"दबंग" जैसी फूहड़ फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने की आलोचना बहुत लोगों ने की है। मगर आमिर खान का अंदाज निराला है। उन्होंने न तो एक भी शब्द दबंग के बारे में कहा है न एक शब्द राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए गठित जूरी को कहा है, मगर सब महसूस कर रहे हैं कि जैसा जूता आमिर खान ने मारा है, वैसा किसी ने नहीं मारा।
राष्ट्रीय पुरस्कारों समेत किसी भी पुरस्कार के लिए अपनी किसी भी फिल्म को न भेजने का फैसला आमिर ने बहुत देख-भाल कर लिया है। वे सारी पोलें देख चुके हैं। दबंग को पुरस्कार मिलना तो जैसे एक हद हो जाना था। सो आमिर कह रहे हैं कि जब राष्ट्रीय पुरस्कारों का हाल यह है, तो वे बिना पुरस्कार के ही भले हैं।
ऐसी ही निराशा उन्हें तब हुई थी जब लगान को ऑस्कर नहीं मिला था। वो निराशा तब गुस्से में बदली होगी जब उन्होंने "स्लमडॉग मिलियनेयर" जैसी (घटिया और अतिरंजित) फिल्म पर ऑस्कर की बारिश होते देखी। हालाँकि आमिर खान ने जो फिल्में बनाईं वे भी ऑस्कर के लायक नहीं थीं। मगर यह अच्छा है कि वे पुरस्कारों के इस गोरखधंधे से बाहर आ गए हैं।
हमारे देश में यूँ भी पुरस्कारों का कोई महत्व नहीं है। पुरस्कार के साथ कोई राशि नहीं मिलती। पुरस्कार मिलने से फिल्म की वैल्यू नहीं बढ़ती। अकसर तो पुरस्कार मिलते ही तब हैं, जब फिल्म खा-कमा कर एक तरफ बैठ चुकी होती है। फिर आत्मसंतोष से बड़ा पुरस्कार क्या होगा? बनाने वाले को पता होना चाहिए कि उसने बेहतरीन का सृजन किया है। पहला पुरस्कार है आत्मसंतोष और दूसरा बड़ा इनाम है दर्शकों का प्यार।
आमिर खान को फिलहाल तो अपनी सभी फिल्मों पर ये दोनों चीजें मिल रही हैं। आमिर खान जैसा सितारा बेहतरीन सिनेमा की पहचान है। ऐसे सितारे को ऑस्कर का भी अनुमोदन क्यों चाहिए और राष्ट्रीय पुरस्कार भी उसके सामने क्या मायने रखते हैं?
आमिर के इस कदम के बाद खानों के बीच जंग और तेज हो जाएगी। आमिर खान के प्रति सलमान खान की नापसंदगी और ज्यादा बढ़ सकती है। बहरहाल सार्थक और बेहतरीन सिनेमा की जो उपेक्षा पुरस्कार देने वाले करते हैं, उसके बदले में आमिर खान ने जो तमाचा मारा है, उससे बहुतों का दिल हल्का हुआ है।