देवानंद पर फिल्माया वो गाना किसने नहीं सुना..."मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया..."। बस इस एक गाने ने इतने लोगों को सिगरेट से लगाया है कि सिगरेट के हजारों-हजार विज्ञापन नहीं लगा सकते। सिगरेट कंपनियों को चाहिए कि इस फिल्म के गीतकार, निर्देशक और खासकर देवानंद को उम्रभर पैसा देते रहें।
फिल्म का गीत इस तरह फिल्माया गया है कि पूरा गाना सिगरेट का विज्ञापन बन गया है। धुआँ उड़ाता हुआ नायक, पानी में बहता सिगरेट का टोटा, नायक की नौजवानी, मस्ती और अंदाज...। जाने कितने लोगों ने इस गाने को देख-सुनकर सिगरेट पीनी सीखी होगी और अब तक उनमें से न जाने कितनों को कैंसर, टीबी, दमा हो गया होगा। न जाने कितने मर गए होंगे और न जाने कितने मरने वाले होंगे।
ये गीत स्थापित करता है कि सिगरेट पीना बुरी बात नहीं है (नायक पीता है)। ये गीत यह भी स्थापित करता है कि सिगरेट पीकर गम और जिंदगी के दुःख-दर्द भुला देना चाहिए (जिस तरह नायक भुलाता है)।
स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास अगर सुप्रीम कोर्ट जाकर यह कह रहे हैं कि 72 फीसद युवा फिल्में देखकर ही सिगरेट पीना सीखते हैं, तो गलत नहीं कह रहे। उनकी यह माँग भी सही है कि सिनेमा के पर्दे पर सिगरेट का महिमामंडन और प्रदर्शन बंद होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि सरकार सिगरेट बनाने ही क्यों देती है।
यह बात ठीक है, मगर सिगरेट को जितना हो सके रोका तो जाना ही चाहिए। अंबुमणि रामदास के हाथ में यह तो नहीं है कि वे सिगरेट-बीड़ी का बनना बंद करा दें और तंबाकू पाउचों के कारखानों पर ताले लगवा दें। पर इतना तो वे कर ही सकते हैं कि फिल्म के नायक को सिगरेट का अघोषित प्रचार न करने दें।
कुछ लोग कहते हैं कि सिनेमा में जिंदगी की सचाई दिखाई जाती है, इसलिए सिगरेट पीना भी दिखाया जाना चाहिए। मगर किसी भी फिल्म में तंबाकू चबाने और सिगरेट पीने वाले नायक को नायिका यह नहीं कहती कि तुम्हारे मुँह से सिगरेट की बू आ रही है, जाओ पहले ब्रश करके आओ। जाँबाज नायक को कभी सिगरेट पीने से खाँसी आते, टीबी, दमा या कैंसर होते नहीं दिखाते। यह कैसी जिंदगी की सचाई है, जो एकतरफा है। ये कैसी जिंदगी की सचाई है जिसमें सिगरेट का महिमामंडन तो होता है, महिमाखंडन नहीं होता?
पर्दे पर दिखाई देने वाला नायक युवाओं का आदर्श होता है। यदि वो सिगरेट का धुआँ उड़ाएगा, तो युवा भी जरूर उड़ाएँगे। अंबुमणि रामदास के एक नेक काम को चुनौती दी है अंधविश्वासी, कामुक और हिंसक फिल्में बनाने वाले महेश भट्ट ने जिनके सामाजिक सरोकार कुछ नहीं हैं। धर्मनिरपेक्षता का पक्षधर होने के अलावा जिन्होंने सामाजिक जीवन में कोई पुण्याई अपने नाम नहीं की है। पर्दे पर नायक का बीड़ी-सिगरेट पीना बंद होना ही चाहिए। अचरज की बात है कि धर्म-संस्कृति, नैतिकता के नाम पर तोड़फोड़ करने वाले लोग सिगरेट तथा अन्य बुराइयों पर ऐतराज नहीं करते। क्या सिगरेट-बीड़ी पीना हमारी संस्कृति है?