ब्रिटेन को चाहिए बेंत वाले मास्टरजी!

मंगलवार, 27 सितम्बर 2011 (14:45 IST)
ब्रिटेन में पिछले दिनों हुए एक सर्वेक्षण में लगभग 50 प्रतिशत अभिभावकों ने यह इच्छा जताई कि स्कूलों में बच्चों की बेंत से पिटाई का चलन फिर शुरू कर देना चाहिए। वहां के सरकारी स्कूलों में बच्चों की पिटाई पर 1986 में प्रतिबंध लगा दिया गया था और निजी स्कूलों से भी ऐसा ही करने को कहा गया था।

ऐसा नहीं है कि तब कोई बड़ा बहुमत बच्चों की पिटाई के खिलाफ था। संसद में इस संबंध में लाया गया प्रस्ताव मात्र एक वोट से पारित हो सका था। वह भी इसलिए कि पिटाई समर्थक कई सांसद राजकुमार एंड्रयू के विवाह की तैयारियों के कारण हुए ट्रैफिक जाम में फंस गए थे।

कड़े अनुशासन की पक्षधर मानी जाने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर अमेरिका की प्रथम महिला नैन्सी रेगन के साथ डिनर में व्यस्त होने के कारण संसद में गैरमौजूद थीं और इस बीच यह विधेयक एक वोट से पारित हो गया। बेंत से पिटाई ही नहीं, थप्पड़ मारना व अन्य तरह की हिंसात्मक सजाओं पर भी पाबंदी लग गई। अब कई लोग फिर से उन्हीं हिंसक सजाओं को वैध होते देखना चाहते हैं।

उनका मानना है कि बच्चों में अनुशासनहीनता बढ़ गई है और वे शिक्षकों तथा अन्य बड़ों को पर्याप्त आदर नहीं देते, अत: उन्हें सही रास्ते पर लाने के लिए कानून वैध पिटाई की ओर लौटना जरूरी है। सुनने में थोड़ा अजीब सा लगता है कि जिस प्रथा को 25 साल पहले मध्ययुगीन बर्बरता की निशानी मानकर रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया था, इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में उसी की वापसी की मुरादें पाली जा रही हैं। वह भी ब्रिटेन जैसे विकसित, उदारवादी तथा प्रगतिशील कहे जाने वाले देश में।

यूं ब्रिटेन के अलावा कई अन्य देशों में भी स्कूलों में बच्चों की पिटाई पर प्रतिबंध रहा है। अलग-अलग देशों ने इस संबंध में कई तरह के किंतु-परंतु भी लगा रखे हैं, कि आप बच्चे को इस-इस तरह से मार सकते हैं और उस-उस तरह से नहीं, कि माता-पिता उसे मार सकते हैं लेकिन शिक्षक नहीं, कि अमुक से तमुक उम्र तक के बच्चों की पिटाई की जा सकती है लेकिन उससे कम या ज्यादा उम्र वालों की नहीं वगैरह।

कुछ ऐसे भी देश हैं जहां कहने को बच्चों की पिटाई पर प्रतिबंध लागू है मगर इसका पालन नहीं होता। अनुशासन के नाम पर बच्चों की पिटाई निश्चित ही उस युग की देन है जब शारीरिक बल मसलों को सुलझाने का माध्यम हुआ करता था। 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' का सिद्धांत सर्वत्र स्वीकार्य था। जब सही और गलत का हर फैसला बाहुबल के आधार पर होता था, तो बच्चों की घोर अनुशासनहीनता से लेकर उनकी छोटी-मोटी शरारतों तक का समाधान पिटाई के रूप में देखा जाना स्वाभाविक था।

जब बाकी मामलों में मनुष्य 'सभ्य' हो चला, तब भी बच्चों को अनुशासित करने के उसके तौरतरीकों में सभ्यता का प्रवेश वर्जित-सा रहा। यह बड़ी अजीब बात लगती है कि हम शेष कार्यों में सुसभ्यता और सुसंस्कृतता का आग्रह करें लेकिन अपनी ही भावी पीढ़ी की परवरिश में आदिम परंपराओं को जारी रखें।

