गुरुदत्त के पिता का नाम शिवशंकर पादुकोण और माता का नाम वासंती पादुकोण था।
उनके पिता हेडमास्टर थे। बाद में वे बैंक में काम करने लगे।
उनकी माता स्कूल में अध्यापिका होने के अलावा लघु कथाएँ भी लिखती थीं। साथ ही वे बंगाली उपन्यासों का कन्नड़ भाषा में अनुवाद करती थीं।
गुरुदत्त का जब जन्म हुआ तब उनकी माता की उम्र केवल 13 वर्ष थी।
परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण गुरुदत्त का बचपन अभावों में बीता।
उनके छोटे भाई शशिधर की सात माह की उम्र में ही मौत हो गई थी, इससे गुरुदत्त बेहद दु:खी हुए थे।
गुरुदत्त के दो भाई आत्माराम और देवीदास तथा एक बहन ललिता थी।
प्रख्यात निर्देशिक कल्पना लाजिमी उनकी बहन की बेटी।
कलकत्ता में स्कूली शिक्षा होने के कारण गुरुदत्त बंगाली भाषा अच्छी तरह बोल लेते थे।
बचपन में गुरुदत्त की दादी जब आरती किया करती थीं, तब दीपक की रोशनी में अपने हाथों की परछाई से गुरुदत्त दीवार पर भिन्न-भिन्न आकृतियाँ बनाया करते थे।
गुरुदत्त एक अच्छे विद्यार्थी थे, लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण कॉलेज नहीं जा सकें।
गुरुदत्त के अंकल ने 1944 में तीन वर्ष के अनुबंध पर पूना की प्रभात फिल्म कंपनी में उनकी नौकरी लगवाई।
प्रभात में गुरुदत्त को कोरियोग्राफर के रूप में अनुबंधित किया गया था, लेकिन बाद में उन्हें अभिनेता और सहायक निर्देशक की जिम्मेदारी भी सौंप दी गई।
यहीं पर गुरुदत्त के दो दोस्त बने- अभिनेता रहमान और देव आनंद। गुरुदत्त और देव आनंद एक ही लाँड्री पर कपड़े देते थे। एक दिन सेट पर देव आनंद ने गुरुदत्त को अपनी शर्ट पहने देखा। जब उन्होंने इस बारे में पूछा तो गुरुदत्त ने कहा कि उनके पास कोई दूसरा शर्ट नहीं था, इसलिए वे लाँड्री वाले से ये शर्ट ले आए। इसके बाद वो अच्छे दोस्त बन गए।
गुरुदत्त और देव आनंद ने एक-दूसरे से ये वादा किया था कि यदि गुरुदत्त पहले निर्देशक बने तो वे देव को नायक लेंगे और यदि देव निर्माता बने तो गुरुदत्त को निर्देशक के रूप में लेंगे। बाद में देव ने अपना वादा निभाया।
गुरुदत्त ने 1944 में निर्मित चाँद में श्रीकृष्ण का छोटा-सा रोल किया था। 1945 में वे फिल्म लखरानी में विश्राम बेडेकर के सहायक निर्देशक बने। 1946 में पीएल संतोषी की फिल्म हम एक हैं में वे सहायक निर्देशक के अलावा कोरियोग्राफर भी थे।
1947 में प्रभात से गुरुदत्त का अनुबंध समाप्त हुआ। इसके बाद लगभग 10 माह तक वे बेरोजगार रहें।
इस दौरान गुरुदत्त ने अँग्रेजी भाषा में लिखना शुरू किया। उन्होंने इलेस्ट्रेड वीकली में कई लघु कथाएँ लिखी।
1947 में गुरुदत्त बॉम्बे चले आएँ और अमिय चक्रवर्ती और ज्ञान मुखर्जी जैसे निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया।
अपने निर्देशन की शुरूआत गुरुदत्त ने बाज़ी (1951) से की थी।
गुरुदत्त और गीता रॉय की मुलाकात बाज़ी फिल्म के गाने के रेकॉर्डिंग के समय हुईं। दोनों में प्यार हुआ और 26 मई 1953 को दोनों ने शादी कर ली।
1954 में प्रदर्शित आरपार के जरिए गुरुदत्त को निर्देशक के रूप में ख्याति मिलीं।
इसके बाद गुरुदत्त ने मि. एण्ड मिसेस 55 (1955), प्यासा (1957) और कागज के फूल (1959) जैसी शानदार फिल्में बनाईं।
कागज के फूल की असफलता ने गुरुदत्त को तोड़ दिया था। इस फिल्म को बनाने में उन्होंने खूब पैसा लगाया और जमकर मेहनत की।
कागज के फूल भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म थी। इस फिल्म में गुरुदत्त ने शेड और लाइट का जबरदस्त प्रयोग किया है।
गाने के जरिये फिल्म की कहानी आगे बढ़ाने में गुरुदत्त को महारथ हासिल थी।
गुरुदत्त अपनी फिल्मों में ज्यादातर क्लोज-अप शॉट लेते थे। उनका मानना था कि 80 प्रतिशत अभिनय आँखों से किया जाता है।
गुरुदत्त अपने काम से बेहद कम संतुष्ट होते थे। उन्हें अपने द्वारा बनाई गई हर फिल्म में कुछ ना कुछ कमी दिखाई देती थी। उनकी कई फिल्में इसलिए अधूरी रह गई कि वे उससे संतुष्ट नहीं थे।
गुरुदत्त द्वारा निर्देशित प्यासा को टाइम मैग्जीन ने 100 श्रेष्ठ फिल्मों में से एक माना है।
अपनी मृत्यु के पहले गुरुदत्त ने माला सिन्हा से बहारें फिर भी आएँगी के बारे में बात करने के लिए समय तय किया था।
10 अक्टोबर 1964 को नींद की गोली ज्यादा खाने की वजह से उनकी मौत हो गई। यह अभी तक रहस्य है कि उन्होंने आत्महत्या की या उनकी स्वाभाविक मौत हुई।