थिएटरवाला नसीर

- ज्योत्स्ना भोंडवे

आमतौर पर देखने में आता है कि रंगमंच से फिल्मों में आने वाले कलाकार रंगमंच को अपना पहला प्यार बताते जरूर हैं और अच्छा किरदार न मिलने का शिकवा भी करते हैं, लेकिन हिन्दी फिल्मों व अँगरेजी-हिन्दी रंगमंच पर एक कामयाब "कलाकार" ऐसा भी है, जो मनचाहे नाटक में मनचाहा किरदार, फिर चाहे वह छोटा हो या बड़ा, निभाने की तैयारी रखता है। वह है- "नसीरुद्दीन शाह"। जो 20 जुलाई को उम्र के 60वें साल में प्रवेश करने जा रहे हैं।

पार, स्पर्श, जुनून, मंथन, निशांत, आक्रोश, मिर्च मसाला, पार्टी, मिर्जा गालिब, मौसम, इकबाल... जैसी कामयाब हिन्दी फिल्मों के साथ वेटिंग फॉर गोदो, द लेसन, मैरेज प्रपोजल, डियर लॉयर जैसे अँगरेजी के नाटकों में भी उनकी अदाकारी जवाँ रही है। अलहदा सोच के किरदारों को अपनी अदाकारी में पेश करने वाले नसीर के अभिनय का जवाब नहीं। फिल्मी दुनिया में वे मोतीलाल व बलराज साहनी के बाद ऐसे प्रतिभावान कलाकार हैं, जिनकी असल पहचान बतौर "थिएटरवाला" है, जिनकी अपनी नाट्य संस्था "मोटली" भी 30वें (26 जुलाई) वर्ष में प्रवेश करने जा रही है।

आठ साल की उम्र में रंगमंच पर आने वाले नसीर का जन्म ही "कलाकार" बनने के लिए हुआ। घर में नाटक की कोई परंपरा नहीं रही। बावजूद इसके अच्छी अँगरेजी व साहित्य के प्रति रुझान के चलते उम्दा किताबों में दिलचस्पी और वास्ता रहा। मजे की बात तो यह कि तब भी उन्हें स्कूल के नाटकों में कभी मौका नहीं मिला। वजह नसीर के मुताबिक मौके हमेशा ही अव्वल आने वालों के खाते में रहते थे और चूँकि मैं पढ़ाई में कमजोर था, सो सवाल ही पैदा नहीं होता। हालाँकि मेरे दोनों भाइयों को कई बार मौके व पुरस्कार भी मिले, जिनमें से एक अब फौज में है और दूसरा प्रशासनिक अधिकारी।

इन सबके बावजूद अभिनय की लगन उनमें बचपन ही से रही। सो नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) के स्नातक नसीर को नाटकों की लगन अलीगढ़ से दिल्ली ले आई, जहाँ वे अलकाजी के निर्देशन में ओमपुरी के साथ नाटकों में रम गए। फिर तो अभिनय के नए-नए आयाम उनके सामने खुलते चले गए, जहाँ हर नाटक, हर किरदार, हर प्रयोग उनकी सोच में इजाफा करता रहा। तभी तो आज वे खुद बताते हैं कि "वेटिंग फॉर गोदो" एनएसडी के सिलेबस में होने के बावजूद मेरी समझ में नहीं आया तो मैंने उत्तर-पुस्तिका में लिख दिया- "नाटककार ने यह नाटक लिखकर लोगों को बेवकूफ बनाया है", लेकिन समय के साथ अक्ल के दालान चौड़े होते गए... और जब 79 में फिर इसे किया गया तो नसीर की अनोखी अदाकारी देखने को मिली।

नाटकों के प्रति यही दीवानगी थी, जो बेंजामिन गिलानी के साथ हजरतगंज की कॉफी शॉप में बैठ "मोटली थिएटर" की कल्पना को साकार किया। इसी के माध्यम से नसीर के अँगरेजी नाटकों ने मुंबई और देश की सीमा लाँघते भारतीय रंगमंच का नया चेहरा कायम करने में अहम किरदार अदा किया। पिछले कुछ समय से वे हरिशंकर परसाई, सआदत हसन मंटो और इस्मत चुगताई की कहानियों को जस का तस नाटक के रूप में पेश करने वाले हैं, जिन्हें 20-26 जुलाई तक पृथ्वी थिएटर में खेला जाएगा। सो "नसीर" और "मोटली" के लिए शुभकामनाएँ।

(नईदुनिया)

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