हमारे यहां आज स्थिति में थोड़ा बदलाव तो आया है, आधिकारिक स्तर पर स्कूलों में बच्चों की पिटाई प्रतिबंधित है लेकिन यह बात और है कि गांवों के सरकारी स्कूलों से लेकर महानगरों के पंचसितारा स्कूलों में भी कई जगह आपको बच्चों के पिटने क‍े किस्से मिल जाएंगे। गत वर्ष कोलकाता के एक प्रतिष्ठित स्कूल के 12 वर्षीय छात्र द्वारा प्रिंसिपल के हाथों पिटने के बाद आत्महत्या कर लेने की त्रासदी ने इस विषय की ओर लोगों का ध्यान खींचा था।

एक जुमला हमारे बड़े बुजुर्गों में काफी प्रचलित रहा है, जिसके समर्थक आज भी मौजूद हैं, 'छड़ी पड़े छम-छम, विद्या आवे धम-धम'। गोया छड़ी से पीटे बिना किसी को विद्यावान बनाना संभव ही न हो। गौर करें, इस जुमले में बिगड़े बच्चे को सुधारने, किसी गलती की सजा देने का तर्क भी नहीं है। यहां तो कहा जा रहा है कि पीटने से बच्चा पढ़-लिख जाएगा। पीटना जरूरी है, वरना बच्चा अज्ञानी रह जाएगा। बहुत समय नहीं हुआ, जब स्कूल मास्टर की छवि का एक अनिवार्य अंग उसके हाथ में मौजूद छड़ी हुआ करती थी।

अंग्रेजी में भी एक कहावत ने लंबे समय तक अपने समर्थकों के दिलों पर राज किया है : 'स्पेयर द रॉड एंड स्पॉइल द चाइल्ड।' छड़ी का उपयोग नहीं किया तो बच्चा बिगड़ जाएगा। बच्चे को 'अनुशासित' करने, उसे इंसान बनाने के लिए पीटने के अलावा भी कई तरह की शारीरिक सजाएं चलन में रही हैं, जो निरपेक्ष भाव से देखने पर बेतुकी भी लग सकती हैं, हास्यास्पद भी। बेंच पर खड़ा कर देने से बच्चे को क्लास का टॉप एंगल नजारा दिख सकता है लेकनि अपनी गलती दिखाई देगी, इसकी संभावना कम ही है।

हाथ ऊपर कर खड़ा रखने से उसके हाथों में रक्त प्रवाह भले ही कम हो जाए, उसके भेजे में विद्या का प्रवाह बढ़ जाएगा, इसकी गारंटी नहीं है। घुटने के बल खड़ा करने से उसे दर्द ही होगा, उसका जिद्दीपन घुटने टेकेगा, यह दावा नहीं किया जा सकता।

क्लास से बाहर करना जात-बाहर करने या जिलाबदर करने का क्लासरूप-स्तरीय संस्करण है। यह और बात है कि जो आदतन शरारती है, उसके लिए तो क्लास से बाहर किया जाना भी एक किस्म की आजादी ही है। 'तारे जमीं पर' का वह दृश्य याद है न आपको, जिसमें बालक क्लास-बाहर किए जाने पर वहीं खड़े-खड़े ब्रेकडांस करने लगता है?

एक साथ एक से ज्यादा लड़कों को क्लास से बाहर करना तो गलियारे में उधम के नए अध्याय की शुरुआत को न्योता देना होगा। फिर बच्चों को सही राह पर लाने में 'मुर्गे' के योगदान को भला कैसे भुलाया जा सकता है। बच्चे को फूहड़ मुद्रा में खड़ा करके उसे 'मुर्गा' घोषित करने की यह परंपरा आज भी चली आ रही है, तो सिर्फ इसलिए कि इस संसार के मुर्गों को अपबने आत्मसम्मान की रक्षा के अधिकार संबंधी ज्ञान नहीं है।

वरना यह सजा कभी की मानहानि के मुकदमे की भेंट चढ़ चुकी होती। इसे विडंबना ही कहेंगे कि मनोविज्ञान के क्षेत्र में व्यापक प्रगति के बावजूद बच्चों में अनुशासन लाने के लिए हम आज भी ताकत के खौफ पर निर्भर हों, शारीरिक पीड़ा के सहारे रहें। ब्रिटेन में हुआ सर्वेक्षण उल्टी गंगा बहाने का खतरनाक मंजर पेश करता है।

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