गई।

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नीतीश का सुशासन : बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राज्य में स्वच्छ छवि है। ऐसा कोई भी मुद्दा नहीं था जो उनके खिलाफ जाता हो, साथ ही जनता उनके मुख्यमंत्रित्व के कार्यकाल से भी संतुष्ट दिखाई दी। लालू के राजद का साथ उनकी जीत में सोने पर सुहागा बना। 
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