फिल्म की शुरुआत में हम एक जलती हुई बिल्डिंग देखते हैं और यह बिल्डिंग आगे जितनी बार पर्दे पर आती है उतनी बार कहानी कहने और देखने वाले का नज़रियां सामने आता है। ऐसा नहीं है कि इस तरह की फिल्में पहले नहीं बनी लेकिन कोरीदा की खूबसूरती ही यही है कि वो आम इंसान के एहसासों को, उनके सोचने के तरीकों को और अपने किरदारों को ऐसे पर्दे पर उतारते हैं जहां हम उनकी जिंदगी का हिस्सा हो जाते हैं।
फिल्म की कहानी है एक दस साल के लड़के और उसकी मां की है, पिता नहीं हैं और फिर यूं लगता है कि बच्चा स्कूल में मुश्किलों से गुजर रहा है। लेकिन यह मुश्किलें किस वजह से हैं, यह इस कहानी को कई घुमावदार गलियों से ले जाता है।
ख़दीजा को हम फिल्म की शुरुआत में एक कार में जाते हुए देखते हैं, जिस तरह से कार जा रही है और वो सब घबराए हुए हैं किसी अनहोनी का अंदेशा हो ही जाता है। लेकिन अनहोनी तो तब होती है जब ख़दीजा का फोन आता है, कहानी सीधे पंद्रह साल आगे जाती है जब दोनों लडकियां बड़ी हो गई है और अपनी मां के साथ कोर्सिका वापस लौट रही हैं। हर परिवार की तरह यहां भी बहुत सी बातें हैं जो साफ़ साफ़ कही नहीं गई, समझायी नहीं गई और इन्हीं बातों के इर्द गिर्द फिल्म आगे बढ़ती है।
इस फिल्म के साथ भी शुरुआती दौर में मुश्किलें आई क्योंकि कई लोगों ने पंद्रह और सत्रह साल के बच्चों के बीच नजदीकी को पर्दे पर दिखाने को गलत बताया। लेकिन यह सीन आखिरकार फिल्म में रखा नहीं गया और फिल्म का प्रीमियर बिना किसी हो हल्ले के पूरा हुआ। फिल्म में बहुत सी बातें हैं जो इन लोगों की जिंदगी की तरह ही अधूरी ही रहती हैं लेकिन दोनों बहनों को और उनके रिश्ते को देखना बहुत ही शानदार है।