लता मंगेशकर : मेरे घर फिल्म संगीत पसंद नहीं किया जाता था

प्रस्तुति : वीरेन्द्र मिश्र

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भारत की कोकिल कंठ। भारत रत्न लता मंगेशकर। सात दशक की यात्रा के बावजूद आवाज से वह चिरयौवना हैं। वे सृजनशीलता, राग-अनुराग, आरोह-अवरोह की ऐसी जीवंत मिसाल हैं कि बचपन से लेकर आजतक, अपनी उम्र के चार-पांच वर्षों में उन्होंने गायकी को जो अनायास ही सुर दिया, वह आज भी अपनी पहचान के साथ यथावत बरकरार है। हालाँकि इन वर्षों में उनके जीवन में न जाने कितने ही थपेड़े खाए किंतु न संजीदगी कम हुई, न ही राग की क्षमता में कहीं मध्यम स्वर लगा। भारत रत्न लता को 'मणिमाला' कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

लता मंगेशकर की अपनी स्मृतियों में आठ दशक के लम्हे किताब की शक्ल में बातचीत के जरिए सामने आए हैं। लंदन में रहने वाली नसरीन मुन्नी कबीर लेखिका के अलावा फिल्म निर्मात्री भी हैं और 'चैनल-4' से जुड़ी हैं। उन्होंने ही लता मंगेशकर से लंबी अंतरंग बातचीत की है और उसे 'नियोगी ऑफसेट' ने बेहतरीन किताब की शक्ल देकर-'लता की आवाज' नए आयाम में, ढाल दिया है।

यह पुस्तक लता के बचपन से लेकर अब तक के संस्मरणों, विचारों का ऐसा पिटारा है जिसमें चार साल की उम्र से लेकर अब तक की तस्वीरों का संकलन भी है। आवाज लता की गूँजती सी जान पड़ती है और उन लम्हों के साथ अतीत के पन्ने कुछ इस तरह से खुलते हैं कि पूरा परिवार, कुनबा, समाज और राष्ट्र से जुड़ी तस्वीरें कई कालखंडों को सामने उकेर देती हैं।

28 सितंबर, 2009 को लता अस्सी बरस की हो जाएँगी यानी आठ दशकों की जीवंत दास्तान को लगभग 260 पन्ने कुछ इस तरह से खोलते हैं कि पता ही नहीं चलता कि शुरुआत के बाद कब खत्म हो जाता है बातचीत का सिलसिला। अपने प्रयास पर इसके प्रकाशक विकास नियोगी बेहद उत्साही हैं। आदिनाथ मंगेशकर के सहयोग से संपन्न इस कार्य को वह राष्ट्रीय उपलब्धि करार देते हैं जिसे उन्होंने कई वर्षों के प्रयास के बाद साकार किया है।

'आएगा आने वाला' से लेकर 'खामोश है जमाना, चुपचाप हैं सितारे, ये दिल धड़क रहा है, इस आस के सहारे' जैसे जीवंत बोल अब इतिहास बन चुके हैं जो समय, वर्ष की सही याद के प्रमाणों के साथ लता मंगेशकर स्वयं नसरीन मुन्नी कबीर को बताती हैं। पुस्तक की खासियत यह है कि शुरू से अब तक की दुर्लभ तस्वीरें भी छंदों को लयबद्ध कर पीढ़ियों को धागे में पिरोकर आगे बढ़ाती जाती हैं। प्रस्तुत हैं कुछ अंश-

लता मंगेशकर :
चीन ने 1962 में जब भारत पर आक्रमण किया तो गीतकार प्रदीप जी ने एक गीत लिखा, जिसे मैंने गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी, 1963 को गाया। उसके संगीतकार सी. रामचंद्र थे। वह खुद भी अपने चंद संगीतकारों के साथ दिल्ली पहुँचे थे। वह ऐसा वक्त था कि मुंबई से दिल्ली पहुँचने वालों में राजकपूर, दिलीप कुमार, नौशाद अली, शंकर जयकिशन, मदन मोहन सभी थे।

