बहुत कम लोग दुनिया में सबसे मुश्किल काम पूरा करते पाते हैं और वह है इंसान बनना। भारतीय सिनेमा के इतिहास में बलराज साहनी एक ऐसा ही नाम है। फिल्म उद्योग जैसे चकाचौंध वाले व्यवसाय में रहकर भी वे ग्लैमर से कोसों दूर रहे। उन जैसा सरलमना, उदार और सर से पांव तक इंसानियत में डूबा समर्पित कलाकार मिलना दुर्लभ है। पंजाबी मूल के बलराज साहनी ने अपनी जिंदगी के 26 वर्ष अभिनय संसार में बिताए। परदे पर उनकी छवि एक धीर-गंभीर महान व्यक्ति की थी। उन्हें 'मीनाकुमारी' का 'पुरुष प्रतिरूप' भी कहा जाता है, क्योंकि ज्यादातर फिल्मों में उन्होंने त्याग प्रधान ट्रेजिक भूमिकाएं ही निभाईं।
काबुली वाला
बलराज काफी परिपक्व आयु में अभिनय जगत से जुड़े थे। मूलत: साहित्यिक अभिरूचि वाले बलराज ने संप्रेषणीयता की विस्तृत संभावनाओं की तलाश में फिल्म माध्यम को अपनाया। उनकी पहली महत्वपूर्ण फिल्म थी काबुली वाला। गुरुदेव टैगोर की कहानी पर आधारित इस फिल्म में उन्होंने एक सहृदय पठान का चरित्र निभाया था। बलराज के संवेदनशील अभिनय में यह फिल्म अत्यंत मार्मिक बन पड़ी थी। लेकिन बलराज की अगली फिल्मों हम लोग और धरती के लाल में उनका एक बिलकुल अलग स्वरूप सामने आया। इन फिल्मों में उन्होंने सामाजिक अन्याय से लड़ने वाले एक विद्रोही नौजवान के पात्र को परदे पर अभिव्यक्ति दी। 'हम लोग' में शोषण और अत्याचार के खिलाफ उनका सारा गुस्सा पूरी शिद्दत के साथ उभरा। इस फिल्म के आधार पर कुछ लोग बलराज को भारतीय सिनेमा का पहला 'एंग्री यंग मैन' निरूपित करते हैं।
बुरा नहीं माना दिलीप कुमार की आपत्तिजनक टिप्पणी का
बलराज साहन ने कला को सामाजिक प्रतिबद्धता से जोड़ने के प्रयास में अपनी कई फिल्मों जैसे गरम कोट, सीमा, गरम हवा, परदेसी, सोने की चिड़िया, दो बीघा जमीन, कठपुतली, राही, अनुराधा, पिंजरे के पंछी आदि में किसी न किसी तरह से नैतिक मूल्यों की वकालात की है। खास तौर पर बिमल राय की दो बीघा जमीन और राजेंद्र सिंह बेदी द्वारा निर्मित गरम कोट में भारतीय समाज के दबे कुचले वर्ग का उन्होंने अत्यंत सशक्त प्रतिनिधित्व किया। वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होने के कारण राजेंद्र सिंह बेदी और कुछ अन्य लेखक दोस्तों के साथ उनका खास याराना था। संबंधों के लिहाज से उन्होंने कभी कृपणता नहीं दिखाई। इसका एक उदाहरण इस बात से दिया जा सकता है कि दिलीप कुमार ने एक बार 'फुटपाथ' फिल्म की शूटिंग के दौरान बलराज को लेकर कुछ आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी, लेकिन बलराज ने दिलीप से काफी वरिष्ठ होते हुए भी इसका बुरा नहीं माना, बल्कि वे हमेशा दिलीप कुमार की तारीफ ही करते रहे। बाद में उन्होंने दिलीप के साथ 'संघर्ष' फिल्म में काम भी किया।
बाकी रह गई एक कसक
हिंदी फिल्म जगत का दुर्भाग्य है कि यहां कलाकार की प्रतिभा का समुचित उपयोग नहीं हो पाता। यही वजह थी कि बलराज साहनी जैसे असाधारण अभिनेता को एक फूल दो माली, नौनिहाल, हंसते जख्म, छोटी बहू आदि फिल्मों में महत्वहीन रोल निभाने पड़े। दरअसल उनके गरिमापूर्ण व्यक्तित्व का फायदा निर्माताओं ने उन्हें पारिवारिक फिल्मों में 'बड़ा भाई' बना कर ही उठाना चाहा। निश्चित रूप से यह बलराज की प्रतिभा का सीमित आकलन था जिसने भारतीय सिनेमा को उनके कुछ और प्रभावशाली प्रदर्शनों से वंचित कर दिया। रजतपट पर सैकड़ों पात्रों को अपनी अभिनय तूलिका से जीवंत करने के बावजूद बलराज के दिल में एक कसक बाकी रही। वे कुछ कहानियां और कुछ उपन्यास लिखना चाहते थे। अपनी साहित्यिक भूख को उन्होंने 'परदेसी' में एक कवि की संजीदा भूमिका निभा कर संतुष्ट करने का प्रयास किया। परदेसी भारत-सोवियत सहयोग से बनने वाली पहली फिल्म थी। बलराज ने एक बाल फिल्म 'डाकघर' में भी काम किया था। 13 अप्रैल 1973 को एक सार्थक कलायात्रा पूरी करने के बाद बलराज की मृत्यु हो गई।