'ऐ मेरे वतन के लोगों' इस गीत को खत्म कर मैं मंच पर पीछे जाकर बैठ गई और एक कॉफी पीने के लिए मँगाई । तभी अचानक महबूब खाँ साहब तेजी से मेरी ओर बढ़ते हुए पहुँचे और बोले, 'लता, लता कहाँ हो तुम? पंडित जी, तुम्हें बुला रहे हैं।' मैं तुरंत खड़ी हो गई और उनके साथ चल पड़ी। कुछ दूर बढ़ने के बाद जब पंडित जी की नजर मुझ पर पड़ी तो वे वहीं रुक गए। उस समय तबके नामचीन राजनीतिज्ञ और इंदिराजी भी उनके पास ही थीं। महबूब खाँ साहब ने मेरा परिचय उनसे करवाया। 'यही है लता मंगेशकर।' पंडित जी बोले, 'बेटा, तुमने आज मुझे रुला दिया। अब मैं घर जा रहा हूँ। तुम वहीं आओ और हमारे साथ चाय पियो।'

बहरहाल, हम सभी तीन मूर्ति भवन पहुँच गए। मैं चुपचाप एक किनारे जाकर खड़ी हो गई। तभी इंदिरा तेजी से मेरे करीब आईं और बोलीं, 'अरे! आप यहाँ हैं। अच्छा यहीं रुकिएगा। कहीं जाइएगा नहीं, मैं बस चंद मिनटों में आती हूँ। मैं आपको आपके दो प्रशंसकों से मिलाना चाहती हूँ जो आपके गीतों के दीवाने हैं।' कुछ देर बाद वह लौटीं, उनके साथ उनके दोनों बेटे राजीव और संजय थे। तभी पंडित जी की आवाज गूँजीः कहां है वह लड़की जिसने गीत गाया था? मैं उनके साथ ही आगे बढ़कर पंडित जी के पास पहुँच गई। पंडित जी ने मुझे देखते ही कहा, 'बेटा! आओ। क्या तुम वह गीत दुबारा यहाँ गा सकती हो?' सहजता के साथ मैंने उत्तर दिया, 'मैं अभी नहीं गा सकती।'

1964 में पंडित नेहरू जी जब मुंबई आए। उस समय चर्चगेट के पास क्रिकेट मैदान में चैरिटी शो था। जहाँ मैंने पंडित जी की मौजूदगी में फिल्म 'आरजू का गीत- 'अजी रूठकर अब कहाँ जाइएगा' गाया। मैं मंच पर ही थी कि तभी पंडित नेहरू जी की फरमाइश आई 'ऐ मेरे वतन के लोगों ... गाओ।' थोड़ी देर बाद ही मैंने वही गीत गाया। पंडित जी बेहद दुःखी थे। विजयलक्ष्मी पंडित उनके साथ थीं। तभी अचानक हास्य अभिनेता गोपजी के भाई एमकलानी मेरे पास आए और बोले, 'लता! पंडित जी तुम्हें याद कर रहे हैं।' मैं उनके साथ ही पंडित नेहरू जी की कार के करीब पहुँची। उन्होंने कार का शीशा खोला और अपने हाथों से मेरा हाथ पकड़ कर बोले, 'बेटा! मैं यहाँ तुम्हें और तुमसे ऐ मेरे वतन ... उस गीत को ही सुनने के लिए आया था। मुझे खुशी है कि मैंने दोबारा तुम्हें सुन लिया।

पंडित जी का मेरे प्रति स्नेह बना रहा। श्रीमती इंदिरा गाँधी जी से भी मेरी अंतरंगता रही। जब मैं कोल्हापुर में थी तो 27 मई, 1964 को खबर मिली कि पंडित जी नहीं रहे । गहरा धक्का लगा। दूसरे दिन भाई ने अचानक खबर दी कि लता महबूब खाँ साहब नहीं रहे। दो महान विभूतियाँ एक दिन के अंतराल में हमसे जुदा हो गई थीं।

मैं बचपन में घर में अपने बाबा यानी मेरे पिताजी, को गाते-बजाते हमेशा सुना करती थी, किंतु मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं उनके सामने गा पाती। एक दिन बाबा एक शिष्य को 'राग पूरिया धनाश्री' सिखा रहे थे। पिताजी कुछ देर के लिए बाहर निकले, वह बेसुरा ही नहीं बल्कि गलत गा रहा था। मैं तुरंत उसके पास पहुँची और बोली यह गलत है। इसे इस तरह से गाना चाहिए। उसे गाकर बताने लगी। तभी पिताजी अंदर आ गए और मुझे राग पूरिया धनाश्री गाते सुना तो चौंक गए। मेरी माँ को पुकारते हुए बोले, 'देखो घर में इतनी अच्छी गायिका मौजूद है, हमें मालूम ही नहीं।'

दूसरे दिन सुबह छह बजे बाबा ने मुझे जगा दिया और मेरे हाथों में तानपूरा थमा दिया और कहा आज से तुम संगीत की शिक्षा लोगी। उस दिन पहली शिक्षा 'राग पूरिया धनाश्री' से आरंभ हुई। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, तब मेरी उम्र पाँच वर्ष की रही होगी। मुझे 'सरगम' या फिर आलाप में ज्यादा रुचि नहीं थी। हाँ, बंदिश मुझे अच्छी लगती थी।

सन्‌ 1940 के आस-पास की बात है। एक दिन बाबा की कंपनी शोलापुर में कार्यक्रम देने जा रही थी। मैंने बाबा से अपनी प्रस्तुति के लिए आग्रह किया। इस पर बाबा ने कहा, 'तुम कैसे गाओगी?' 'क्यों नहीं, मैं गाऊँगी।' 'अच्छा कौन-सा राग तुम गाओगी?' 'खंबावती राग गाऊँगी और दो गीत भी ।' मुझे उनकी अनुमति मिल गई थी। शोलापुर के नूतन थियेटर में पहली बार मंच पर राग खंबावती और दो मराठी गीत सुनाने का मौका मिला। मुझे आज भी सब याद है। बाबा देर रात तक गाते रहे थे और मैं उनके पैरों पर सिर रख कर सो गई थी।

अब एक बात और बता दूँ मेरे घर में फिल्म संगीत नहीं पसंद किया जाता था। पिताजी को कुछ भी कह लें वे पहनने, ओढ़ने, बैठने, बात करने सभी में सख्त थे। माँ भी खानदेशी थीं। विशुद्ध शाकाहारी होने के साथ वह नौ गज की साड़ी पहना करती थीं। फिर भी पिताजी और हम तीनों बहनों के लिए 'नान वेज' पकाती थीं। पिताजी, सहगल साहब को बहुत पसंद करते थे। शायद यही वजह थी कि मुझे घर में सहगल साहब के गीत गाने की छूट थी।

1919 में बाबा ने एक नाटक 'भाव बंधन' में लतिका की भूमिका अभिनीत की थी। वह उस चरित्र से बेहद प्रभावित हुए थे। तभी उन्होंने मेरा नया नामकरण 'लता' कर दिया था, इसके पहले मैं हृदया नाम से जानी जाती थी। मेरे बाबा लड़कियों को थियेटर में काम करने के सख्त विरोधी थे। एक दिन मैंने बाबा से डरते-डरते कहा, 'भाव बंधन' के लिए मैं गाना चाहती हूँ।' वह मान गए। मैं बेहद खुश हुई। बाबा अचानक मुंबई चले गए तो मैंने उनके प्रिय शिष्य गणपत राव मोहिते से-जिन्हें मैं गणु मामा कहती थी-कहा कि 'पुण्य प्रभाव' में राजकुमारी की भूमिका करूँगी क्योंकि आपको तीन गीत भी गाने हैं। वह बोले, बाबा क्या बोलेंगे। बहरहाल, मंच पर अपने दो सहयोगी कलाकारों के बीच जैसे-तैसे मैंने वह भूमिका अदा कर दी थी। जब बाबा लौटे तो उन्हें सब पता चला। एक बात और बता दूँ। बाबा थे मराठी किंतु जब बहुत गुस्से में होते या फिर खुश होते तो कोंकणी बोलने लगते थे। मैं डर के मारे कमरे में छुपी थी। माई ने कहा कि वह बच्ची है। फिर बाबा कुछ नहीं बोले। बाद में उन्होंने 'कोणी वाले गुरुकुल' नाटक लिखा और उसमें मुझे श्रीकृष्ण और बहन मीना को सुदामा का चरित्र सौंपा था।

एक बात और याद आ रही है। जब हम सांगली में थे तो मेरे पास दो आने का सिक्का था। पास में ही दुकान थी। माई ने साबुन मँगाया था। नौकर विट्ठल वापस आया और बोला सिक्का खोटा है। मैंने उससे वह सिक्का छीन लिया और बोली-मैं लाती हूँ। जाकर दुकानदार चिलिया से कहा, 'साबुन दे दो' और उसे मैंने वही खोटा सिक्का पकड़ा दिया। उसने उसे लेकर गल्ले में रख दिया। घर आकर बताया कि कैसे किया तब माँ ने डाँटा और दो आने का सिक्का दुकानदार को देने के लिए कहा। मैं रोने लगी किंतु माफी माँगकर दुकानदार को सही सिक्का देकर खोटा सिक्का वापस माँग लाई थी।

1947 में जब 18 साल की थी, तभी मैंने मुंबई के नानाचौक से पहला रेडियो खरीदा था । मैंने चटाई बिछाई और रेडियो ऑन किया। तभी पता चला कि सहगल का निधन हो गया। 18 जनवरी, 1947 की बात है। मैंने तुरंत उठकर रेडियो बंद किया और दुकानदार को वापस कर आई।

1941 की बात याद आ रही है। बाबा को हाई ब्लडप्रेशर हो गया था। वह दिनों-दिन कमजोर होते जा रहे थे। वह मेरी बातें सुनते थे। एक दिन मैं उनके पास ही बैठी थी कि तभी उनके मित्र आए और बोले कि पड़ोसी की मौत हो गई है। माई चौंक गईं और बोलीं, 'क्या जगह है, यहाँ मौत ही मौत होती है। यहाँ विधवा ही विधवा हैं।' तभी बाबा बोले, 'अगले शुक्रवार को 11.20 बजे मेरी भी मृत्यु हो जाएगी।' मैं हँस पड़ी और बोली, 'बाबा कैसी बात करते हैं।' 'हँसो नहीं बेटी। मेरा समय पूरा हो चुका है।' मुझे याद है वृहस्पतिवार की रात उनको खून की उल्टियाँ हुईं और 24 अप्रैल, 1942 को उनके साथी उन्हें पूना अस्पताल ले गए। वही हुआ जैसा बाबा ने घोषणा की थी। ठीक 11.20 बजे उन्होंने अंतिम साँस ली थी। माई ने लौटकर बताया तो सबसे पहले मैंने हृदयनाथ और उषा को जो छोटे थे, किचन में बंद कर किया। भाई तो बीमार भी था। मैं सुनकर जोर से चीखी। एक घंटे बाद माई से मैं बोली, 'मैं कहाँ काम करूँगी? कैसे पैसे लाऊँगी?' मन में एक ही सवाल गूँज रहा था। बाबा की मौत के बाद घर की जिम्मेदारी मुझ पर थी।

फिल्म 'बीस साल बाद' गाने की रिकॉर्डिंग के वक्त लता मंगेशकर बेहद बीमार हो गईं थीं। 'कहीं दीप जले कहीं दिल' ये गीत भले सुपरहिट रहा हो किंतु इसके पीछे की दर्द भरी दास्तान भी है।

लता की जुबानी, '1962 में मैं बेहद बीमार हो गई थी। तीन महीने तक जूझती रही। मैंने तो सोच लिया था दुबारा फिर नहीं गा सकूँगी। हुआ यह कि एक दिन जब सुबह उठी तो मुझे घबराहट-सी हो रही थी, बेचैनी थी मेरे पेट में। मुझे कुछ देर बाद उल्टियाँ होने लगीं। उल्टी भी 'हरेपन' के साथ थी। घर पर डॉक्टर आए। एक्स-रे मशीन भी ले आए क्योंकि मैं कहीं जाने लायक नहीं थी। उन्होंने एक्स-रे किया और कहा मुझे हल्का जहर दिया गया है। हमारा एक नौकर था जो खाना पकाता था। उषा अचानक अंदर गई। किचन में जाकर कहा कि वह किचन में खुद खाना पकाएँगी। नौकर बिना किसी से कुछ कहे-बोले चुपचाप घर से चला गया। हमने सोचा कि शायद किसी ने कराया हो। कौन था पता नहीं चला।

उस घटना के बाद तीन महीने तक मैं बिस्तर पर ही रही। मैं उस समय मजरूह सुल्तानपुरी को कभी भूल नहीं सकूँगी जिनकी सहृदयता थी कि वह हर शाम छह बजे आ जाया करते थे। मैं जो खाती, वह भी खाते। मुझे वह कहानियाँ सुनाते और कविताएँ भी सुनाते। जब मैं धीरे-धीरे गाने लायक हो गई, तब हेमंत कुमार ने गीत रिकॉर्ड किया था- 'कहीं दीप जले, कहीं दिल।'

(संडे मैग्जीन)